रंग बदलता आदमी, बदनाम गिरगिट - 9 बेदराम प्रजापति "मनमस्त" द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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रंग बदलता आदमी, बदनाम गिरगिट - 9

रंग बदलता आदमी,बदनाम गिरगिट 9

काव्य संकलन

समर्पण-

देश की सुरक्षा के,

सजग पहरेदारों के,

कर कमलों में-

समर्पित है काव्य संकलन।

‘रंग बदलता आदमी,बदनाम गिरगिट’

वेदराम प्रजापति

मनमस्त

मो.9981284867

दो शब्द-

आज के परिवेश की,धरती की आकुलता और व्यवस्था को लेकर आ रहा है एक नवीन काव्य संकलन ‘रंग बदलता आदमी- बदनाम गिरगिट’-अपने दर्दीले ह्रदय उद्वेलनों की मर्मान्तक पीड़ा को,आपके चिंतन आँगन में परोसते हुए सुभाषीशों का आभारी बनना चाहता है।

आशा है आप अवश्य ही आर्शीवाद प्रदान करैंगे- सादर।

वेदराम प्रजापति

मनमस्त

गुप्ता पुरा डबरा

ग्वा.-(म.प्र)

अब कब तक और लगाते रहोगे,ऐ पैबंद,

समझो,उखड़ती ही रहैंगी,कच्चे धागे की सीवन है।

घुट-घुट कर मरना तो,जिंदगी कोई है नहीं,

खट-पट से मरना ही तो,सच्चा सा जीवन है।।401।।

खुश नशीबी हो,जो तूँ यहाँ ना रुका,

जो भी रुककर बैठ गया,वो हारा जीवन।

इसी लिए रुकना जीवन का,ठीक न जानो,

चलते रहना ही जीवन है,सच्चा जीवन।।402।।

आयना बेशर्मी की कालिख से,पुता है,

चुम्बकों की ओर,क्यों झुकती है कलम वो।

न्याय की कैसे भली औकाद होगी,जब-

बेचकर आए यहाँ,इस तरह से इंसाफ को जो।।403।।

कैसे संभलेगी पतवारें,उनके बौने हाथों में,

जो इतना सोया है आज भी,इतना बे खवर।

जिसकी कस्ती,किनारे पर ही डूबी हो भला,

उससे भरोसा क्या करे,इस लम्बे से सफर।।404।।

हासिल करो बेखूबीयाँ,जो हमेशा साथ दे,

सच्चाइयों को याद रखना,गाँठ में ही जोड़कर।

हर किसी मंजर से यहाँ,गुजरना है तुम्हें तो,

बरना मात खा जाओगे,किसी भी मौड़ पर।।405।।

पीटते रहो भला,इस तरह से लकीरों को,

निकल गया है सामने से,समय का वो हाथी।

पहले ही होना था,तुम्हें बाकिफ इससे,

अब पछताने में इस तरह,क्या रक्खा है साथी।।406।।

दोस उनको किस तरह,देवे यहाँ पर,

सौंप दी हमने अमानत,उन्हें हँस-जब।

अब खड़े क्या सोचते हो,इस तरह से,

जब,बंदरो ने कर दिया,वीरान ही सब।।407।।

वास्ता उनका रहा,इंसान से हैवान तक यह,

क्या करे अब सोचकर भी,जिंदगी जब खाक है।

भूँख ने सब कुछ कराया,इस तरह से आज तक,

क्यों न करतेॽ,भूँख का ही,इस तरह इंसाफ है।।408।।

लात के जो भूत है,वे बात से कब मानते,

होऐगे अच्छे कबै वे,जो सकल से काले हो।

क्या कहै उनसे,पलटते जो हर घड़ी,

सिकवा तो उनसे ही करे,जो बात वाले हो।।409।।

इस सफर में,हम किसे दोषी बताएँ,

बंदरो को सौंपकर,अपनी अमानत।

जानते हो हश्र इसका होऐगा क्या,

देश,दुनियाँ देऐगी,हमको ही लानत।।410।।

वे चलेगे चाल कैसी,राग भी उनका गजब,

पीढ़ियाँ कोसेगी हमको,जो किया है आज हमने।

झेलना सब कुछ पड़ेगी,ये दुलत्ती हमें ही,

क्योंकि,बाँधे है गधो के,इस तरह के ताज तुमने।।411।।

हम खड़े नंगे औ भूँखे,इस अंधेरी राह में,

शर्म फिर भी आ रही है,इस तरह से लुटते हमें।

क्योंकि हम है आदमी ही,दौरे इस सफर के,

वे बकूफी यह हमारी,हँसते कहेगा,वो समय हमें।।412।।

क्यों करो पाखंड,इतना भी जिगर,

जो अंधेरे में भी,नंगे धड़ंगे दिख रहे।

पर तुम्हें आती नहीं,फिर भी शरम,

चंद से टुकड़ो में,इस तरह यों बिक रहे।।413।।

तुम देखो न देखो,अपने कारनामें भलां,

कालिख के आइने में भी,तुम्हे शक्ल दिखेगी।

इसका जवाव तुम्हारे पास भी,नहीं होगा,

क्योंकि तुम्हारी औकाद,टके-टके में ही बिकेगी।।414।।

आदमी हो-इसलिए कहते तुम्हें ही,

मत समझना बात यह,मिन्नत यहाँ है।

इंसानियत की राह पर,यदि तुम चले तो,

यह धरा भी होऐगी,जान लो जन्नत यहां है।।415।।

इक कदम भी,सोचकर रखना इधर को,

क्योंकि तुम,बिल्कुल खड़े सरहद यहाँ पर।

यही तो वह लक्ष्मण रेखा है,समझ लो,

इसे लाँघ नहीं पाया था,रावण वहाँ पर।।416।।

ये धरा है,जंग जीतो के लिए,

आ गए कैसे यहाँ तुम,और कब से।

खेल में जिसने बिता दी जिंदगी हो,

काँपते पग को,डगर आसान कब से।।417।।

इस औहदे पर भी,हरकत तुम्हारी बचकनी,

न जाने खत्म कब हो जाएगा,जिंदगी का यह सफर।

इसलिए ही इस तरह की,हरकदें बदलो सखे,

आदमी बनना तुम्हें,तो लौटकर आओ तो,अपने ही घर।।418।।

जहाँ चारौं तरफ,लुटेरे ही लुटेरे हो,

उस डगर में,बहुत ही मुश्किल-हिफाजित।

किन्तु चलना तो नियति है आदमी की,

आदमी होकर,तुम्हें करना सबकी हिफाजित।।419।।

सब तरफ अडडे ही अडडे,गिरहकटों के,

मंदिरो में भी,यहाँ लुटेरे घुस गए है।

किन्तु उनके लूटने का,तौर ही कुछ और है,

लोग लुटकर भी यहाँ पर,खूब हँस गए है।।420।।

अब कहाँ खोजे,निरा भगवान को यहाँ,

मौत के साए बने,यहाँ उपहार भी।

मस्जितों,गिरजाघरों की,शाख क्या है,

शस्त्रखाने बन गए यहाँ,गुरुद्वार भी।।421।।

कुछ ऐसा बदला है,जमाने का चलन,

मुर्गियाँ भी,बाग यहाँ देती दिख रही।

और कितना जाएगा,यह आगे सफर,

अस्मदें भी,मोल बिन यहाँ,बिक रही।।422।।

रात दिन होते जहाँ है,कलह-झगड़े,

देवता भी क्याॽ,पलायन भूत भी करते दिखे।

बस यही तो है यहाँ,रौरब नरक,

भूँख के इतिहास ने,अनगिनत पन्ने लिखे।।423।।

कलम नबीसो ने ही,कलम को बदनाम किया ,

बरना ये पेट की ही आग को,बुझाने ही चली।

यहाँ पर बिक गए कलमकार,चंद टुकड़ो में,

मजबूर होकर यह कलम, भटकी है गली-गली।।424।।

कलम की औकाद ओछी है नहीं,

कलमकारों की सकल है बेशरम।

साथ पाकर के हुई,बदनाम यह तो,

लेखिनी की नोंक तो,अब भी गरम।।425।।

दुनियाँ रची भगवान ने,कुछ सोचकर,

इंसान ने,इसको बनाया,और कुछ।

मंदिर रहे मंदिर ना,मस्जिद रही मस्जिद,

मयकसी भी हो गई,यहाँ और भी कुछ।।426।।

देखते हो क्या अजूबा,अकल का पुतला यही,

इसी ने तो,पत्थरों में डाल दी है,जान भी।

बदली गई है सकल सूरत सब यहाँ,

आदमी से हारता सा ही,लगा भगवान भी।।427।।

सोचते हो-क्या इन्हें,अच्छाईयाँ लगती बुरी,

इस तरह की चाल से,हाल भी,वेहाल है।

छोड़कर अच्छाईयों को,नुक्श ही देखे सभी,

आदमी की क्या कहे,संसार की ये चाल है।।428।।

इसलिए ही तो यहाँ पर,पुज रहा वह आज भी,

आदमी की ही शक्ल में,भगवान का प्रतिरुप है।

छोड़कर के और सब,जो देखता अच्छाईयाँ,

आदमी केवल नहीं,वह देवता का रुप है।।429।।

औकाद पर आना पड़ेगा आपको,

बच ना पाओगे,कलम की मार से।

यह चली,जब-जब चली,बस अमन को,

यदि कोई रोड़ा बना,तो पुज गई संहार से।।430।।

है गवाही आज भी,इतिहास सब,

कलम के अनुरुप होकर,सब जिए।

हो सका,जो बच गए भगवान से,

कलम से बचना,कठिन होगा प्रिय।।431।।

सोचलो,जर में नहीं है,जर कोई,

वो गई है कहाँ,किसके साथ में।

नाँचते है सब उसी की तान में,

और सबकी ही रहीं,चोटियाँ उस हाथ में।।432।।

गिर चुका है आदमी कितना यहाँ,

मकुहा से मगन है,जो इश्क में।

मैंटता है जन्नतें खुद की,मगर-

दौड़ता है जिंदगी भर,रिश्क में।।433।।

भूँख और शमशीर में नहीं फरक कोई,

मारतीं दोनो-मगर कुछ अंतरों से।

भूँख में घुट-घुट के मरते ही रहे,

और दूजी मारती,क्षण-मंतरो से।।434।।

ये हमारा सोच ही,बुनियाद की बुनियाद है,

जो खड़ा है सिर उठाए,गिन सको उसको ही गिन।

साथ में कोई न साथी,हम अकेले है भलां,

याद आएगे मगर हम,मंजिलो को बहुत दिन।।435।।

जिंदगी एक खुली किताब है,

तुमने पड़ने की कोशिश की,क्या कभी।

यदि नहीं तो,जिंदगी ही नहीं जिए,

जिंदगी को जीना,आसान होता है क्या कभी।।436।।

जिन्होने पढ़ा है करीने से इसे,

गीत उनके जहाँ ने,हर समय गाए।

जिंदगी को पढ़ना,बहुत आसान है,

यदि इसे-तरतीब ही से,पढ़ा जाए।।437।।

जिंदगी पढ़ना तुम्हें आया नहीं,

सच कहे तो ये जिंदगी कोरा घड़ा है।

वे आसानी से,जिंदगी पार हो गए,

जिन्होने जिंदगी को,तरतीब से पढ़ा है।।438।।

जिन्होंने पढ़ा भी है,वे भी समझ नहीं ठीक से पाए,

विना पढ़े कैसे जान पाओगे,जिंदगी की,ये किताब।

इसलिए ही पढ़ो तो,करीने से ही पढ़ो इसे,

करीने से गढ़ने पर,पत्थर भी पाते है,भगवान का खिताब।।439।।

फूल फूलते है,न जाने किसकी याद में,

फूल को खिलने दो,तोड़ो तो नहीं।

खिलने पर इसके पराग,बहुत कुछ देते है,

बिखरने पर रचते है,रंगोली ही हर कहीं।।440।।

कलियों को मसलना तो,अच्छी बात नहीं,

उन्हें खिलकर,फूल तो बनने दो जरा।

वे महकाऐगीं,सारे वातावरण को ही,

जरा सब्र करो,उनसे महकेगी ही सारी धरा।।441।।

हर कोई होता है,मुकाम की ही दौड़ में,

उसने पा लिया,तो फिर,काहे का झुकाम है।

इतने मायूस क्योंॽ,जनाजा देख कर,

क्या सोचते है-ये जिंदगी का मुकाम है।।442।।

जीवन का लक्ष्य,मंजिल पाला ही तो है,

यदि,पाली मंजिल,तो क्या किया बुरा।

जिंदगी का,जब सफर पूरा हुआ तो,

फिर उसे आराम करना,क्या बुरा।।443।।

अरे,जिंदगी भर दौड़ता ही तो रहा,

थक गया है,सो रहा अब चैन से।

घेर करके क्यों खड़े हो अब उसे,

आराम करने भी न दोगे,चैन से।।444।।

नींद कच्ची में,हुलीसते क्यों हो उसे,

सोया अभी-अभी है,नींद गहरी आने दो।

जिंदगी को,जिंदगी भर,खूब ही ढोता रहा,

बस अभी सोया यहाँ,चैन से सो जाने दो।।445।।

देखते हो,खूँन के ये दाग भी सूखे नहीं,

बैठते ही जा रहे है,हाथ नहीं धोए अभी।

क्यों दिखाते हो हमें,खूँ-सने इस कफन को,

होलियाँ,हम खून की ही,खेलकर आए अभी।।446।।

भूल मत जाना,यहाँ फौलाद के घर,

मात खाई है सभी ने,भूल से आकर यहाँ।

यहाँ नहीं है,खून की कोई कमी,

सन-सनाती गोलियाँ भी,बुझ गई आकर यहाँ।।447।।

यहाँ हुए कुरुक्षेत्र,कई एक,तुम अभी हो,नौसिखे,

भूल मत जाना अभी भी,बोलते हो और क्योंॽ।

बम दिखाकर,क्यों डराते हो हमें,

रोज खेले जा रहे है,बालकों के खेल ज्यों।।448।।

जानलो,मत भेद कोई है नहीं,

आरोह और अवरोह,ज्यों हो राग में।

सुख दुखों का मेल है,यह जिंदगी,

रोज सिक्के की तरह,देखी गई दो भाग में।।449।।

हो रहे ऊपर ओ नैचे,ज्यों तराजू के पला,

जान सकता कौन इसको,यह नियति से है बना।

प्यारा लगा है सुख,दुख के बाद ही,

है नहीं पहिचान कोई,एक-दूजे के बिना।।450।।