रंग बदलता आदमी,बदनाम गिरगिट 3
काव्य संकलन-
समर्पण-
देश की सुरक्षा के,
सजग पहरेदारों के,
कर कमलों में-
समर्पित है काव्य संकलन।
‘रंग बदलता आदमी,बदनाम गिरगिट’
वेदराम प्रजापति
मनमस्त
मो.9981284867
दो शब्द-
आज के परिवेश की,धरती की आकुलता और व्यवस्था को लेकर आ रहा है एक नवीन काव्य संकलन ‘रंग बदलता आदमी- बदनाम गिरगिट’-अपने दर्दीले ह्रदय उद्वेलनों की मर्मान्तक पीड़ा को,आपके चिंतन आँगन में परोसते हुए सुभाषीशों का आभारी बनना चाहता है।
आशा है आप अवश्य ही आर्शीवाद प्रदान करैंगे- सादर।
वेदराम प्रजापति
मनमस्त
गुप्ता पुरा डबरा
ग्वा.-(म.प्र)
सीख के पैगाम,थोड़े ही बहुत है,
बच नहीं सकते,तुम्हारी हो रहीं बदनामियाँ है।
नियति की ये अदालत,किसको सजा दें,
देखने में सैकड़ो ही,दिख रही जब खामियाँ है।।101।।
जुल्म सहकर भी,ये कैसे जी रहे है,
लग रहा ज्यौं,भीड़ मुर्दों की खड़ी है।
कौन सा जादू,इन्हें बस में किए है,
और पग में,कौन सी बेड़ीं पड़ी है।।102।।
वे समझते ही रहे,हम जी रहे है,
उल्लुओं सी बोलते,सब बोलियाँ है।
कौन जिंदा है यहाँ,अफसोस होता,
आज कल,मुर्दों की चलती टोलियाँ है।।103।।
इनको जरा भी आएगी कब समझ बोलो,
किस तरह की दौड़,कैसे दौड़ते है।
सब कहै,मुर्दे कभी नहीं चल सके है,
पर यहाँ दिन रात मुर्दे दौड़ते है।।104।।
देख लो तुम ही उन्हें,जिंदे या मुर्दे,
भीड़ किसकी,जो कतारों में खड़ी हैं।
क्या हुआ यह,आज के वातावरण को,
कौन सी गीता,इन्होने यहाँ पढ़ी हैं।।105।।
बात अपनी,हम कहैगे उन हदो तक,
बोलने पत्थर लगे,यह सोचनी है।
रोशनी क्या खूब,जो अंधा बना दे,
पर हमें,अंधों को देना रोशनी है।।106।।
देश के उत्थान की चिंता लगी है,
इस दिशा में सब चलैं कब,यही है गम।
जिस रोशनी ने,कर दिया अंधा समय को,
उस जहाँ की रोशनी से,दूर है हम।।107।।
जिंदगी को न्याय पथ न्यौछार कर के,
इस जहाँ से,तम कुहा को,छाँटना है।
बन गए जो,इन उजालो से अंधेरे,
उन अंधेरो को,उजाले बाँटना है।।108।।
अच्छे समय में दोस्तो की भीड़ लगती,
बख्त पर पहचान होती,दोस्त-दुश्मन।
बख्त की ही तराजू,तौलती है बख्त को,
सत्य रहता सत्य,बोलता है सदां कण-कण।।109।।
लोग कहते है कि,अब तुम साथ हो नहीं,
पर मुझे लगता कि,हरदम साथ तुम हो।
वो तुम्हारी बानगी,भूलै न भूले,
आज उसके आइने में,साथ तुम हो।।110।।
हो नहीं तुम दूर,समझे लोग कुछ भी,
तुम सदां होते हो,खुद की बानगी में।
वो तुम्हारे बोल,जो अनमोल होते,
पीर को वे-पीर करते,कहन ही में।।111।।
हर अदा की सादगी में,तुम छुपें हो,
और बैठे हो सदां ही,हर जुवाँ पर।
हो नहीं तुम दूर,ओ कोहनूर मेरे,
और किसका नूर है,मेरी जुवाँ पर।।112।।
जवाँ होना,क्या गुनाहे हमसफर,
वे घरौदें रेत के,भूले नहीं है।
ख्वाव हो गए,उस जमाने के,सफर,
चैन की बजतीं थीं बनसी,अब नहीं है।।113।।
बहुत अंतर जा बसे हम पूर्व-पश्चिम,
देखने मिलतीं नहीं,वे शाँझियाँ है।
खेल कर टेशू,बिताई रात कितनी,
किन्तु अब तो खेलते,जिंदगी की शांझियाँ है।।114।।
वो गुनाहे,मौज मस्ती के सफर,
हो भलां सब दूर,पर क्या दूर है।
याद आते ही,सभी कुछ याद आते,
वह स्वर्ग था,सोचते भरपूर है।।115।।
यह अमानत,जो तुम्हारे कर कमल में,
लाज रखना है तुम्हें,इसके सुमंगल वेश की।
काबिले तारीफ,मंजिल की ये गुम्बद,
सब कहानी कह रही है,देश की परिवेश की।।116।।
तुम बनो माली इसी के बागवाह भी,
कद्र दानी तुम्हें बनना,इसी की सौगंध से।
यह गुलिस्तां चमन भी है,काबिले तारीफ भी,
जो सजाता है जहाँ को,आबरु की गंध से।।117।।
गंध महकी जो हवा,वो हवा को लेकर,
बौर के उस भौर को भी,मस्तियाँ बाँटे।
समझना तुमको पड़ेगा,गौर से इसको,
महकती उस महक में भी,हैं छुपे काँटे।।118।।
कर प्रतीक्षा,अब समय नजदीक ही है,
हर सफर में,हम सफर बन,इस जहाँ में।
वो जवाँ है,हौसले के घौसले में,
उग गए है पंख उसके,उड़ने को जहाँ में।।119।।
ताज भी लज्जित हुआ,लख के जिसकी बुंलदी,
शान इसकी लाजबाबी,किस तरह गाए।
काबिले तारीफ है,ये जवाँ होती जवानी,
है नहीं उपमान,जिनको खोजकर लाए।।120।।
हो गई आवाक वाणी,नयन है बिन बाक के,
गजब है उसकी लुनाई,कुछ नहीं था मापने।
फूल की तन्हाई से जब,राजे मस्ती पूछ ली,
लहर सी लहराई खुलकर,खिल गई वो सामने।।121।।
विन कहें ही,कह दिया उसने वो सब कुछ,
वह लगी ज्यौं,विहसती गर माल सी।
हास में,उस शाख से,जब शाख पूछी,
झुक गई वह,फल लदी ज्यौं डाल सी।।122।।
कुल बुलाती है कहानी,बचपने सी,
ठोकरे भी खुशनुमा सी,हेरते है।
ठाठ से,उस घाट पर,करते कलोले,
कौन है वो,जो हमें,यौं टेरते है।।123।।
लग रही थी खुशनुमा,ज्यौं हो प्रभाती,
मस्त,मस्ती मं लगी,ज्यौं जहाजी पाल सी।
राजे मस्ती पूछ ली जब,उस हवा ने,
झूमकर लहरा गई वह,दूध भरती बाल सी।।124।।
मौन है वातावरण,लगता सिसकता,
हर तरफ ही उड़ रही है,आज गर्दा।
वो समय गुजरा,सभी परदो में रहता,
हो गया पूरा ही झीना,आज पर्दा।।125।।
सुबह से कब शाम होती,पता है नहीं,
नहीं सुनें कोई किसी की,कौन क्या गाता रहा।
रात की बातों सी,बातें हो गई अब,
बात का सब हौसला,आज तो जाता रहा।।126।।
हो गया है आँधरा वातावरण भी,
नीति के सारे कबूतर,सो रहे है।
लग रहा,अब रात होती ही नहीं है,
काम सारे दिन दहाड़े हो रहे है।।127।।
खो रहे हो व्यर्थ ही,अपने समय को,
रह गए है,अह्म सारे व्यर्थ ही सब।
जिंदगी की दौड़ में,सब बेखबर है,
है नहीं कोई ठिकाना,छूट जाए कौन कब।।128।।
इस अमानत को संभालो गौर से,
बहुत सोया लाड़ले,अब तो न सो।
सुन लयीं चिड़ियों की चहकन,और तुम,
अब उठो करने को सारे काम वो।।129।।
याद करलो,उन तरानो की तरन्नुम,
जोड़ कर के देख लो,कर पाए हो कुछ।
अह्म जो कुछ रह गए उन्हें कर लो,
जो हमें,वो सौपकर कहते गए कुछ।।130।।
लग रहा है,हम सभी राहों से भटके,
और चलते जा रहे है,उस तरफ ही वेखवर।
अब हमें करना वो,साथी छोड़कर मत भेद सब,
आत्माएँ हो रही है,आँसुयों से तर-ब-तर।।131।।
चलते रहे हम उसे जीवन हकीकत मानकर,
कोई कुछ समझे न समझे,नियत लेकिन श्वेत थी।
हम कभी,उस रेत में भी,बनाते थे घरौंदे,
प्यार था कितना,मगर वह रेत तो बस रेत थी।।132।।
समय यूँही गुजर जाता,समझे नहीं कुछ आज भी,
क्या कहें,सब आज तक की,छानते रहे खाक ही।
दौड़कर उस बुर्ज से,कितनी छलाँगे रहे भरते,
तैरना आता था,लेकिन नहीम बने तैराक भी।।133।।
भूलकर सब,दौड़ते रहे जिंदगी की दौड़ में,
सच हकीकत कह रहे है,जिंदगी का दौर था।
कितनी लड़ी थी,मित्र कुश्ती,इस नदी की रेत में,
सुबह से ही शाम होती,वो जमाना और था।।134।।
सिर्फ रह गई दास्तानें,उम्र ढलती जा रही,
पलटते पन्ने उन्हीं के,हम लगे है सौध में।
इस तरह से मौज मस्ती,दिल गुजारे आज तक,
याद बन,सब खेलते है,वे हमारी गोद में।।135।।
क्या पता,हो जाएगी कब,जिंदगी की शाम ये,
नेक बन जीवन बिता लो,फिर समझना-आपका।
क्या खरीदोगे यहाँ पर,सब्जियों की हाट है,
ब्राण्ड की बाते करो न,कब मिलेगा छाप का।।136।।
भूल कर के वो सभी कुछ,द्वेत के सपने हटा लो,
आदमी हो जाओगे तब,यह कहानी नेक है।
एक होकर के रहे थे,एक होकर के जिए,
हो नहीं सकते अलग हम,एक है-बस एक है।।137।।
ये तिराहे और चौराहे,भटका रहे है आज तक,
मत सुनो इनकी कहानी,नेक यह मनतव्य है।
लोग यह भी जानते है,हम पथिक इक पाथ के,
फिर कहों,होगे जुदा क्यों,एक ही गन्तव्य है।।138।।
इस उभय के,अंतरे बिच,समझ का इंसाफ है,
जिंदगी की ये कहानी,सुन रहे है हम सभी।
तुम हमारी याद में और हम तुम्हारी याद में,
फिर कहाँ है दूर रहवर,हो नहीं सकते कभी।।139।।
हर कदम पर मोड़ देती,जिंदगी की ठोकरे,
सहन कर चलते रहे बस,है सभी को बन्दगी।
कट गइ ये उम्र सारी,और थोड़ी रह गई,
बस---यूँही कट जाए हँसते,तो सही है जिंदगी।।140।।
याद के रह गए घरौंदे,फूलते वे बगीचे,
पौध की नव क्यारियों को सींचते हर बार भी।
खूब डूबे और तैरे,नोन के इस घाट पै,
इसतरह जीवन हमारा,कट गया इस बार भी।।141।।
हर कदम को बहुत कुछ ही,रख रहे है सोचकर,
उगेगी क्यों नागफनियाँॽ पौध बह बोई नहीं।
वे सभी चौरासियाँ भी,काट ली हँसते हुए,
कर अदा-चुकता सभी का,कर्ज अब कोई नहीं।।142।।
दौड़ते निश्चिंत रहे है,जिंदगी की दौड़ में,
आओ सब-मिल बाँट खा लें,समझ से ही काम लो।
हम पथिक उस रास्ते के,जहाँ न कोई भेद है,
हम तुम्हारा हात थामें,तुम हमारा थान लो।।143।।
नमक सी ये जिंदगी है,कब तलक रह पाएगी,
नहीं पता,ढल जाए योही,है भरोसा कौन को।
फिर अह्म के ठाठ ये सब,किस लिए बाँधे फिरों,
क्यों लदे हो खच्चरों से,ढो रहे क्यों मौन हो।।144।।
आओ सब हो लो इकठ्ठे,इस जगत के घाट पै,
कब बिछुड़ जाएगे हमदम,पता इसका है तुम्हें।
यदि नहीं तो,आज ही से,बदल दो जीवन सफर,
सब तुम्हारा साथ देगें,यह भरोसा है हमें।।145।।
इस नकाबी भेष में कब तक रहोंगे,
सत्य की राहे चले जो,वो सही में मर्द थे।
गिर रहे है,किस लिए पर्दे,इस चौखट,
तुम सही में सैंकड़ो ही साल से,वेपर्द थे।।146।।
क्या कहे परवेश का उठ गया जनाजा,
और उठता जा रहा है,लोग सारे होड़ में।
सीखते लड़ना,हमारे लोग अपने घर से,
और फिर,पूरा वतन ही चल पड़ा,इस दौड़ में।।147।।
है चतुर वे लोग,जो लड़ते नहीं है,
दूसरों को लड़ा,यूँ देखे तमाशा।
है अधिक संख्या उन्हीं की,गिनती से परे,
चाल में अपनी फसाने,फेंकते है नित्य पासा।।148।।
विशव का नक्शा,अजब औ गजब होगा,
स्वर्ग होगा ये वतन,सच में हकीकत।
यदि चलो तुम,न्याय की ही राह चुनकर,
न्याय घर की होएगी नहीं,फिर जरुरत।।149।।
यदि सभी बदले खुदी में,तो खुदा की खैर है,
न्याय के मुंशिफ सभी,ऊँघकर सो जाएगें।
समय पर वर्षात करने लगेंगे ये बादले,
स्वर्ग होएगी धरा और काम सब बन जाएगे।।150।।