रंग बदलता आदमी, बदनाम गिरगिट - 11 - अंतिम भाग बेदराम प्रजापति "मनमस्त" द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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रंग बदलता आदमी, बदनाम गिरगिट - 11 - अंतिम भाग

रंग बदलता आदमी,बदनाम गिरगिट 11

काव्य संकलन-

समर्पण-

देश की सुरक्षा के,

सजग पहरेदारों के,

कर कमलों में-

समर्पित है काव्य संकलन।

‘रंग बदलता आदमी,बदनाम गिरगिट’

वेदराम प्रजापति

मनमस्त

मो.9981284867

दो शब्द-

आज के परिवेश की,धरती की आकुलता और व्यवस्था को लेकर आ रहा है एक नवीन काव्य संकलन ‘रंग बदलता आदमी- बदनाम गिरगिट’-अपने दर्दीले ह्रदय उद्वेलनों की मर्मान्तक पीड़ा को,आपके चिंतन आँगन में परोसते हुए सुभाषीशों का आभारी बनना चाहता है।

आशा है आप अवश्य ही आर्शीवाद प्रदान करैंगे- सादर।

वेदराम प्रजापति

मनमस्त

गुप्ता पुरा डबरा

ग्वा.-(म.प्र)

झाँक कर देखा है कभी,अपने आप में,

तुम अकेले नहीं केवल,सच में एक कारवाँ हो।

अफसोस होता है,तुम्हारी नासमझी पर,

बागी हो गए कैसेॽ,तुम तो सच में बागवाँ हो।।501।।

आज तुम कौन सी राहों पर ही चल पड़े,

इसे सजाने में,कई गोदियाँ,कई तरह उजरी है।

इसे ऐसे बरबाद मत करो,घर तुम्हारा है,

बनाने में इसे सोच लो,कई सदियाँ गुजरी है।।502।।

चुन-चुनकर बनाया है तुमने,घौंसला जो,

क्या जमाने ने कभी सराहा भी है इसे।

यदि नहीं तो,अपने आप में संभलना होगा,

अन्यथा दोषी तुम होगे,मत दोष देना उसे।।503।।

सच में ये औरतें है,मासूम बच्चों सी,

इन्हें प्यार देकर,हिफाजित से रखो।

इनसे ही तुम्हारा-अपना घर,चमन होगा,

ये अमन की राहें है,हिल-मिल कर बसो।।504।।

औरतें पर्दा,तुम्हारे खान-दान की जनाव,

कैसे सुकून से जी पाओगे,इन्हें वे-पर्द करके।

हजारों परदें छुपें है,इन्हीं के-इन पर्दों में,

इन्हें सजाना ही है तुन्हें,अपने ही सिर घरके।।505।।

इधर भी देखना है तुम्हें,केवल उधर ही नहीं,

खुशियाँ छा जाऐगीं,दोनों तरफ की दुनियाँ में।

औरों को संभालते रहे,खुद को तो संभालो,

बरना-कोई किसी का नहीं,आज की इस दुनियाँ में।।506।।

एक नहीं अनेको नशे थे,हम पर सबार,

बरना हम भगवान होते,आदमी केवल नहीं।

बस इन्हीं नशों ने हमें,औकाद से दूर किया,

न घर के रहे न घाट के,अब कहीं के नहीं।।507।।

तुम जो करते हो नशा,उतर जाता है हर रोज ही,

नशे की तासीर बदलो तो,तुम्हारा जन्म भी सुधरे।

नशा तो जरुर करो,मगर ऐसा कुछ करो,

जो एक बार चढ़ जाने पर,कभी भी नहीं उतरे।।508।।

कब सुनोगे हे प्रभू,बस आपसे फरियाद यह,

जिंदगी तो इस तरह से,हो गई बर्बाद है।

न्याय के दरबार की,ये सीढ़ियाँ साँसें रही,

गिन सको तो गिनो इनको,न्याय की औकाद है।।509।।

झेलकर कितने ही संकट,हम हटें नहीं राह से,

इस अमानत के लिए हम,जान अपनी देऐगे।

हम अँधेरे पार करके,अब उजाला पा गए,

इस उजाले के रवि को,डूबने नहीं देऐगे।।510।।

ये धरा स्वर्ग या जन्नत समझ लो,

इस वतन में दिव्यता-गुण-गौरव भरेंगे।

जिंदगी से बहुत ही प्यारा वतन है,

ये गुलिस्तां है और गुलिस्तां ही रखेंगे।।511।।

है सभी भोगो की दाता,मौसमी उपहार संग,

हम जिऐंगे और मरेंगे,सिर्फ इसके ही लिए।

है नहीं सानी में कोई,झाँखकर देखो जरा,

ये स्वर्ग है,देवता भी,तरसते है इसके लिए।।512।।

बहुत ही भटकाया तुमने,बहुत से भटकाव दे,

अब सुनेगें नहीं बिल्कुल,आपके ही परोक्ष है।

आजतक भरमाया ऐसे,मोक्ष का परिचम लिए,

जान गए हम सब हकीकत,मोक्ष के हम,मोक्ष है।।513।।

रेत के सुन्दर घरौंदे,पात की वे झौपड़ी,

जो मजा उनमें भरा,ढूँढे मिला नहीं आजतक।

सत्य की आराधना थी,सत्य का सब साज था,

आज भटके है डगर से,समझे नहीं है,राज तक।।514।।

खूब मनाते गनेश उक्षब,रामलीलाऐं करीं,

जो मजा था बचपने में,आज कोसों दूर है।

साफ था जीवन का दर्पण,आज की इस धुंध से,

बाबरे से हो गए है,जिंदगी सब धूर है।।515।।

नहीं पता कब से ये चक्कर,खा रहे इस भंबर में,

देख कर सारी ये बातें,हो रहा मन अनमना।

खुली थी चारों दिशाएँ,खेलने और कूदने,

आज समझे,खाई ठोकर,जिंदगी था बचपना।।516।।

बालपन खेलत गया,यौवन गुजारा भूल में,

ढोते रहे थे नमक-लकड़ी,अब बुढापा क्या करे।

सब समय यों ही गुजारा,किया नहीं कुछ आज तक,

जिंदगी ढौना कठिन है,इस तरह से,क्या करे।।517।।

जो चला मंजिल उसे चिश्चय मिली है,

सुचि सुरभि ने,सुमन से,स्वागत किया है।

मानवी हित,दे गए कुर्बानियाँ जो,

उन्होंने ही,सच अमर जीवन जिआ है।।518।।

देखने में लग रहा तुझको भला यह,

पर जिगर से हर खुशी,काफूर है।

तूँ जिसे समझा है,सेहत मंद-पर,

उस जिगर में,सैंकड़ो नासूर है।।519।।

हौ भरें भण्डार,बिन संतोष जिनके,

भूँख उनकी कब मिटी,दीरघ अहारी।

हाथ फैलाने चला तूँ,जिनके आगे,

क्या पता हैॽ,वो भिखारी के-भिखारी।।520।।

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