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रत्नावली - रामगोपाल ‘भावुक‘

रत्नावली उपन्यास

समीक्षक- कमलेशमिश्रा (मेपल)

कनाड़ा से प्रकाशित होने वाली पत्रिका हिन्दी चेतना के सम्पादक श्री श्याम त्रिपाठी जी की आभारी हूँ, कि जिन्होंने रत्नावली जैसे अनमोल रत्न के पढ़ने की मुझे प्रेरणा दी। उन्होंने मुझे फोन पर कहा कि मैं आपको एक लघु उपन्यास रत्नावली पढ़ने को दूंगा। यों तो पुस्तकों का भण्ड़ार तो मेरे पास रहता ही है,त्रिपाठी जी के इस आग्राह को मैं टाल न सकी। क्योंकि आज मैं जो मैं दो चार पंक्तियाँ लिखने के योग्य हुई हूँ ,वह त्रिपाठी जी की प्रेरणा का ही फल हैं। उनके समान हितैषी, सज्जन, सब के दुःख सुख में ध्यान देने वाला परोपकारी व्यक्ति संसार में मिलना बहुत कठिन है। अतः उन्होंने मुझे श्री रामगोपाल तिवारी ‘भावुक‘ जी का उपन्यास मुझे पढ़ने के लिये दिया।

अपनी आदत के अनुसार जब मैंने 10 बजे के करीब इस ग्रंथ को पढ़ना शुरू किया तो रात्री के 2 बजे तक उसे पढ़े बिना नहीं छोड़ सकी। भावुक जी ने जिस सरल भाषा में, इस ग्रंथ की रचना की है, वह सराहनीय है। ऐसा लगता है कि जैसे बोल चाल की भाषा में इस ग्रंथ को पढ़ रहे हैं मैं जैसे इसे पढ़ती थी, उतनी ही इस कृति के प्रति मेरी उत्कण्ठा बढ़ती जाती थी। मुझे तो पता ही नहीं चला के कब मैंने इसे प्रारम्भ किया और कब यह समाप्त भी हो गया।

भावुक जी ने इतनी सुन्दर कृति की रचना करके नारी जाति के ऊपर बहुत बड़ा उपकार किया है। भावुक जी जैसे उच्च कोटि के लेखक की लेखनी के प्रति कुछ भी लिखना सूर्य को दीपक दिखाने के बराबर है। मैं तो केवल शब्दों को जोड़ तोड़कर पाठकों के सामने रख देती हूँ। परन्तु आरम्भ से अंत तक पढ़ने के बाद मेरे मुख से अनायास ही निकला वाह! क्या लेखनी है, जो सरिता प्रवाह की तरह बह रही है। पाठक आरम्भ से अंत तक कहीं विश्राम नहीं लेता और एक साँस में पढ़ता ही चला जाता है।

भावुक जी ने रत्नावली द्वारा तुलसी दास जी को और महान बना दिया है। मेरी तरह और भी बहुत से लोग रत्नावली को केवल गोस्वामी जी को भगवत भक्ति का उपदेश देने वाली तथा हाड़-मांस के शरीर के प्रति इतना प्रेम होने का उलाहना देने वाली, पत्नी के रूप में ही जानते थे। पर इसे पढ़कर लगा कि रत्नावली एक साधारण स्त्री नहीं थी। वह एक पढ़ी लिखी, सभ्य,सुशील लज्जावान नारी अपने पति को गुरु के रूप में उपदेश दे रही है, और फिर बरबस उसके मुख से निकल जाता है कि मैं जानती हूँ , तुम बहुत हठी हो, जिस बात की ठान लेते हो, उसे पूरा करके ही छोड़ते हो। तुम्हारे भीतर दृढ़ संकल्प शक्ति है और उस शक्ति के आधार पर क्या नहीं कर सकते। रत्नावली जानती थी कि उसका पति श्रेष्ठ कवि उच्च कोटि का विद्वान, भावुक हृदय का स्वामी है। पत्नी के शब्द उसके हृदय पर वार कर गये और जिसके परिणाम स्वरूप तुलसीदास जी आकाश पर चंद्रमा के समान चमकने लगे। जहाँ पर भावुक जी ने तुलसीदास जी का त्याग, हठ, अभिमान व भक्ति का रूप दिखाया है, वहीं पर रत्नावली का भी दृढ़ संकल्प,भावुकता तथा आत्म शक्ति दिखई है। वह अंत तक अपनी बेदना छिपाती रही। बनारस रहने का निश्चय तो कर लिया किन्तु वहाँ के पंडितों द्वारा अपने पति की अवहेलना सहन न कर सकी और पुनः राजापुर जाने का निश्चय कर लिया। पुत्र वियोग,पति त्याग, धन का अभाव इतना असहनीय था फिर भी वह विचलित न हुई और पति के प्रति श्रद्धा और भी बढ़ गई। उसमें आत्म संतोष व आत्म विश्वास था, इसी कारण इतने कष्ट, इतनी मानसिक वेदना, सब कुछ उसने सहर्ष सहन कर लिया।

उसके स्वयं के शब्दों में ‘मैं जानती हूँ कि मेरे स्वामी ने राम कथा का गहराई से अध्ययन किया है।, इसके गहरे तत्वों को छुआ है।, तभी तो उस दिन मेरे द्वारा निकले,राम के प्रति शब्द,शब्द भेदी बाण बन गये।’

जिन्होंने उसके हृदय को भेद दिया और वह अपने आवरण को उतारने पर विवश हो गये। मैं तो प्रलाप ही करती रहती हूँ, राम का नाम तो एक सत्य है, चिर सत्य। उसन अपने मन से पति को कभी दोषी नहीं माना। यदा यही सोचती रही कि मेरे कारण मेरे स्वामी ने मेरा त्याग किया है।परन्तु मानस में तुलसीदास जी ने रत्नावली से उसके कहे शब्दों का प्रतिकार लिया है। अपनी लेखनी द्वारा नारी के प्रति रोष व्यक्त किया है। इससे प्रतीत होता है कि उन्होंने नारी जाति को कभी छमा नहीं किया।

भावुक जी ने इस कृति के द्वारा नारी जाति का मान बढ़ा दिया है और जी खोलकर रत्नावली के चरित्र को समाज के सामने उपस्थित किया है। वह उसके लिये बधाई के पात्र हैं। श्री भावुक जी को इस कृति के रचनाकार के रूप में मेरा हृदय से धन्यवाद तथा प्रणाम है। दिनांक जुलाई 2001

पुस्तक- रत्नावली उपन्यास,

लेखक- रामगोपाल भावुक,

प्रकाशक - पराग बुक्स नई दिल्ली

मूल्य- 200 रुपये

समीक्षक- कमलेश मिश्रा (मेपल)

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