अब दो साल महुआ को बेटे का मुँह देखे बिना काटने थे लेकिन तब भी उसने तसल्ली रख ली,बेटियाँ हर एक दो महीने में माँ से मिलने आतीं रहतीं,फिर पता चला कि रिमझिम उम्मीद से है इसलिए उसकी देखभाल के लिए महुआ ने उसे अपने पास बुला लिया चूँकि रिमझिम का पति अनाथ था इसलिए उसकी देखभाल के लिए वहाँ कोई महिला नहीं थी।।
कुछ महीनों के इन्तज़ार के बाद रिमझिम ने एक नन्ही मुन्नी प्यारी सी बच्ची को जन्म दिया,उस बच्ची को देखकर महुआ की खुशी का कोई ठिकाना ना रहा,वो नानी बन चुकी थी ये उसे अब तक विश्वास नहीं हो रहा था,उसने उस बच्ची को बड़े प्यार से अपने हाथों में उठाया,उस नन्ही परी को हाथों में लेते ही खुशी के मारे उसकी आँखों से आँसूओं की धार बह चली,
महुआ बोली....
ये मेरी जिन्द़गी की सबसे बड़ी खुशी है इसलिए इसका नाम खुशी होना चाहिए, मैं अपनी बेटियों के जन्म के वक्त इतनी खुश नहीं थी क्योंकि मुझे डर था कि ना जाने मेरी बेटियों के नसीब में कैंसी जिन्द़गी लिखी है,
लेकिन इसे देखकर एक आजादी का अनुभव हो रहा है,बस आज भर के लिए मुझे पंख मिल जाएं तो मैं हवा में उड़ जाऊँ।।
रिमझिम की बेटी को महुआ ने तब तक सम्भाला जब तक कि वो पाँच छः महीने की ना हो गई,इसके बाद रिमझिम बच्ची को अपने साथ लेकर ससुराल चली गई,रिमझिम के जाने के बाद मिट्ठू की भी खुशखबरी आ गई और इसके कुछ महीनों बाद उसने बेटे को जन्म दिया लेकिन वो महुआ के पास ना आई क्योंकि उसका ख्याल रखने वाले उसके ससुराल में काफी लोंग थे।।
अब महुआ बिल्कुल निश्चिन्त हो चुकी थी,दोनों बेटियों की गोद भी भर चुकी थी अब इन्तज़ार रह गया था तो केवल बहु का,उसे विलायत से पलाश के लौटने का इन्तजार था कि वो वापस आ जाए तो कोई अच्छी सी लड़की देखकर इस जिम्मेदारी को भी पूरा कर दे।।
लेकिन इन्सान जैसा सोचता है वैसा हो कहाँ पाता है?अगर जिन्द़गी हमारे अनुसार चलने लगें तो इन्सान को कभी कोई तकलीफ़ ही ना हो......
पलाश को विलायत गए हुए दो साल पूरे होने वाले थे और बस महुआ को उसके आने का इन्तजार था और एक दो महीने बाद वो विलायत से लौट भी आया,
उसे प्रभातसिंह एयरपोर्ट लेने पहुँचें और एक दो दिन वो शहर में रूकने के बाद महुआ के पास गाँव भी आ गया,लेकिन विलायत से लौटने के बाद पलाश को गाँव में रहना रास नहीं आ रहा और दो चार दिन रहने के बाद पलाश ने बोल ही दिया कि वो अब गाँव में और नहीं रह सकता वो शहर में ही रहेगा लेकिन कभी कभी महुआ से मिलने आ जाया करेगा।।
महुआ को पलाश की बातों का कुछ बुरा तो लगा लेकिन उसे ये लगा कि ये तो हमेशा शहर में ही रहा है इसलिए इसे शहर में रहने की आदत है और फिर मेरे साथ ये कब तक रहेगा? कहीं नौकरी मिल जाएगी तो मुझे छोड़कर तो इसे जाना ही पड़ेगा और महुआ ने पलाश को शहर जाने की इजाजत दे दी......
पलाश शहर आ गया तो महुआ के कहने पर एक बार फिर प्रभातसिंह उसके संरक्षक बन गए,शहर आने के कुछ ही दिनों बाद पलाश को एक बहुत बड़े कारखाने में एक अच्छे औहदे पर रख लिया गया,वहाँ के मालिक को पलाश अपनी बेटी के लिए जँच गया।।
कारखाने के मालिक सेठ हीरानंद की बेटी सुवर्णा ने भी एक बार पलाश को कारखाने के किसी समारोह में देखा तो वो उसे एक ही नज़र में भा गया,उसने पलाश से दोस्ती कर ली,दोनों की दोस्ती प्यार में बदलते देर ना लगी और बात शादी तक आ पहुँची।।
सेठ हीरानंद ने सगाई का दिन भी तय कर लिया,इसमें पलाश भी राजी था और इसने इस मसले पर महुआ से भी कुछ कहने सुनने की जरूरत भी महसूस नहीं की,ये बात जब प्रभातसिंह तक पहुँची तो वो फौरन महुआ के पास गाँव आए और महुआ से बोले....
हम ये क्या सुन रहे हैं? लड़का अपनी मनमर्जियाँ कर रहा है और आप बरदाश्त कर रही हैं,उससे जाकर सवाल क्यों नहीं करतीं?
अब मै क्या बोलूँ और क्या कहूँ?उसकी जिन्द़गी है जी लेने दीजिए,मैं दख़ल नहीं देना चाहती,महुआ बोली।।
लेकिन ये गलत हो रहा है,हमें मंजूर नहीं,प्रभातसिंह बोले।।
शादी ही तो कर रहा है अपनी मरजी से तो क्या हो गया? महुआ बोली।।
परसों सगाई है,आपको कोई जानकारी है,प्रभातसिंह बोले।।
नहीं,मुझे तो कुछ भी पता नहीं,महुआ बोली।।
ना उसका बहनों से कोई सरोकार और ना माँ से,कैसी मति भ्रष्ट हुई है उसकी,प्रभातसिंह बोले।।
रहने दीजिए ना! जो करता है तो करें,बुलाएगा तो चली जाऊँगी,महुआ बोली।।
महुआ से इसी तरह की कुछ बातें करके प्रभातसिंह वापस शहर आ गए और दूसरे दिन पलाश सगाई के लिए महुआ को लेने गाँव पहुँच गया,पलाश को देखकर महुआ बोली.....
आज तो नहीं चल सकती,तू अभी जा! मैं कल पक्का आऊँगी,
सच माँ! तुम आओगी ना! पलाश बोला।।
हाँ,आऊँगी !और महुआ का ऐसा जवाब सुनकर पलाश निश्चिन्त होकर शहर वापस आ गया।।
सगाई वाली शाम महुआ उस जगह पहुँची जहाँ सगाई थी,खाना पीना चल रहा था लोगों की चहलकदमी जारी थी,बस सगाई के लिए कुछ और लोगों का इन्तजार था,प्रभातसिंह भी पहले से पहुँच गए थे उनका मन तो नहीं था लेकिन महुआ के जोर देने पर वें आ गए थे।।
महुआ जैसे ही पहुँची ,महुआ को देखकर पलाश खुश होकर बोला....
तुम आ गई माँ! मुझे पता था कि तुम जरूर आओगी,चलो माँ! मै सबसे तुम्हारा परिचय करवाता हूँ और एक एक करके पलाश ने महुआ का सबसे परिचय करवाया,लेकिन उस भीड़ में से एक सख्श ऐसा भी था जिसने महुआ को पहचान लिया और सबके सामने ये एलान करते हुए कहा कि.....
हीरानंद जी ये औरत आपके होने वाले दमाद की माँ है,ये औरत....हीरानंद जी आपको दुनिया में कोई और लड़का नहीं मिला था जो आप अपनी बेटी की शादी एक तवायफ़ के बेटे से करने जा रहे हैं.....
क्या बकते हो ? करोड़ीमल! मेरा होने वाला दमाद एक तवायफ़ का बेटा कैसे हो सकता है?हीरानंद बोले।।
मैं बकता नहीं हूँ,सच कहता हूँ ,मेरी बात पर यकीन ना हो तो इस औरत से खुद ही पूछ लो कि ये मशहूर तवायफ़ मोतीबाई है कि नहीं.....करोड़ीमल बोला....
ये सुनकर महुआ एक पल को शून्य हो गई,जिसका उसे सालों से डर था आखिर वही हुआ ,उसका अतीत आज फिर उसके सामने मुँह फाड़े खड़ा था उसे निगलने के लिए,अब वो क्या जवाब दे सबके सवालों का ?उसे कुछ नहीं सूझ रहा था कि वो क्या कहें और क्या सफाई पेश करें।।
तभी सुवर्णा ने पलाश से कहा....
पलाश! तुमने मुझसे इतनी बड़ी बात छुपाकर रखी कि तुम एक तवायफ़ के बेटे हो।।
ये बात तो मुझे भी पता नहीं थी,पलाश बोला....
तो जाकर अपनी माँ से क्यों नहीं पूछते?लेकिन वो तुम्हें क्यों बताने लगी भला कि वो तवायफ़ थी,मौका जो मिल रहा था शरीफ़ों के बीच में घुसने का,सुवर्णा बोली।।
तुम चुप रहो सुवर्णा! किसी पर बेवजह लाँछन लगाने से पहले उसकी हकीकत तो जान लो,हीरानंद जी सुवर्णा को डाँटते हुए बोले।।
सबकी बातें सुनकर पलाश चुप ना रह सका और महुआ से पूछ ही बैठा....
क्यों माँ! क्या ये सच है? तुम बोलती क्यों नहीं? कह दो कि ये झूठ है...
और महुआ फिर पलाश के किसी के सवालों के जवाब ना दे सकी और उसी वक्त चुपचाप बाहर आ गई और मोटर में बैठकर ड्राइवर से गाँव चलने को कहा.....
तभी सेठ करोड़ीमल फिर से बोला....
मै ना कहता था कि वो तवायफ़ है,अगर शरीफ़ होती थी तो ऐसे मुँह छुपाकर ना चली जाती,बाजारू औरत कहीं की, यहाँ हम शरीफ़ो के बीच में जगह बनाने आई थी....
उसकी बात सुनकर पलाश वहीं जमीन पर घुटनों के बल बैठकर रोने लगा,ये तमाशा देखकर अब प्रभातसिंह भी चुप ना बैठ सकें और वहाँ मौजूद लोगों और करोड़ीमल से बोले.....
अच्छा तो सेठ करोड़ीमल !आपको कैसे मालूम कि वो तवायफ़ थी?इसका मतलब है कि आप भी कभी उनकी महफिलों की शान बढ़ाने उनके कोठे पर जाते होगें,तवायफों के कोठों पर आप जैसे रईस ही तो जाया करतें हैं और जब शराफत की बात आती है तो आप शरीफ़ और वे औरतें एक पल में बाजारू हो जातीं हैं.....
जनाब! आपके मुँह से शराफ़त की बातें अच्छी नहीं लगतीं,आप सब को कुछ पता है है कि किन हालातों में वें इस धन्धे में उतरतीं हैं,अरे,साहब! किसी औरत को शौक नहीं होता अपने जिस्म की नुमाइश करने का,पेट की भूख और गरीबी के कारण उतरती है वें इस गन्दगी में और आप जिस औरत की बात कर रहे हैं ना वो किसी देवी से कम नहीं है....
मैने देखा है उसकी परिस्थितियों को,मैनें देखा है कि उसने किन हालातों से उबर कर इस जिन्दगी को पाया है....
और बेटा! पलाश ! जो सवाल तुम उनसे पूछ रहे थे,वो सवाल पूछने के तुम काबिल ही नहीं हो,तुम्हें मैं बताता हूँ कि उसने आज तक तुससे अपना अतीत क्यों साँझा नहीं किया? उसका संघर्ष देखकर तुम्हारी आँखें भी नम हो जाएगीं।।
और प्रभातसिंह ने एक ही पल में सब के सामने महुआ की सच्चाई बयाँ करते हुए उसके अतीत के बारें में सबकुछ बता दिया....
ये सुनकर वहाँ मौजूद लोगों का दिल पसीज़ गया और सुवर्णा ,पलाश के पास आकर बोली.....
मुझे माफ़ कर दो पलाश! मैने माँ को अशब्द कहें....
उस रात पलाश अपने आप पर इतना शर्मिंदा था कि वो अपनी माँ के पीछे पीछे ना सका और रातभर रोता रहा...
और उस रात महुआ घर पहुँची, उपेन्द्र की तस्वीर अपने सीने से लगाकर रात भर रोती रही और तस्वीर से बोली.....
सुनते हो जी! आज मुझे मेरे किए का ईनाम मिल गया ,सारी दुनिया के सामने आज मेरे बेटे ने मुझसे सवाल किया,उसने मुझसे पूछा कि मैं तवायफ़ थी या नहीं।।
सुबह जब दूधवाला दूध देने आया तो महुआ ने दरवाज़ा नहीं खोला....
तब उसने गाँववालों को बताया,गाँववालों ने दरवाजा तोड़कर देखा था तो महुआ का निर्जीव शरीर बिस्तर पर पड़ा था और बगल में पड़ी थी उसके पति उपेन्द्र की फोटो।।
तब तक पलाश भी अपनी माँ को मनाने आ पहुँचा था लेकिन उसे पता नहीं था कि माँ उससे ऐसी रूठेगी कि उसे छोड़कर ही चली जाएगी।।
प्रभातसिंह भी ये खबर सुनकर आ पहुँचे ,रिमझिम और मिट्ठू भी अपने अपने पतियों के साथ माँ के अन्तिम संस्कार के वक्त आ पहुँचीं,पूरा गाँव इकट्ठा हो गया महुआ के अन्तिम संस्कार में।।
माँ की मौत के कुछ महीनें बाद ही मेरे मुँहबोले मामा प्रभातसिंह भी हृदयाघात से चल बसें,उनके जाते ही मुझे लगा कि अब मैं बिल्कुल से अनाथ हो गया हूँ।।
मेरी माँ के जाने के बाद मुझे उनकी असली कीमत पता चली कि किस तरह से उन्होंने कितने दुख झेलकर हमे खुद से दूर रखकर, कितना कुछ सहकर जीवन को संघर्षों के साथ जिया था।।
मैने उसके बाद शहर और शहर की नौकरी छोड़ दी,सुवर्णा ने मुझसे शादी की और वो भी मेरे साथ गाँव में रहने लगी , गाँव में माँ के स्कूल के सामने मैने उनकी बड़ी सी मूर्ति बनवाई और स्कूल का नाम भी मोतीबाई विद्यालय रख दिया,मैं ही अब माँ का स्कूल और उनके खेतों को सम्भालने लगा था।।
हर रोज मैं माँ की मूर्ति के सामने पुष्प अर्पण करके उनसे माँफी माँगता रहा और एक रोज उनके रूप में मेरी बेटी का आगमन हुआ और प्यार से मैने अपनी बेटी का नाम महुआ रखकर उनकी यादों को जिन्दा रखा तो ये थी एक तवायफ़ माँ के संघर्षों की कहानी।।
समाप्त.....
सरोज वर्मा......