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मोतीबाई--(एक तवायफ़ माँ की कहानी)--भाग(६)

पहले तो उपेन्द्र ने बाहर खूब शराब की और घर आकर महुआ से ये कहा....
तुम कमाती हो तो जब चाहो मनमानी करोगी,तुमने जमींदार साहब से पलाश को बोर्डिंग स्कूल भेजने को कहा,तुम चाहती क्या हो ? कि एक एक करके मेरे सारे बच्चे मुझ से दूर चलें जाएं,तुम्हारी इतनी हिम्मत,लगता है तुम अपनी औकात भूल गई हो और उस रात उपेन्द्र ने शराब के नशे में महुआ पर हाथ भी उठा दिया,महुआ उस समय तो कुछ ना बोली क्योंकि वो जानती थी कि अभी उपेन्द्र नशें में है उसकी बात वो नहीं समझेगा और वो चुपचाप मार खाती रही।।
सुबह हुई और पलाश महुआ के पास आकर माँ...माँ...चिल्लाने लगा लेकिन महुआ ने कोई जवाब ना दिया और बहुत देर तक जब महुआ ना उठी तो उपेन्द्र ने उसके पास जाकर देखा तो पास में गोलियों की एक शीशी पड़ी थी और उस शीशी की आधी गोलियाँ खतम थी,शायद वो नींद की गोलियाँ थी और रात महुआ ने गुस्से में वो गोलियाँ खा लीं थीं,उपेन्द्र को हालात समझते देर ना लगी और वो फौरन महुआ को डाक्टर के पास ले भागा।।
बड़ी मुश्किलों से डाक्टर ने महुआ को बचा पाया,होश में आते ही महुआ ने उपेन्द्र से कहा कि मुझे क्यों बचाया?
मैं तुम्हारे बिन क्या करता महुआ? तुमने कुछ भी नहीं सोचा,बच्चों का मुँह तो निहारा होता,इन्हें किसके भरोसे छोड़कर जाने वाली थी तुम? उपेन्द्र ने महुआ से पूछा।।
मैं अब थक चुकी हूँ जिन्द़गी से संघर्ष करते करते ,जिन्द़गी के हर मोड़ पर मैने केवल संघर्ष ही तो किया है,नहीं जीना चाहती मैं,मेरी गलती क्या थी जो कल रात तुमने मुझ पर हाथ उठाया? मैं तो सिर्फ़ ये चाहती थी ना कि मेरा बच्चा अपनी माँ को कोठे पर नाचते हुए ना देखें इसलिए मैने उसे बोर्डिंग स्कूल भेजने का सोचा लेकिन तुमने तो तिल का ताड़ बना दिया,महुआ बोली।।
मुझसे बहुत बड़ी गलती हो गई,महुआ! मुझे माफ़ कर दो , पलाश को अपने से दूर जाने के ख्याल ने मुझे डरा दिया था,मैं कुछ करता नहीं हूँ तो ये बात भी मुझे खाए जाती है और इन सबका तनाव मैने तुम्हारे ऊपर निकाला,अब आगें से ऐसा कुछ नहीं होगा,तुम जो चाहती हो अब से मैं वही करूँगा लेकिन मुझसे कभी भी दूर जाने की बात मत करना,उपेन्द्र बोला।।
उपेन्द्र की आँखों में आँसू देखकर महुआ भी रो पड़ी और दोनों ने एकदूसरे के आँसू पोंछकर माँफ़ी माँगीं,फिर क्या था महुआ के ठीक होते ही पलाश को बोर्डिंग स्कूल भेज दिया गया और इस बार भी इस काम में उपेन्द्र की मदद प्रभातसिंह ने की।।
महुआ की जिन्द़गी एक बार फिर ठीक से चल पड़ी,दोनों पति पत्नी अब एकदूसरे का ख्याल रखते और दोनों नया व्यापार डालने के विषय में भी सोच रहे थे लेकिन क्या करें ये समझ में नहीं आ रहा था,तभी एक दिन उपेन्द्र ने कहा.....
महुआ! क्यों ना कुछ खेत खरीदें और सब्जियाँ उगाने का काम शुरू करें?
तुम्हारा सुझाव तो अच्छा है लेकिन इसमें मेहनत बहुत है और तुम्हारी अब वो उम्र तो रही नहीं,महुआ बोली।।
तुम क्या मुझे बूढ़ा समझती हो? उपेन्द्र बोला।।
तुम मुझसे उम्र में बड़े भी तो हो,महुआ बोली।।
वो तो ठीक है लेकिन कुछ मजदूर भी लगवा लेंगें,उपेन्द्र बोला।।
ठीक है,मैं सोचकर बताती हूँ,महुआ बोली।।
सोचना क्यों हैं? कुछ पैसे तो डेरी के बेचने पर मिले थे और बाकीं तुम दे दो,उपेन्द्र बोला।।
मतलब ये कि अच्छी जमीन तो मिल जाए फिर फौरन खरीद लेंगें,तुम जमीन तो ढूढ़ो,महुआ बोली।।
ठीक है तो मैं आज से ही इस काम पर लग जाता हूँ,उपेन्द्र बोला।।
और कुछ ही दिनों में जमीन भी मिल गई,पक्के कागजात भी बन गए और दूसरे दिन ये सौदा होने ही वाला था कि उस रात महुआ कोठे पर गई,उस दिन उपेन्द्र भी गया था उसे छोड़ने तब महुआ बोली....
तुम थोड़ी देर रूक जाओ,आज पता नहीं मन क्यों खराब सा हो रहा है,मैं बस थोड़ी देर ही गाऊँगी और फिर हम दोनों साथ में घर चलेगें।।
उपेन्द्र बोला,ठीक है।।
और उस रात वो हुआ जिसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की थी,मोतीबाई अपनी कोई ठुमरी गा रही थी और बीच बीच कुछ कुछ नाच भी लेती थी,उसकी अदाएं देखकर एक जमींदार ने मोतीबाई का हाथ पकड़ लिया और उसके संग बतमीजी करनी चाही ये देखकर अजीजनबाई बोल उठीं......
हुजूर! ये क्या कर रहे हैं? इन सब की हमारे कोठे पर मनाही है....
तो कौन सा हम मुफ्त में माँग रहे हैं,इसकी हम कीमत चुकाऐगे,जमींदार बोला।।
मियाँ! ये बदसुलूकी हैं,ये आप ठीक नहीं कर रहे हैं,अजीजनबाई बोली।।
दौलत के दम पर सब मुमकिन है,बोल मोतीबाई एक रात की क्या कीमत है?जमींदार ने पूछा।।
तब तक शोर सुनकर उपेन्द्र भी बाहर आ गया था और जमींदार की बात सुनकर उसका गिरेवान पकड़ते हुए बोला.....
तेरी इतनी हिम्मत,तू समझता क्या है खुद को?
मैं बीस गाँव का जमींदार हूँ और तेरी इतनी हिम्मत कि तू मेरे गिरेवान पर हाथ डाले ले अब इसकी सजा और इतना कहते कहते उस जमींदार ने अपनी पिस्तौल निकालकर उपेन्द्र के पेट में दो तीन गोलियाँ दाग दीं,गोलियों की आवाज़ सुनते ही पहले तो अजीजनबाई के गुण्डो ने जमींदार को धर धबोचा और पुलिस बुलाई और इधर उपेन्द्र को फौरन ही अस्पताल पहुँचाया गया,कुछ देर आँपरेशन चला लेकिन डाक्टर ने बाहर आकर बताया कि वे उपेन्द्र को वो नहीं बचा सकें,ये सुनकर महुआ चीख पड़ी......
उधर उस जमींदार को उपेन्द्र के खून के जुर्म में उम्रकैद की सजा सुनाई गई,इधर महुआ ने उपेन्द्र के जाने के बाद चुप्पी साध ली,उसकी ये हालत अब अजीजनबाई से देखी नहीं जा रही थी ,उसने महुआ को बहुत समझाया लेकिन महुआ अब अपनी सुधबुध बिसरा बैठी थी.....
ये देखकर एक बार फिर अजीजनबाई को प्रभातसिंह की याद हो आई और उन्हें बुलाकर बोली कि......
आप ही कुछ कीजिए,ये हंसेगीं नहीं बोलेगी नहीं तो घुट घुट कर मर जाएगी....
तब प्रभातसिंह महुआ के पास जाकर बोले....
क्या चाहती हो तुम ? कि तुम मरकर इस दुनिया से छुटकारा पा जाओगी लेकिन कभी सोचा है कि तुम्हारे बाद तुम्हारे बच्चों का क्या होगा? तुम्हारे बेटे से लोंग भींख मँगवाएं और तुम्हारी बेटियों को भी तुम्हारी तरह कोठा ही नसीब हो ,जहाँ वो अपने जिस्म की नुमाइश करें....
ये सुनकर महुआ को कुछ होश आया और उसने जोर का थप्पड़ प्रभातसिंह के गाल पर धर दिया....
तब प्रभातसिंह ने अजीजनबाई को पुकारते हुए कहा.....
लीजिए अजीजनबाई! आपकी मोतीबाई ठींक हो गईं हैं सम्भालिए इन्हें,अल्लाह कसम गाल लाल कर दिया हमारा.....
महुआ ये सुनकर कुछ झेंप सी गई और बोली....
माफ कीजिएगा! जमींदार साहब! गलती हो गई....
अरे, हमें तो खुदा ने बनाया ही इसी वास्ते है कि लोगों की उलझनें सुलझाते रहें और मार खाते रहें....प्रभात सिंह बोले।।
तब तक अजीजनबाई भी वहाँ पहुँच गई और बोली....
हुजूर ऐसा ना कहें आप जैसे शख्स दुनिया में विरले ही होते हैं,जब भी हमने आपको मदद के लिए पुकारा आप आ पहुँचे,आपकी वजह से आज मोतीबाई भी ठीक हो गई.....
मुझे अब मोतीबाई ना कहो,अजीजनबाई !अब से मैं ये काम नहीं करूँगी, मैं फिर से महुआ बनना चाहती हूँ,क्योंकि अब मुझे इस काम से घिन आने लगी है इस काम की वजह से एक एक करके मुझे अपने बच्चों को अलग रखना पड़ा और इसी काम की वजह से मेरा पति भी मुझे छोड़कर चला गया ,इसलिए अब मुझे ये काम नहीं करना,महुआ बोली।।
महुआ की बात सुनकर अजीजनबाई बोली....
फिर तुम क्या करोगी?
यहाँ का घर बेंचकर किसी गाँव के छोटे से घर में जाकर रहूँगी,वहाँ रहूँगी जहाँ मुझे कोई पहचानता ना हो,महुआ बोली।।
जब तुमने ये छोड़ने का फैसला कर ही लिया है तो मैं भी तुम्हें नहीं रोकूँगी,लेकिन मैं चाहती हूँ कि तुम मेरी बुआ के गाँव जाकर रहो,बुआ तो कब की मर चुकी थी लेकिन उनकी याद में उसी गाँव में मैने एक घर खरीदा था, जहाँ कोई नहीं रहता,
सालों से वो घर ऐसे ही पड़ा है,उस घर के ही आस पास मेरे खेंत हैं,वहाँ एक कुआँ भी कुछ इमली और जामुन के पेड़ भी हैं वहाँ,अगर सही सलामत होगें तो,ये मैने अपने रहने के लिए बड़े शौक से खरीदा था,उस गाँव में मेरी बुआ रहा करती थी वो मुझे बहुत प्यार करती थी,मेरी माँ के मरने के बाद मैं कुछ समय तक उनके पास रही,फिर मेरे पिता दूसरी ब्याह रचा लाएं और सौतेली माँ ने मुझे चंद पैसों के लिए कोठे पर बेंच दिया,मैं घर की अहमियत खूब समझती हूँ इसलिए तो मैं किसी भी लड़की से जिस्म का धंधा नहीं करवाती,
लेकिन अगर मैं वहाँ रहने लगती तो मेरे यहाँ जो अनाथ और मजबूर लड़कियांँ रहतीं हैं उनका क्या होता ? यही सोचकर मैं वहाँ नहीं गई लेकिन अब तुम वहाँ जाकर रहो, आज से मैं वो घर और जमीन तुम्हारे नाम करती हूँ,कल ही उसके पेपर बनवाकर तुम्हें सौंप दूँगी,तुम वहाँ आराम से जाकर रहो,अजीजनबाई बोली।।
नहीं अजीजनबाई इतना एहसान मत करो मुझ पर,मैं कोई ना कोई इन्तजाम कर लूँगी,महुआ बोली।।
तुम भी तो मुझे इतने सालों से कमाकर दे रही है,ये उसका उपहार मान लो,अजीजन बोली।।
मैं किस मुँह से तुम्हारा शुक्रिया अदा करूँ? अजीजनबाई! महुआ बोली।।
बस,कभी कभी मुझसे मिलते आती रहना,बस मैं चाहती हूँ कि तुम एक इज्जत की जिन्द़गी बसर करो,जो मैं नहीं कर पाई और इतना कहते कहते अजीजन सुबक पड़ी।।
भाई! त्याग करना हो तो कोई आप औरतों से सीखें,जिन्द़गी भर केवल देती ही रहती हो और बदले में कभी कुछ नहीं माँगती,चाहे वो एक पारिवारिक औरत हो या कि कोठेवाली , फिर भी औरतों को ही हमेशा कुसूरवार ठहराया जाता है,प्रभातसिंह बोले।।
वो हम औरतों का नसीब है जमींदार साहब! अजीजनबाई बोली।।
बदनसीब तो वो हैं जो औरतों की कद़र नहीं करते,प्रभातसिंह बोले।।

क्रमशः.....
सरोज वर्मा.....


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