टापुओं पर पिकनिक - 97 Prabodh Kumar Govil द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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टापुओं पर पिकनिक - 97

डिस्कशन बहुत रोचक होता जा रहा था।
- नहीं- नहीं, अब समय बदल गया है। ऐसी बातें कोई नहीं सोचता। डायरेक्टर उजास बर्मन बोले।
प्रोड्यूसर साहब हंसे, बोले- इसीलिए तो हमें सोचना चाहिए, जो कोई नहीं सोचता उसमें ही तो नयापन होता है। जो सब सोचें उसमें क्या नवीनता। क्यों आर्यन?
प्रोड्यूसर ने अपनी बात के लिए आर्यन का समर्थन पाने के लिए उसे भी बहस में आमंत्रित किया।
दरअसल ये बहस हो रही थी आर्यन के डायरेक्टर और फ़िल्म के निर्माता महोदय के बीच।
तीनों टोक्यो की फ्लाइट के लिए सिक्योरिटी चैक करवा कर वेटिंग लाउंज में बैठे थे।
दोनों लड़कियां और बाक़ी लोग अलग फ्लाइट से जाने वाले थे।
कुछ ज़रूरी सामान के साथ यूनिट के कुछ लोग शिप से पहले ही निकल चुके थे।
इस बहस में आर्यन तो मूक- दर्शक बना हुआ था। उसे इस बात में कोई दिलचस्पी नहीं थी कि फ़ैसला क्या होता है। वह तो तर्क- वितर्क का आनंद ले रहा था और मंद- मंद मुस्करा रहा था।
निर्माता महोदय की इच्छा थी कि सर्बिया की जिस लड़की पर्सी को इस महत्वाकांक्षी फिल्म में नायिका के तौर पर पहली बार लॉन्च किया जा रहा था उसका नाम बदल कर कोई अच्छा सा भारतीय नाम रखा जाए।
उजास ने कहा - अब दर्शक चाहे गांव का हो या शहर का, वो इलियाना डिक्रूज या कैटरीना कैफ को भी उसी अपनेपन से देखता है, अब वो ज़माना गया जब लड़की का मतलब ईना मीना मधु ही होता था चाहें वो पारसी, मुस्लिम या क्रिश्चियन ही हों।...एक गाना हिट हुआ नहीं कि जैसमिन को चमेली बनते देर नहीं लगती,सिजलिंग थाइज़ नामकरण संस्कार के हवन को भुला देती हैं...
- क्या आपने कभी ख़ुद पर्सी की इच्छा जानने की कोशिश की? वो क्या चाहती है। प्रोड्यूसर ने कहा।
- उससे क्या पूछना, नाम ख़ुद के लिए नहीं होता, दूसरों के लिए होता है। और उसे तो शायद इन भारतीय नामों का मतलब भी पता नहीं होगा। उजास जी बोले।
- नहीं मिस्टर, देट वे, शी इज क्वाइट क्लेवर...वो कमिट कर चुकी है कि वो डबिंग भी नहीं करवाएगी। वो रात- दिन डिक्शनरी लेकर हिंदी सीखने में लगी है। आजकल एक्सेंट पर तो वैसे भी कोई ध्यान नहीं देता। हमारी कमला, विमला,अमला भी विदेशी अंदाज़ में ही हिंदी बोलती हैं... हा हा हा.. कह कर प्रोड्यूसर साहब ज़ोर से हंस पड़े।
आर्यन ने हाथ में पकड़ा पेपर समेट कर काउंटर पर रखा और तीनों ही झटपट खड़े हो गए। फ्लाइट की बोर्डिंग अनाउंस हो चुकी थी।
जहाज के आसमान में आते ही जहां बाक़ी लोग नींद के झौंके लेने लगे, आर्यन को बैठे- बैठे मधुरिमा और तनिष्मा की याद आ गई।
उसके दिल में कभी- कभी रह - रह कर हूक सी उठती थी कि उसने ये अच्छा नहीं किया... ख़ुद अपनी बेटी का उसे दूर से देखते रहने वाला अंकल बन गया? चलो, मधुरिमा ने तो फ़िर भी अपनी ज़िंदगी को संभाल लिया।
आर्यन शुरू के एक- दो दिन तेन के साथ उनके घर पर ही रहने वाला था पर बाद में उसे यूनिट के अपने लोगों के साथ ही शिफ्ट हो जाना था।
वह पर्सी को भी मधुरिमा से मिलाना नहीं चाहता था। हां, आगोश की मम्मी, मनन, मान्या, तेन और मधुरिमा को वो एक बार शूटिंग पर बुलाना ज़रूर चाहता था। तेन तो उनके साथ शूटिंग के दौरान भी रहने वाला था ही।
आर्यन विमान की तरह ही विचार सागर में हिचकोले खाता रहा।
प्रोड्यूसर साहब ने ठहरने की व्यवस्था टोक्यो में ही करवाई थी। उनकी आदत थी कि वो यूनिट के बाक़ी लोगों के साथ औपचारिक संबंध ही रखना चाहते थे। उनका मानना था कि लोगों से ज़्यादा घुलने- मिलने से वो फ़िर अनड्यू एडवांटेज लेना शुरू कर देते हैं।
पर्सी से उन्हें बड़ी उम्मीदें थीं। ये पर्सी वही लड़की थी जो कांस फिल्म फेस्टिवल के दौरान उन्हें वहां मिल गई थी।
आर्यन के असिस्टेंट बंटी ने वहां जाकर उसे फ़िल्म में काम करने के लिए तैयार किया था। प्रोड्यूसर का ये प्रस्ताव लेकर आर्यन के कहने पर बंटी ही वहां गया था।
लड़की देखने में आकर्षक तो थी ही, उसने जो एक- दो अपनी सर्बियाई फ़िल्मों के क्लिप्स दिखाए थे उनमें प्रभावशाली भी लग रही थी।
आर्यन की फ़िल्म में दोहरी भूमिका थी।
कथानक के अनुसार समुद्री डाकुओं के मुख्य सरगना के रूप में तो वो था ही, एक बड़ा रहस्य जो अब तक रखा गया था वो ये था कि टापू के जंगल में पशुओं के ट्रेनर आदिवासी की विचित्र भूमिका भी आर्यन ही करने वाला था।
इस बात को अब तक आर्यन और फ़िल्म के दोनों महत्वपूर्ण स्तंभ उजास बर्मन और प्रोड्यूसर साहब ही जानते थे। बाक़ी लोगों के लिए ये एक सरप्राइज़ जैसा ही था।
पर्सी फ़िल्म में एक डॉक्टर की भूमिका में नज़र आने वाली थी।
आर्यन कभी - कभी अपनी ज़िंदगी से ये सवाल किया करता था कि उसका मकसद क्या है?
और ज़िन्दगी हंस कर जवाब देती थी कि...जो दुनिया के बनने का मकसद है, जो चांद और सूरज के दिन- रात घूमने का मकसद है, जो हवाओं के बहने का मकसद है, जो सागर के हहराने का मकसद है... बस, वही तो!
आर्यन मुस्कुरा कर आसपास किसी आइने में अपना चेहरा देखता और उसे लगता कि जैसे उसकी उम्र उल्टी दिशा में चल रही है... वह किसी किशोर होते बच्चे की तरह चुपचाप अपने डायरेक्टर की बातें सुनकर अपने मेकअप मैन के सामने सिर झुका कर बैठ जाता।
रात को तेन के घर पर आर्यन का ज़ोरदार स्वागत हुआ। घर में इतने सब अपने लोगों के होते उसे एक बार भी ये अहसास नहीं हुआ कि वो कहीं दूर विदेश में आया हुआ है।
लेकिन इस बार एक बात ने ज़रूर आर्यन के दिल दिमाग़ पर घंटी बजाई।
बिल्कुल किसी सुनसान मंदिर के अहाते में जलते दीपक सी पवित्र पावन सी ध्वनि।
सिद्धांत और मनन उसे कभी- कभी मज़ाक में ही जो कुछ कह कर छेड़ा करते थे वो अब सचमुच शीशे की तरह साफ़ होकर दिखाई देने लगा था।
... तनिष्मा हूबहू उसी की शक्ल - सूरत लेकर बड़ी हो रही थी। वह कभी- कभी कुछ बोलने से पहले जब इधर- उधर देख कर अपने लफ़्ज़ों को तौलती तो उसकी ये अदा देख कर आर्यन भीतर से हिल जाता। ओह, बिल्कुल ऐसे ही तो वो किया करता था!
उसके बचपन के दोस्त मनन और सिद्धांत ने तो उसे बालपन से ही देखा है!
उसके फीचर्स भी आर्यन की तरह भोलेपन के सांचे में ढले हुए से उभर रहे थे।
मधुरिमा से तो उसने कुछ भी नहीं लिया। शायद उस मासूम को ये पता था कि मां तो ताउम्र साथ रहने वाली हैं, उनकी निशानियां क्या लेना? अजनबी तो पिता होंगे... यादगार उनकी चाहिए।
आर्यन की आंखें गीली हो चलीं।
आगोश की मम्मी की गहरी निगाह भांप कर आर्यन बोल पड़ा- ये मेकअप वाले तो तरह - तरह की चीज़ें डाल कर चेहरे और आंखों के कबाब ही तल देते हैं।
डिनर की मेज़ पर मधुरिमा की दिन भर रसोई में की गई मेहनत नज़र आ रही थी।
मान्या चुपचाप सबसे निग़ाहें बचाकर एकटक आर्यन को देख लेती थी। उसे अब तक यकीन नहीं हुआ था कि फिल्मस्टार आर्यन इस वक्त घर में है और वो ख़ुद अपने हाथ से उसे खाना परोसने में मधुरिमा की मदद कर रही है।
इस समय उसे अपनी कॉलेज- फ्रेंड्स याद आ रही थीं जो अगर यहां होतीं तो आर्यन को घेर कर सेल्फ़ी लेने के लिए कतार ही लगा लेतीं।
उसकी निगाह आर्यन के चेहरे से हटती ही न थी।
उधर उसके साथ हनीमून- ट्रिप पर आया हुआ मनन लगातार तेन से बातों में मशगूल था।
अगली सुबह आर्यन वापस अपनी यूनिट के साथ चला गया।
तेन आज आगोश की मम्मी को उस वर्कशॉप में ले जाने वाला था जहां एक फ़ोटो के सहारे चार घंटे में आगोश की आदमकद मूर्ति बना देने का दावा किया गया था।
तस्वीर से सांचा बना कर उसमें पिघला हुआ धातुओं का घोल भरने की ये प्रक्रिया बेहद आश्चर्यजनक, मगर महंगी थी।
इसे भिजवाने की व्यवस्था भी वर्कशॉप की ही थी।