टापुओं पर पिकनिक - 96 Prabodh Kumar Govil द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • आखेट महल - 19

    उन्नीस   यह सूचना मिलते ही सारे शहर में हर्ष की लहर दौड़...

  • अपराध ही अपराध - भाग 22

    अध्याय 22   “क्या बोल रहे हैं?” “जिसक...

  • अनोखा विवाह - 10

    सुहानी - हम अभी आते हैं,,,,,,,, सुहानी को वाशरुम में आधा घंट...

  • मंजिले - भाग 13

     -------------- एक कहानी " मंज़िले " पुस्तक की सब से श्रेष्ठ...

  • I Hate Love - 6

    फ्लैशबैक अंतअपनी सोच से बाहर आती हुई जानवी,,, अपने चेहरे पर...

श्रेणी
शेयर करे

टापुओं पर पिकनिक - 96

वे पेड़ों पर चढ़े हुए थे।
ठठाकर हंसते थे, और वहीं बैठे- बैठे कुछ खा भी लेते थे। वे सब अपने - अपने काम में दक्ष थे, ये सब उन्होंने सीखा था।
उन्हें तेन के एक दोस्त ने भेजा था।
कुछ साल पहले तेन भूटान गया था। वो अपनी पर्यटन कंपनी के प्रस्तावित ट्रिप्स के लिए मनोहारी डेस्टिनेशन्स तलाशता घूम ही रहा था कि उसकी मुलाक़ात एक स्थानीय किसान से हो गई। इस बूढ़े किसान की दास्तान भी बड़ी दर्दनाक थी। कभी उसके पास बहुत ज़मीन होती थी। ख़ूब खेती भी।
उसका बड़ा परिवार था।
लेकिन एक दिन सारे परिवार के लिए सुबह- सुबह अपने हाथ से कहवा बनाते समय उससे भयानक भूल हो गई।
ओह, उसे पता भी न चला और खदकते हुए पेय में एक ज़हरीला कीट गिर गया।
सबको प्यार से पकड़ाए गए प्याले ने पत्नी, बच्चों और ससुराल से आए दो मेहमानों की जान ही ले ली।
सब कै करते रहे, खांसते रहे, पानी भरी आंखें लाल किए तड़पते रहे और वे कुछ नहीं कर सका। देखते- देखते सबने देह त्याग दी।
हे भगवान, पहले उसने ख़ुद क्यों नहीं पी कर देख लिया? ये सब बच जाते।
किसान अकेला हो गया।
अधेड़ एक रात में ही बूढ़ा हो गया। वह अपनी तमाम मिल्कियत और ज़मीन यूंही पड़ी छोड़ कर संन्यासी बनने के लिए घर से निकल गया।
लेकिन तभी... उसने देखा कि कुछ बच्चे कहीं से भागते हुए आ रहे हैं।
जब ये किशोर मंडली नज़दीक आई तो किसान रुक कर देखने लगा। लड़के बोले- नाना, थोड़ा पानी मिलेगा?
उनकी प्यारी सी इल्तिज़ा सुन कर किसान फ़िर अपने घर के भीतर लौटा और पानी तलाश करने लगा।
एक लड़का बोला- हे दद्दू, तुम्हारे घर में बदबू आती है।
और तब अचानक जैसे उस बूढ़े की तंद्रा लौटी। उसे याद आया कि उसके घर में तो सब परिजनों के शव इधर- उधर पड़े सड़ रहे हैं, उसने मृतकों का कोई निस्तारण तो किया ही नहीं! वह कैसा साधु बनने निकल पड़ा था?
प्यासे लड़कों ने उसकी तमाम कहानी जान कर आनन- फानन में बड़ा गड्ढा खोदा और शवों को दफ़नाया।
फ़िर सबने पास के पहाड़ी झरने पर पहुंच कर पानी भी पिया और ख़ूब नहाए।
बहते पानी में उनकी अठखेलियां देख कर बूढ़ा फ़िर से जी गया।
किसी अनाथआश्रम की क्रूर बदहाली से भाग कर आ रहे उन देवदूतों को किसान ने ईश्वरीय विधान मान कर अपने पास रख लिया।
लड़कों ने अपने दद्दू का हाथ सिर पर आते ही इस जगह को अपना घर समझ कर ऐसा चमकाया कि कालांतर में ये भूटान आने वाले पर्यटकों के लिए एक ख़ूबसूरत दर्शनीय स्थल बन गया।
किसान ने इन लड़कों को पाला- पोसा - पढ़ाया, उन्हें नई- नई बातें सिखाने के लिए महंगे विशेषज्ञ रखे।
तेन से उसकी दोस्ती हो गई।
इन्हीं लड़कों के दल को तेन कुछ दिन के लिए अपने साथ ले आया था और ये सब तेन के उस टापू पर काम कर रहे थे जहां कुछ समय बाद शूटिंग शुरू होने वाली थी।
ये बच्चे टापू पर रहने वाले ट्रेनर आदिवासी के घर और पशुओं के बाड़े के आसपास के पेड़ों और झाड़ियों पर कैमरे, लाइटें, सीसीटीवी कैमरे, साउंड आदि की गोपनीय फिटिंग कर रहे थे। इन यंत्रों से लैंडस्कैप के रंग तक बदले जा सकते थे। बरसात, तूफान या कोलाहल की ध्वनि भी कृत्रिम रूप से पैदा की जा सकती थी।
घने पेड़ों के बीच, सूखे पेड़ों के सख्त तनों के भीतर से, ज़मीन का पथरीला सीना चीर कर... और न जाने कैसे- कैसे कहां- कहां...! अद्भुत।
अनुभवी और महत्वाकांक्षी तेन जानता था कि यदि किसी फिल्मकार ने इस जगह पर शूटिंग के लिए उपलब्ध अत्याधुनिक सुविधाओं की बात अपनी फ़िल्म के जरिए हॉलीवुड में फ़ैला दी तो ये सिलसिला चल निकलेगा और उसके ये उजाड़ टापू सोना बरसाएंगे।
सुबह- सुबह मधुरिमा ढेर सारा खाना पैक करके तेन को देती और तेन अपनी बोट से इस मंडली को लेकर अपने टापुओं पर चला आता।
दिन भर मेहनत और लगन से ये लड़के काम करते।
लगभग दो सप्ताह बाद ही वो घड़ी आ गई जब तेन टोक्यो एयरपोर्ट पर इस वानरसेना को थिंपू के प्लेन में बैठाने आया और छह घंटे टोक्यो शहर में मटरगश्ती करने के बाद शाम के गहराते साए में उसे दिल्ली से आने वाले जहाज से मान्या, मनन और आंटी, यानी आगोश की मम्मी को रिसीव करना था।
तेन ने टोक्यो में अपने छोटे- मोटे कुछ काम निपटाए।
इंडियन प्लाज़ा से कुछ लज़ीज़ भारतीय व्यंजन घर ले जाने के लिए पैक कराए।
एक रेस्ट कॉर्नर पर थोड़ी देर विश्राम किया और अपने भारतीय मेहमानों को रिसीव करने के लिए चला आया।
मान्या को उसने पहले कभी देखा नहीं था बाक़ी दोनों लोगों से तो वो मिल ही चुका था।
मगर सुबह घर से आते समय मधुरिमा ने मान्या की एक फ़ोटो उसे लैपटॉप पर ख़ूब एंलार्ज करके दिखा दी थी।
उसी के सहारे तेन को ये नहीं लग रहा था कि वो किसी अजनबी मेहमान को लेने आया है।
भारत में जाने के दौरान भी उसकी मनन से ज़्यादा बातचीत नहीं हुई थी क्योंकि जैसा अंतर्मुखी तेन ख़ुद था, वैसा ही मनन भी। मनन अपने दोस्तों से तो खुल कर बात करता था लेकिन अनजान लोगों के सामने उसका संकोच कम नहीं होता था। ख़ुद तेन भी तो ऐसा ही रहा... वो तो भला हो आगोश का जिसने उसे सबसे मिला दिया वरना उसे भी कहां आदत थी अजनबियों के करीब आने की।
ख़ैर, तेन के सामने तो और भी कई समस्याएं थीं, भाषा की, दूसरे देश की संस्कृति की!
हां, आगोश के जाने के बाद उसकी मम्मी से तेन ज़रूर काफ़ी खुल गया था और थोड़े- थोड़े समय बाद फ़ोन पर उनसे लंबी गुफ्तगू कर लेता था।
उनसे तो उसे आगोश की कंपनी और दफ़्तर के बारे में भी बहुत बार चर्चा- परामर्श करना ही पड़ा था।
फ्लाइट टाइम पर ही थी।
तेन ने आंटी के पांव छुए। टोक्यो एयरपोर्ट की भीड़- भाड़ के बीच भी कुछ एक नज़रें तो एक जापानी आदमी को महिला के पांवों पर आदर से झुकते देख कौतूहल से निहारने ही लगीं।
मनन से गले मिला तेन और मान्या से उसने हाथ मिलाया।
मान्या की पहल ही रही हाथ मिलाने की... अन्यथा तेन ने तो पहले उसे हाथ ही जोड़े।
ये भी विचित्र है। किसी विदेशी से मिलते ही जैसे हम उसकी संस्कृति का सम्मान करते हुए उनके तौर- तरीके अपनाते हैं, ठीक वैसा ही वो भी तो सोचते हैं... ऐसे में क्रिया- कलापों की अदला - बदली सी हो जाती है।
ट्रॉली से सामान उतार कर कार में रखने में तेन ने मदद की।
तेन ने उन्हें बताया कि यहां से उसके घर तक का रास्ता ट्रेन से एक घंटे पचास मिनट का है जबकि कार से लगभग सवा दो घंटे का।
तेन ने ये भी बताया कि वैसे ट्रेन का रास्ता बहुत खूबसूरत है लेकिन वो लोग आंटी की सुविधा को देखते हुए कार से चल रहे हैं।
जापान की ट्रेंस के अपनी स्पीड और तकनीकी सुविधाओं के लिए दुनिया भर में मशहूर होने की बात ख़ुद आंटी ने ही मान्या और मनन को बताई। जबकि वो भी पहली ही बार यहां आई थीं।
बेहद ख़ूबसूरत रास्ते का जलवा रात हो जाने पर भी कम नहीं हुआ था।
मनन और मान्या हैरान से इमारतों की ऊंचाई और भव्यता को देख रहे थे।
मौसम में भी हल्की सी ठंडक थी।
कुछ ही देर में टोक्यो शहर से बाहर निकल जाने के बाद ग्रामीण इलाकों की झलकियां दिखाई देने लगी थीं। किंतु इस देश की तकनीकी संपन्नता ने यहां भी इन मेहमानों को हैरान करने वाले पल छोड़े नहीं थे।
कई सागर तट और साफ़- सुथरे जलाशयों की आभा रात में भी बरकरार थी।
पुलों की लंबाई और ऊंचाई हैरत में डालने वाली थी।
ग्रामीण इलाकों में चहल पहल कुछ कम हो जाने के बावजूद दुकानों और मैदानों की आलीशान भव्यता दर्शनीय थी।
घर पहुंच कर भीतर दाखिल होने से पहले ही बाहर खड़ी मधुरिमा और तनिष्मा ने सबका स्वागत किया।
खाने से पहले ही आंटी ने अपने सूटकेस से निकाल- निकाल कर तोहफ़ों का अंबार लगा दिया।
मनप्रीत और साजिद ने भी मधुरिमा और तेन के लिए उपहार भेजे थे। वे यहां आ चुके थे इसलिए उन्हें तेन की पसंद भी मालूम थी।
मधुरिमा के लिए जयपुरी बंधेज की खूबसूरत चुनरी, तनिष्मा के लिए जयपुरी जूतियां और तेन के लिए यहां की सांगानेरी बारीक प्रिंट के हल्के - फुल्के पायजामे।