टापुओं पर पिकनिक - 53 Prabodh Kumar Govil द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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टापुओं पर पिकनिक - 53

तेन कह रहा था कि तुम्हारे यहां लोग चलती कार से शीशा खोल कर सड़क पर रैपर्स, छिलके, बोतलें आदि क्यों फ़ेंक देते हैं? क्या यहां ज़्यादा डस्टबिन नहीं होते?
आगोश गाड़ी चलाते- चलाते ज़ोर से हंस पड़ा। क्योंकि तेन ने सिर्फ़ कहा नहीं था, बल्कि बाकायदा शीशा खोल कर अभिनय करके बताया था कि लोग कैसे करते हैं, कैसे कचरा फेंकते हैं। और ऐसा करने में अचानक तेन की अंगुली कांच से ज़ोर से दब गई। वह दर्द से सिसकारी भर कर उछल पड़ा।
आगोश किसी रिफ्लेक्स एक्शन की तरह हंस तो पड़ा पर तुरंत ही संभल गया। उसे याद आ गया कि उसके साथ बगल में उसके शरारती दोस्त नहीं बल्कि एक संजीदा विदेशी मेहमान है। और मेहमान सही व गंभीर बात कह रहा है।
उसने तेन से पूछा- लगी तो नहीं?
पर इस बार तेन हंसा। उसने अपनी अंगुली दूसरे हाथ से पकड़ कर दबा रखी थी। सच में उसे चोट लग गई थी और अंगुली से ख़ून टपक रहा था।
आगोश चौंक गया। आगोश ने उसे तत्काल एक नेपकिन दिया ताकि वह अंगुली से खून पौंछ सके।
पल भर में ही नेपकिन खून से रंग गया।
तेन ने अपनी जेब से रुमाल निकाला और उसे पट्टी की तरह लपेटने की कोशिश करने लगा।
- ओके, कुछ रुको, हम किसी मेडिकल शॉप से बैंड-एड लेते हैं।
- ज़रूरत नहीं।
- नहीं, लेलो, रिलीफ़ रहेगा।
- ठीक है... कह कर तेन सड़क के किनारे बनी शॉप्स पर निगाह डालने लगा।
- सॉरी, मैंने चलते समय फर्स्ट-एड बॉक्स नहीं भरा। कहता हुआ आगोश गाड़ी की स्पीड कुछ कम करके रास्ते की दुकानों पर ध्यान देने लगा।
कुछ ही देर में सड़क किनारे एक छोटी सी दुकान पर बड़ा सा रेडक्रॉस का निशान देख कर उसने गाड़ी रोक दी।
दुकान दवा की तो नहीं थी पर वहां विज्ञापन सरीखा वो बोर्ड ज़रूर टंगा हुआ था।
आगोश ने उतर कर दुकानदार से पूछा- यहां आसपास कोई मेडिकल शॉप है?
- आपको क्या चाहिए? अंदर गली में पांच- सात दुकानें छोड़ कर एक स्टोर है तो सही, देखिए शायद खुला हो।
पीछे से तेन की आवाज़ आई- रहने दो, ठीक हूं।
पर आगोश धीमे कदमों से उधर बढ़ने लगा।
तभी उस दुकानदार ने पीछे से आगोश से कहा- साल भर बाद तो आपको यहां चारों तरफ़ दवा की ही दुकानें नज़र आएंगी।
- क्यों? आगोश एकदम से पलटा।
आगोश को अपनी बात में रुचि लेते देख कर दुकानदार एकदम से उत्साहित हो गया। बोला- इसी रोड पर डेढ़ किलोमीटर अंदर एक शानदार वर्ल्ड क्लास हॉस्पिटल बन रहा है।
- क्या... आगोश ने हैरानी और उत्सुकता के मिले - जुले आवेश में दुकानदार से फ़िर पूछा।
दुकानदार बताने लगा- साहब, कहते हैं मल्टी- स्पेशियलिटी हस्पताल मिलेगा हमारे एरिया को। अब दिल्ली का तो बुरा हाल है।
आगोश एकदम से उत्तेजित हो गया। बोला- कितनी दूर है..?
दुकानदार हंसा, कहने लगा- अरे साहब, वहां दवा नहीं मिलेगी, अभी तो दीवारों की चिनाई है बस, सालों लगेंगे। पर सपना तो पूरा होगा ही इधर के लोगों का...।
आगोश ने वापस पलट कर गाड़ी का रुख किया और लपक कर स्टेयरिंग संभाल लिया।
तेन उसे गली में कार मोड़ते देख कर एक बार फ़िर बोला- इतना सीरियस नहीं है, घर चल कर देख लेंगे।
पर आगोश ने उसकी बात पर ध्यान नहीं दिया। ऐसा लगता था मानो अब तेन से अधिक बेचैनी आगोश को हो रही हो।
चौड़ी सी सड़क के किनारे गाड़ी रुकी हुई थी। आगोश एकटक उस पांच- मंज़िला ढांचे को इस तरह गौर से देख रहा था जैसे कभी बचपन में किसी जू में शेर के पिंजरे को देखा करता था।
बिल्डिंग पर भारी लाइटों के साथ तेज़ी से निर्माण कार्य चल रहा था।
तेन को भी ये समझते हुए देर नहीं लगी कि ये वही जगह है जिसे ढूंढने के लिए वो दोनों कई दिनों तक सड़कों पर भटकते रहे हैं।
वह भी आगोश की तरह खड़ा होकर उस निर्माणाधीन इमारत को इस तरह देखने लगा मानो किसी विशाल काय गिरजाघर के सामने खड़ा ईश्वर को धन्यवाद दे रहा हो।
उधर रात के बारह बज जाने पर भी आगोश के घर न पहुंचने पर मम्मी अब कुछ- कुछ चिंतित सी होने लगीं। उन्हें आगोश के ऊपर ये सोच- सोच कर गुस्सा आने लगा कि ये लड़का गाड़ी ड्राइव करते समय फ़ोन भी स्विच- ऑफ करके बैठ जाता है। अरे, ड्राइविंग के समय तो फ़ोन संपर्क खुला रखना और भी जरूरी है... पर ये लड़का समझता ही नहीं।
उन्होंने खाने की भारी तैयारी की थी। न जाने क्या- क्या व्यंजन अपने हाथों से ही बनाए थे। दिन भर रसोई में नौकरानी के साथ- साथ ख़ुद भी लगी ही रही थीं। और अब भी रात को वहीं ठहर जाने के लिए उन्होंने नौकरानी को रोक लिया था, ताकि वो उन लोगों को खाना खिला सके।
आज ख़ास बात ये थी कि इतने दिनों के बाद आगोश के पापा भी यहीं थे।
महीनों बाद ऐसा मौक़ा आया था जब सब एक साथ बैठ कर खाना खाने वाले थे। ऊपर से आगोश का जापानी दोस्त भी साथ में आने वाला था।
पर अब रात के बारह बज चुके थे और आगोश का अभी तक कुछ अता-पता नहीं था।
आगोश के डैडी मायूस होकर कई बार डायनिंग रूम का चक्कर लगा गए थे। वो जब भी आते, आगोश की मम्मी कोई न कोई डिश किसी प्लेट या कटोरी में उन्हें पकड़ा देतीं। वो उसे चखते हुए फ़िर लौट जाते। मम्मी के चेहरे पर भी कोई अपराध भाव आ जाता। जैसे उनकी वजह से ही डॉक्टर साहब को डिनर नहीं मिल पा रहा हो।
आगोश की मम्मी बुदबुदा कर कहतीं- ये आदत उसे आपने ही लगाई है कि गाड़ी चलाते समय फ़ोन बंद रखो।
डॉक्टर साहब सलाद का एक टुकड़ा मुंह में रखते और अपने कमरे की ओर लौट जाते मानो इसी समस्या का कोई समाधान खोज रहे हों।
बार- बार थोड़ी - थोड़ी देर पर कुछ- कुछ खाते रहने से उन्हें भी ऐसी भूख नहीं लगी थी कि डिनर की कोई जल्दी हो इसलिए वो भी मन ही मन आगोश का इंतजार करते हुए उसके साथ बैठ कर खाने के लिए उत्सुक थे। लेकिन अब उन्हें मन में एक शंका और भी होने लगी थी। वो सोच रहे थे- कहीं ऐसा तो नहीं कि उनके आज घर में होने की बात जान लेने के बाद आगोश जानबूझ कर यहां न आ रहा हो? वह उन्हें नीचा दिखाना चाहता हो।
ये तो वो कई बार देख चुके थे कि आगोश उनके सामने जानबूझ कर लापरवाही करके एक तरह से उनका अपमान करता है। वो कैसे भूल सकते थे कि आगोश ने उनके सामने उनकी कर्मचारी लड़की को चूम लिया था, केवल उन्हें चिढ़ाने के लिए... उनकी अवहेलना करने के लिए।
लेकिन आगोश की मम्मी ने उन्हें आभास दिलाया था कि अब घर से दूर रहने के कारण आगोश उन्हें मिस किया करता है, इसलिए उन्हें यहां रहना चाहिए।
धीरे- धीरे डॉक्टर साहब के मन में यही धारणा बलवती होती गई कि आगोश जानबूझ कर यहां नहीं आ रहा है। उनका धैर्य भी जवाब देने लगा।
वो भीतर आए और आगोश की मम्मी से बोले- मुझे एक ज़रूरी काम याद आ गया, शायद अभी किसी से मिलने भी जाना पड़े... तुम मुझे तो खाना खिला दो! चलो, सुबह नाश्ता साथ में करेंगे। डिनर तुम अपने लाड़ले के साथ करना।
मम्मी उनके इस व्यंग्य से कुपित हो गईं। तिलमिला कर बोलीं- वो तुम्हारा भी लाड़ला है, पर तुम्हारे पास उसके लिए वक्त कहां है?
और मम्मी ने देखा कि आगोश की कार के घर के भीतर घुसने की आवाज़ तो आई नहीं, बल्कि डॉक्टर साहब की कार घर से बाहर निकल जाने की आवाज़ गूंज उठी।
वो सहम कर रह गईं। डॉक्टर साहब का खाना रखा रह गया।