टापुओं पर पिकनिक - 51 Prabodh Kumar Govil द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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टापुओं पर पिकनिक - 51

शहर के प्रसिद्ध मनोरोग चिकित्सालय के बाहर पिछले कुछ दिनों से एक शानदार, बेशकीमती कार आकर खड़ी होने लगी थी।
ये कार किसी अजनबी की नहीं थी बल्कि इसे हॉस्पिटल के वही डॉक्टर लेकर आते थे जिनके संरक्षण में कुछ दिन पहले एक पागल नर्स का अजीबो- गरीब केस दाख़िल हुआ था। जिसमें रोगी का ख़ुद भी बार- बार ये कहना था कि वो पागल नहीं है किंतु डॉक्टर उसके व्यवहार के कारण उसे पागलपन का ख़तरनाक मामला मान कर एक रात आर्यन को यहां लाए थे।
ये बात उजागर होते ही डॉक्टर साहब पर अचानक एक दिन "सौभाग्य का हमला" हुआ और ये नई चमचमाती हुई कार उसी का प्रतिफल थी।
सीधे शब्दों में बात ये थी कि एक दिन रुपयों से भरा हुआ एक बैग और ये कार लेकर उनके पास कुछ लोग ख़ुफ़िया तरीके से आए और उनसे गुज़ारिश की, कि वो पागल नर्स को लेकर किसी भी तरह की पुलिस शिकायत के चक्कर में हरगिज़ न पड़ें, और उन्हें ये भी कहा गया कि यदि वो रोगी को पागल नहीं समझते तो उसे तत्काल शहर छोड़ कर दक्षिण में उसके वांछित स्थान पर चले जाने का "धमकी भरा निवेदन" कर दें। उन्हें नर्स को ख़र्च के लिए देने हेतु भी एक बड़ी रकम अलग से सौंपी गई थी।
इस तरह सारा मामला रफ़ा- दफ़ा हो गया। इस केस का कोई नामो-निशान अगर रहा भी होगा, तो वो केवल ज़मीरों में रहा, असलियत में नहीं।
डॉक्टर ने एक दिन इसकी सूचना आर्यन को भी फ़ोन पर दे दी कि वो औरत खुद ही शहर छोड़ कर चली गई है। यद्यपि आर्यन को अब ये सब बीती ज़िन्दगी की बीती बातें ही लगीं। उसने कुछ भी जानने- पूछने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई।
आर्यन इन दिनों राजस्थान के दक्षिण में स्थित एक पर्वतीय स्थल माउंटआबू में रह कर शूटिंग में व्यस्त था। एक बेहद कलात्मक मंदिर के ख़ूबसूरत परिसर में उस पर एक मार्मिक प्रकरण फिल्माया जा रहा था।
सुबह संगमरमर की सीढ़ियों पर बैठ कर एक युवती से अपना मेकअप करवाते समय आर्यन को सहसा आगोश की वही बात याद आ रही थी कि..." हमारे चिकने चॉकलेटी छोरे को एक के बाद एक कृशकाय जर्जर बूढ़ों के रोल करने पड़ रहे हैं।"
आर्यन ने रात को वहीं एक होटल में बेहद गरिष्ठ खाना खाया था। वह भी ढेर सारा। नॉनवेज उसे मिला ही बहुत दिन बाद था। बीयर के साथ तीन तरह के स्पेशल चिकन... रोगन जोश।
आर्यन मना करता, पर उसके बराबर वाले कमरे में ठहरा असिस्टेंट डायरेक्टर राजदीप बार- बार मनुहार करके उसे खिलाता ही जाता। ... आर्यन भाई एक और.. जरा सा इसका शोरबा लेकर देखो.. एक ये पीस तो खाना ही पड़ेगा.. भाई, यहां की मेज़बानी तो वैसे भी मशहूर है, यहां मनुहार कर- कर के खिलाया जाता है, तुमने ये मुसल्लम तो चखा ही नहीं... मुर्गे का है।
- अरे मैं इधर की तरफ़ का ही हूं! आर्यन उकता कर बोला। यहां मनुहार कर- करके खिलाते ज़रूर हैं पर मैं नॉनवेज इतना नहीं खा सकता। और वैसे भी यहां की कल्चर में ज्यादा खिलाना नहीं, बल्कि खाने के लिए ज़्यादा कहना आता है।
आर्यन की बात पर यूनिट के सब लोग हंस पड़े।
- राजदीप भाई, क्या बात है, आज आपका जन्मदिन है क्या? इतना फोर्स करके प्यार से खिला रहे हो। आर्यन बोला। ... कल सुबह मुझे उठने नहीं देना है क्या?
राजदीप इस यूनिट का नया- नया असिस्टेंट डायरेक्टर था। वह कुछ ही महीनों पहले मुंबई से डायरेक्शन का कोर्स करके आया था।
कहावत है कि नया मुल्ला कुछ ज़्यादा ही अल्ला- अल्ला करता है। शायद यही वजह थी कि राजदीप हर बात को किसी बच्चे की तरह पूरे मनोयोग से फ़ॉलो करता था, मजाल क्या, कि डायरेक्टर साहब ने जो कुछ कहा उससे रत्ती भर भी इधर- उधर हो जाए।
प्रशिक्षण में जो कुछ सिखाया या समझाया गया था वो राजदीप के लिए पत्थर की लकीर था।
तो ये महाशय आर्यन के साथ बैठ कर खाना खाते समय भी अपनी ट्रेनिंग में सिखाई गई बातों को ही पूरा कर रहे थे। दिलचस्प बात थी।
एक बार वहां अमोल पालेकर साहब लेक्चर देने आए थे। उन्होंने बताया कि कभी- कभी बूढ़ों को जवान, और युवाओं को बूढ़े की एक्टिंग करनी पड़ती है। ऐसे में काफ़ी मशक्कत तो मेकअप मैन को ही करनी पड़ती है पर कभी- कभी आर्टिस्ट मेकअप मैन की मेहनत पर पानी फेर देते हैं। होता क्या है कि जवान लोगों के शरीर में एक स्वाभाविक चपलता होती है और उम्रदराज लोगों के जेश्चर्स में एक नैसर्गिक ठहराव होता है। यदि आप जवान आदमी से बूढ़े का रोल करवा रहे हैं तो आपको उसके शरीर को भी कुछ थका हुआ, स्लो बनाना चाहिए। उदाहरण के लिए शूटिंग से पहले उससे काफी वर्कआउट करवा कर उसे थका दीजिए... या उसे इस तरह खिलवाइए कि वो आलसी, उनींदा सा हो जाए। या उसे नींद पूरी मत करने दीजिए... तब देखिए उसकी एक्टिंग!
वाह, तो इसलिए आर्यन की खातिरदारी हो रही थी कि सुबह श्रीमानजी आलसी बूढ़े नज़र आएं। नज़र तो मेकअप से आ सकते हैं पर आलसी सा बर्ताव करें...।
ये प्रकरण भी बड़ा दिलचस्प था। ये एक मशहूर लेखक की कहानी से लिया गया था।
कहानी कुछ इस तरह थी- "गांव में महामारी फैलने से एक बच्चे के माता- पिता का देहांत हो जाता है। वह अपनी वयोवृद्ध दादी के साथ रहता है। बच्चा बहुत छोटा है और उम्र दराज दादी अब काफ़ी बीमार भी रहने लगी है। उसे अब अपनी बीमारी के साथ - साथ पल- पल ये चिंता भी होती है कि उसके बाद उसके इस छोटे से पोते का क्या होगा? ये अकेला कहां और कैसे रहेगा।
इन्हीं दिनों दादी का संपर्क कभी- कभी वहां आने वाले एक साधु से होता है और कभी - कभी उससे दो- चार मिनट की बातचीत में वृद्धा अपने मन की चिंता उसके सामने उजागर कर देती है। साधु भी अधेड़ावस्था को पार करता हुआ एक स्वस्थ बूढ़ा आदमी ही है किंतु वह आंखों से लाचार है। उसके पास नेत्रज्योति नहीं है।
वो किसी तरह दादी को मना लेता है कि वह अपने पोते को उसके हवाले कर दे।
एकबारगी सहम उठी दादी आख़िर मजबूरी में अंधे को उसके पोते का पथ - प्रदर्शक बनाने को तैयार हो जाती है। दादी को भरोसा है कि कम से कम उसे कुछ हो जाने की स्थिति में पोते पर किसी बुजुर्ग का साया तो रहेगा। उसके साथ घूम- भटक कर बच्चा पेट तो भर लेगा।
यही दृश्य मंदिर की सीढ़ियों पर फिल्माया जाना था जहां नेत्रहीन बूढ़े के रूप में आर्यन बैठा है और अशक्त दादी अपने पोते को हमेशा के लिए उसे सौंपने को लेकर आती है।
अचानक बैठे - बैठे आर्यन को कुछ दिन पहले आए पागलखाने के डॉक्टर के उस फ़ोन की याद आ गई जब डॉक्टर साहब ने बताया था कि पागल औरत, वो नर्स अब वापस यहां से अपने शहर चली गई है। आर्यन को सारी बात याद आ गई।
सहसा आर्यन उसे याद करके रो पड़ा।
उसकी आंखों से बहते आंसुओं को देख कर मेकअप करने वाली युवती हैरान रह गई। वह कभी आर्यन को देखती, तो कभी अपने हाथ में पकड़ी ग्लिसरीन की बोतल को... जिसकी बूंदों से उसे आर्यन की आंखों से नक़ली आंसू निकालने थे।