साहित्य की धरोहर-दादा श्री सीता किशोर खरे बेदराम प्रजापति "मनमस्त" द्वारा पुस्तक समीक्षाएं में हिंदी पीडीएफ

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साहित्य की धरोहर-दादा श्री सीता किशोर खरे

साहित्य की धरोहर-दादा श्री सीता किशोर खरे-

(भाव सुमन)

वेदराम प्रजापति मनमस्त

डबरा(ग्वा.)म.प्र

मो.9981284867

सादा जीवन उच्च विचार के आदर्श की मिशाल में,अपनी जीवन साधना के आधार पर दादा श्री सीता किशोर खरे जी की कलम प्रगतशील रचनाओं के पालने से चलकर,उच्चाकार झूलों के झूले पर झूलीं है,हालाकि वे छंद मुक्त कविता पथिक रहे है।ऐसी कविताओं का संकलन, तीखे वाणों से भरा तर्कश है,जिसमें समाज के नैतिक पतन पर गहरीं चोटे की हैं।इसकी बानगी का एक व्यंग छंद यह है जो मानव मन में गहरी हलचल मचा देता हैं। यथा-तुम मानते क्यों नहीं हो कि,

आस-पास कहीं कुछ सड़ रहा है।

कितनी बुरी बदबू है,और तुम सहज हो,

साँस लिए जा रहे हो,जिसे धरती नहीं पचा पा रही है,

उसे तुम पिए जा रहे हो----देखो यार,और कुछ-

कहो-न-कहो लेकिन इस सड़ांध को,सड़ांध तो कहो।

(इस दौर से गुजरे-161)

इस प्रकार जन साधारण के प्रति गहरी आत्मीयता से उभरे शब्द छंदों ने उन्हें जन कवि सम्मान पाने का एक ससक्त आधार दिया है।उनकी कस्बाई भाषा बोली अनुसंधान की गुत्थियाँ सुलझाने की कड़ी में महत्वपूर्ण रहीं हैं।उन्होनें अपनी रचनाओं में अंधविश्वास,पाखण्ड,अनैतिक आचरण और बड़ती अराजकता पर गहरा चिंतन दिया है।इस क्रम में उन्होने वर्तमान की कविता दौर की सही पहिचान कराने में कसर नहीं छोड़ी।जिसका एक दृश्य देखिए। यथा-

जब-जब मैनें बातें बनाई,लड़ाई झूठी गप्पें,

तुमने कविता समझा,वाह-वाह करके पुकारा,

प्रतिष्ठा के झूले में झुलाया और जब-जब मैंने

कविता लिखीं तुम्हें कविता सी ना दिखीं।

हाँ,कविता एक झन्नाहट,क्रोध,एक जलन है।

अपने आप में होता एक हवन है।

(इस दौर से---67-69)

कवि श्री सीता किशोर खरे जी की साहित्य साधना के अनेक मोड़ है।उन्होंने जो भी कुछ लिखा चश्मदीदी सी बात है।वे व्यंग के गहरे हस्ताक्षर भी रहे है तथा श्रंगार में भी पीछे नहीं।श्रंगार भी ऐसा वैसा नहीं,जहाँ मानव चिंतन अपने आप को समर्पित सा करता दिखा-यथा-

कच्ची उमर की भावुकता का हाथ,बूढ़े विवेक ने

पकड़ा,फिर ऐसे भाग्यवान कम मिले,जिन्हें आँखों

पर बिठाता।हाँ आँखों में वे ढेर-ढेर है,पर सबऐसे-

जिनसे वे झुकीं,पर उठीं नहीं।

आँखें उस समय भी झुकीं थी,आज भी झुकीं है

जहाँ की तहाँ रुकी हैं।(इस दौर से---171---177)

खरे जी की रचनाओं का प्रारंभिक दौर फाग मण्डलियों के फड़ो,जबाबी फाग गायन से हुआ।ये गीत गायन में काफी सिध्द-हस्त थे।तत्काल जबाबी हौसला था।दृश्य को देखकर कलम अपने आप चल पड़ती थी।उनकी बहुत सारी रचनाऐं,खाशकर दोहे इतने समसामयिक थे कि लोगो की जवान पर खूब रट गए।जन जीवन चलते फिरते,बात-बात में उनके दोहों का उदाहरण प्रस्तुत करता था,क्योंकि उनमें हौसला अफजाई का गहरा स्वर था।दोहा संग्रह-पानी-पानीदार-ने अपनी अनूठी पहिचान बनाई।चम्बल की माटी की महानता को ब खूबी परोसा है।वहाँ का सम्पूर्ण वातावरण इस संग्रह के नाम जाता है।उन्हें लोग,एक हाथ का होने पर भी सहस्त्रबाहु कहते थे क्योंकि उन्होंने एक हाथ से वे कार्य कर दिखाए जो सहस्त्र भुजाएँ भी नहीं कर पायी।इसी संदर्भ में उनके दोहों की कुछ वानगी इस प्रकार है।

यथा-धुरबा टूटत क्वांर के,हवा झकोरा लेत।

पटवारी की कलम ज्यों,चाहे सो लिख देत।।

कारे को कबरो करे,आमे करे बबूर।

पटवारी पल में करै,रन वन के दस्तूर।

रात-रात वागी भई,दिन-दिन थानेदार।

सामंत और पटेल की,बची खुची ललकार।

ठसक-कसक दो में बची,रची असीम अपार।

कै बागी की प्रेमिका,कै फिर थानेदार।।

इस तरह की रचनाओं के पुरोधा थे,दादा सीता किशोर खरे जी।

दिखने में सीधे सच्चे थे पर चिंतन में बड़ा ही बाँकपनथा। उन्होंने जन भाषा में वह सब कह डाला जो किसी महान ऋषि की कलम ने कभी कहा था।

दादा के कई संकलनों की रचनाएँ आज भी लोगों की जवानों को जुवान देतीं है। उनके सरल व्यंग भी,गहरे सागर से कम नहीं है,उनमें तली के मोती लाने की गहरी परख है।

यथा-बहुत दिन हो गए,दुबारा जाँच करा लो,

फ्रेम बहुत अच्छा है,उसे बना रहने दो-

धुधलें से जो उतर चुके,इन ग्लासों को,तब्दील करा लो।

इसी प्रकार कविता-दुधमुँही थकन-में जन जीवन को झकझोर देने बाले दर्शन का प्रतिपादन बड़ी ही कुशलता से किया गया है। बात-बात में वह बात भी कह डाली जो भविष्य के माँथे पर कलंक का टीका भी हो सकती थी।

यथा-वैसे तो रह जाता,पर ये पौध बिचारी मुरझाई है।

इसीलिए बागी भविष्य की,तैयारियाँ खरीद रहा हूँ।

अभी समय है,फिर मत कहना,तुमने गेल बताई कहाँ थी,

बरना मैं ये साज जलाने,चिनगारियाँ खरीद रहा हूँ।

दादा ने अपना पता डंके की चोट दे बताया है।वैसे लोग आज के समय में पता बतानें में हिचकिचा जाते हैं,कई तरह से सोचते है पर यहाँ तो खुला खेल था-सौदागिरी का।यथा-

दर्दों के चौराहे से मुड़कर,गम की बीच बजरिया में मेरी दुकान।

मैं सबसे ऊँची बोली तक,आँसू का मोल चुकाने बाला,बहुत बड़ा सौदागर हूँ। तुम चाहे कभी चले आना।

इसी प्रकार मेरी कलम कविता में उनके दर्दों का पिटारा बड़ी ही गहरी सोच लिए खुलता दिखा है।यथा-

मेरी कलम दर्द की बिटिया,गहरे गम की गोद पली है।

हर आँसू के आँगन की किलकारी है,अँधियारी पीने बाली

उजयारी है।

ऐसी उनकी कविताएँ कविता नहीं बल्कि जीवन की दास्तानें है। दुधमुँहे बालक सी पहिचाने है।अनायाश ही हँसते-हँसते सब कुछ कह जातीं है।इस सबको कविता-खुरदुरी कोमलता में देख सकते है।यथा-

मैंने उस दिन,तेरे विश्वास के नाम करके,एक सौगंध खाई थी।

मैं एक आदमी हूँ,मुझे आदमी बना रहने देना।कहीं इन उन के

कहने से,मेरा बटबारा न कर देना-पर तूँ न माना-------।

सच कहै तो दादा ऐसी धरती के लाल है,जहाँ का प्रत्येक माँटी का कण और पानीदार-पानी की हर बूँद ही साहित्य चेतना की सम्बाहक है।दादा उसी धरती के पुजारी रहे है।उनकी पूजा की यह थाली हमेशी ही जगमगाती आ रही है।इस धरती के हर मानव को उनकी छाप ने देवता सा बना दिया है।लगता है यह धरती देव नगरी है।वे कबीर की लकीरों को आगे बड़ाने की कला भी जानते थे और उन्होंने वही कर दिखाया।यदि और आगे कहे तो जन जीवन की वेदना का फक्कड़पन निराला की झाँखी दिखाता है।वे बाबा नागार्जुन की तरह अपराजेय थे।उनमें खरी-खरी कहने की जो साहस भरी जीवटता थी वह आज के मनीषियों में कम दिखाई देती है।उनमें समय से संघर्ष करने का जो हौसला था वह आज के लिए एक नवीन पाथेय सा है।इस लिए ही उन्हें समय बोध का पितामह कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए क्योंकि उन्होंने थकान को कभी-भी गले नहीं लगाया।

दादा की पहिचान,उनके साहित्य की ही पहिचान है।वे अन्य उपादानों से इतने परिचित नहीं हुए,जितने साहित्य साधना से।

उनके सभी सहचर्य उनकी ही झलक लिए,आज के परिवेश को सरसब्ज कर रहे है।दादा का वह प्रेम वात्सल्य तथा बुन्देली भाषा युक्त वाणी सभी कुछ साहित्य की अपराजेय धरोहर है।इसे संभालकर रखने का उत्तरदायित्व हम सभी का है,क्योंकि हम सभी उनके साहित्य भण्डार के उत्तराधिकारी है।उन्हें लोग विभिन्न आईनों से देखते होगे किन्तु वे सभी को एक ही आईनें से देखते थे। सम्मानों की दृष्टि में वे बहुत ही आगे थे।

मुकुट बिहारी सरोज स्मृति समारोह समिति ग्वालियर ने सन् 2004 में दादा को जन कवि सम्मान से सम्मानित किया गया था जो उनकी बास्तविक साहित्य पहिचान का मूलाधार है।

आज भी दादा का अभाव साहित्य जगत को पल-पल पर खटकता है पर विश्वास करना होगा कि वे इस अभाव के क्षण में हमारे पास वैसे ही होते होगे जैसे चमन में खुशबू की सानिध्यता।हम उन्हें भूलकर भी कभी भूल नहीं सकते क्योंकि 24 जून यादों से भरा है हमारे ज्ञान प्राण में।इन्हीं भावों के साथ समर्पित है यह भावांजली।

गायत्री शक्ति पीठ रोड़

गुप्ता पुरा डबरा ग्वा.