आधुनिक हिन्दी साहित्य की उत्कृष्ट कहानियॉं-समीक्षा बेदराम प्रजापति "मनमस्त" द्वारा पुस्तक समीक्षाएं में हिंदी पीडीएफ

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आधुनिक हिन्दी साहित्य की उत्कृष्ट कहानियॉं-समीक्षा

”आधुनिक हिन्दी साहित्य की उत्कृष्ट कहानियॉं“आचार्य रत्नलाल
‘विद्यानुग स्मृति अखिल भारतीय कहानी प्रतियोगिता के अन्तर्गत
”शब्दनिष्ठा सम्मान“ संपादक श्री डॉ. अखिलेश पालरिया


‘‘पाटक चिंतन-एक झरोखे से’’ वेदराम प्रजापति ‘मनमस्त’
समीक्षात्मक पहल
डॉ. संदीप अवस्थी जी की भूमिका में -‘‘जीवन की धड़कने सुनाती कहानियॉं’’-सच के दरवाजो को खोलती है इस सोच के साथ कि- ‘‘यह विद्या कोई (गॉड गिफ्ट) भगवान की देन नहीं है अपितु साहित्य लेखन, सघन साधना, समर्पण स्वाध्याय की देन है।’’ साथ ही पुरस्कृत कहानीकार याद रखेंगे कि ‘आसमां से आगे जहॉं और भी है। अभी इसके इम्तिहान और भी हैं।’ इस तरह डॉ. जी की भूमिका ने क्या नहीं कह दिया है? डॉ. नरेन्द्र शर्मा कुसुम जी ने निर्णायक की कलम से-‘जिंदगी का तर्जुमा होती है कहानियॉं’- में कहानी के धरातल को नए सुहाग से बहुत खूबसंवारा हैं। आपके चिंतन में-कहानियॉं अपने विविधरुपों में हमारी जिन्दगी में रची-वसी रहती है। आपका मानना है कि अन्य सृजन विधाओं की तरह कहानी सृजन भी सर्जक के सृजन के प्रति अटूट समर्पण भावना की अपेक्षा रखता हैं। कहानी लेखन के क्षेत्र में महिलाओं का योगदान भी कम नहीं है-यह चिंतन समग्रता को दर्शाता है। डॉ.सुदेश बत्रा जी भी- निर्णायक की कलम से-कहानी लेखन एक सॉंस्कृतिक प्रक्रिया के माध्यम से बहुत कुछ कहते दिखे। आपका चिंतन है कि जीवन्त कहानी वह है जिसमें देश की मिट्टी की महक, संस्कृति की प्राणवत्ता, लोगो के सुख-दुख की मार्मिकता, तनाव, अन्तर्द्वन्द, इच्छाओं तथा संघर्षा को चित्रित करने का प्रयत्न किया गया हो। इस सब के बाद ही कहानी यथार्थ के कड़वे सच को उजागर कर सकती है। अन्ततः डॉ. अखिलेश पालरिया जी की सम्पादकीय कहानीयों के सच को भलीभॉंत परोसती हैं। एक झरोखे से पाठक चिंतन का अपना नजरिया यही है।

कहानी-‘‘अपने पराए’’- डॉ. अखलेश पालरिया जी-विगतांक की धरोहर कहानी-‘अपने पराये’ प्रज्ञा और प्रवीण की मर्मान्तक वेदना का बड़ा ही सुनियोजित चिंतन दिया गया हैं। आज के परिवेश में मानव कितना स्वार्थपरक हो गया है तथा सामाजिक संबन्ध भी कितने विरल हो गए है, इस रहस्य को यह कहानी आज के जीवन दृश्यांे के साथ भली भॉंति उजागर करती है। स्वार्थी भावना ने सामाजिक जीवन को ध्वस्त कर दिया है, ऐसा कहती है यह कहानी। प्रज्ञा और प्रवीण इस व्यथा के भुक्त भोगी गबाह है। वर्तमान के भयावह परिवेश में कहानी सचेतक का कार्य करती हैं। कहानी में पत्नी प्रज्ञा को प्रवीण भली भॉंती समझाता हैं कि इस मकान को अपने जीतेजी, लड़कों के नाम न करना क्योंकि उपहार में कार देने से ही हमें सीख ले लेनी चाहिए। ये लड़के अब अपने नहीं हैं, पराए हो गए है। जमाना पैसे का स्वार्थी हो गया हैं। कहानी में मॉं बाप के स्वपनों के सारे के सारे महल ढहते दिखे है। प्रज्ञा के पति के देहांत के बाद-प्रज्ञा का अंतिम निर्णय हड़बड़ी में लिया गया सा लगा। जहॉं वह लडकों के बंद कमरों को नव्या और नवीन को सौंप देती हैं। जबकि कुछ समय नए लोगों के व्यवहार का ऑंकलन करना चाहिए था। आज के लोग विचित्र हैं, आज कुछ तो कल कुछ और हो जातें है। इसलिए देख-परख कर ही जीवन की बागडोर, नए सारथी को सौंपना चाहिए। कहानी यह और भी विस्तार का चिंतन दे सकती थी, फिर भी कहानी अपने उद्देश्य मे सफल रही हैं। इस अनूठी पहल के लिए श्री पालरिया जी बधाई के कुशल हस्ताक्षर हैं।

कहानी-मुस्कान की करवटें- श्री राकेश महेश्वरी काल्पनिक जी-यह कहानी मानव जीवन की भयावह परिस्थिति को परोसती है। काल्पनिक जी ने इस कहानी मे़ं मुस्कान की करवटें खूब जी भर के उड़ेली है। चिंतन की धारा दोनों किनारों को समेंटकर चली है। सुखिया के जीवन की दर्दीली दहलीज पर बैठकर डॉ. प्रमिला ने अपने जीवन की अनूठे रहस्य लिए कहानी कही है। यह सब काल्पनिक जी के अनूठे चिंतन की धरोहर है। जीवन की सार्थकता परोपकार में ही निहित है, जिसका चुकता हिसाब डॉ. प्रमिला ने सुखिया जी की दोनों बेटियों को डॉक्टर बनाकर किया है। क्योंकि उसका (प्रमिला) जीवन कचरे के ढेर से चलकर, डॉ. मेहता की हमदर्दी के पालने में झूलते हुए बड़ा बना तथा डॉ. बनने तक की जिंदगी का एहसान लिए चला।
मुस्कान की करवटें कहानी दो टूटे परिवार और बिखरे जीवन की मर्मान्तक पीड़ा लिए चली है। जिसमें सुखिया का, दो बेटी होने के बाद, परिवार नियोजन और ऑपरेसन का चिंतन अनूठा रहा। जिसे अंधविश्वासी और रूढ़ीवादी समाज नहीं पचा पाया। सुखिया को पति तथा सास की अनेक तबाही झेलनी पड़ी। इसी कारण सुखिया को पीट-पीट कर घर से निकाल दिया जाता है। इस दर्दीली राह में डॉ. प्रमिला के संवेदनशील हृदय का सुखिया को संबल और प्यार मिलता है। कहानी तराजू के दो पलड़ो में तुलती हुई चलती है। पहला पलड़ा सुखिया है तो दूसरा डॉ. प्रमिला। कहानी का अंतिम दृश्य, बहुत ऊंॅचाई पाता है जहॉ सुखिया की दोनों बेटियों का विवाह डॉ. प्रमिला के मार्गदर्शन में डॉ. मेहता (प्रमिला के धर्म पिता) के दोनों नातियों से होता है साथ ही सुखिया के पिता और पति कन्यादान देते है। जीवन के सारे दर्द तिरोहित होते दिखे। दोनों के परिवार का मिलन बड़ा ही रहस्यमय रहा। कहानी सुखान्त होकर मुस्कान की करवटें ले गई।
यदि कहानी के अंतिम क्षणों में डॉ.प्रमिला के अधूरे जीवन यानि अर्द्ध क्वांरी, अर्द्ध ब्याही तथा अर्द्ध विधवा को, डॉ. मेहता के कर कमलों से सधवा बना दिया जाता तो बड़ा ही सुन्दर समन्वय होता-यहॉ कहानी और भी विस्तार पा सकती थी। यह त्रिवेणी संगम होने से कहानी, सोने में सोहागा होती। फिर भी कहानी ने खूब ही मुस्कान की करवटें ली है जो राकेश माहेश्वरी ‘काल्पनिक’ जी की गहन उड़ानों का नवीन संसार है। कहानी का ताना बाना, भाषा की सरलता तथा शब्दों की तार्किक पहल कहानी की धरती को खूब सरसब्ज बनाती है पाठको को आनन्दित करती है। अनेकशः बधाइयों के साथ धन्यवाद!

कहानी-अपने-अपने सर्ग-श्री अशोक कुमार प्रजापति जी- श्री प्रजापति जी के अद्वितीय सपनो का संसार यह कहानी परोसती सी लगी। गहन चिंतन के चितेरे प्रजापति जी-लगा कहानी जगत के विस्तृत आकाश में दैदीप्यमान सितारे की भांति प्रकाशमान है। इनकी कहानी ‘अपने-अपने सर्ग’ की अबनी बड़ी ही सॅंजीली सी लगी। कहानी ब्रह्य एवं आन्तरिक पर्यावरण की गहरी खोजों के साथ, मानवता की मार्मिक पहल को उजागर करती है। कहानी में भावों की सम्प्रेष्णीयता अधिक गहराई लिए चली है, जो लेखक को गहरीं-अंधेरीं सुरंगों में भी प्रकाश स्तम्भ दिखाती है। कहानी, उत्तराखण्ड की मानव त्रासदी की जीती जागती धरोहर है। जहॉ दीपेन और गार्गी का रहस्यमय सात्विक मिलन, अनेकों नये आयाम देता है। उस बर्फीली पहाड़ी त्रासदी में, दोनों का अपना-अपना साहस अकल्पनीय रहा। जहॉ दीपेन थकता दिखा-गार्गी के उत्साह ने नयी दिशा दी तथा जहॉ गार्गी के कदम लड़खड़ाए-दीपेन की संजीदगी ने नया सोपान खोला। कितने भीषण-भयापह संसार में-दोनों ही अबुझ दीप की तरह चमकते रहे। जहॉं जीवन की कल्पना ही नहीं की जा सकती, बहॉं दोनों ही नायक संजीदगी के साथ सजीव से दिखे। यह है कहानीकार की अपनी विशेषता। खिसकते हिमखण्डों में, स्वर्ग छूने वाली पहाड़ी की ऊॅंचाई की गोद में, पिघलते बर्फ के झरनों की धार में भी जो नहीं डिगे-ऐसे पात्रों को पाकर कहानी धन्य हो गई। यह है कहानी की अपनी अनूठी धरोहर। लगता है श्री प्रजापति जी की अनूठी कल्पना-साकार रुप में किसी उतुंग शिखर पर बैठ कर, यह सारा दृश्य देखती रही है-जिसे कलम की धार दी हैं श्री प्रजापति जी ने। यह प्रेम कहानी न होकर, मानवता के जीवंत दो ध््राुवों की संजीली धरती है। कहानी का उपसंहार-स्वर्गोपमम् होता है जहॉं गार्गी की अस्थियॉं दीपेन द्वारा प्रवाहित की जाती है। लगा दोनो ही अपने-अपने स्वर्ग पा गये मन्द-मन्द हास के साथ। काश! दीपेन और गार्गी का सूत्र बन्धन मिलन होकर यह श्रृद्धांजली होती तो कहानी का एक अध्याय और होता। फिर भी कहानी की अपनी अनूठी गरिमा है। इतनी गहरी सोच के लिए प्रजापति जी वास्तविक रुप से वन्दनीय और अभिनंदनीय रहेंगें। धन्यवाद!

कहानी-हिरणी- श्री रतन कुमार सामरिया जी- मानवता की गीली धरती पर, अपने अमिट पद चिन्ह छोडती है कहानी ‘हिरणी’। इतने हिंसक जीवों के हृदय में, संवेदना का निर्झर वहाना, बडी गहरी सोच का सोपान है। लच्छी नाथ जैसा शिकार भोगी, के हृदय में छुपे संवेदना और अहिंसा के शूक्ष्म भावों का प्रेक्षण से कहानी अनूठी धरोहर है। प्यार के अंकुरण से दशा और दिशा बदलना-कहानी की गहरी पकड़ हैं। जो पहिचान बनती है मानवता की। हिरणी-शावक का मर्णान्त-भाव, उसके अन्तिम क्षणों को देख कर तरसती हिरणी की दशा, उस दशा को परखने का लच्क्षीनाथ के कोमल हृदय का भाव-सबकुछ कह जाता है कहानी कार के गहन चिंतन को जो विलक्षणता की नवीन पहेली-सा है। कहानी में मृगशावक की वेदना, हिरणी की घात में तकते भेड़िये, शिकारी कुत्ते का दायित्व निर्वहन तथा लच्छीनाथ के हृदय परिवर्तन की नूतन परख ही कहानी को सार्थकता प्रदान करती है। कहानी कार के संजीले हृदय की परतों से निकला मार्मिक चित्रण कहानी में चार चॉंद लगाता है। यदि कहानी के पात्रों को और भी गहराई से तथा विस्तार से परोसा जाता तो और कुछ नए चिंतन भी उभरकर आ सकते थे जो कहानी की दशा और दिशा को नया अलोक दे सकते थे। फिर भी कहानी का भावनात्मक पक्ष-कलापक्ष की अपेक्षा अधिक प्रभावी रहा है, जिसके के लिए कहानीकार श्री सामरिया जी स्नेहल धन्यवाद के हकदार है।

कहानी-अमृत वृद्धाश्रम- श्री विजय कुमार सम्पत्ति जी- श्री विजय कुमार सम्पत्ति जी ने-मानव की जीवन यात्रा के विभिन्न पहलुओं के आधार पर ‘‘अमृत वृद्धाश्रम’’ कहानी की साकार कल्पना की हैं। ऐसे आश्रमों का जीवन दुनिया की ऊहा-पोह जिन्दगी से हट कर चलता दिखाया है। इस आश्रम मे जीवन के सुखद क्षणो की सुन्दर कल्पना की गई हैं। यहॉं का जीवन सच्चे भाईचारे के साथ चलता दिखाया है जो अद्भुत कल्पना ही है। इस आश्रम में आकर लोग विगत दुखों को भूलकर, सच्चा सुखद जीवन जीते है। कहानी के पात्र सार्थक नाम करण के लिए धन्य है। इस आश्रम में पहुॅंच कर उपेक्षित जीवन को अपेक्षित स्थान मिला है।
आज के इस भौतिकवादी युग में, वृद्धों की जो दुर्दशा हो रही है तथा युवाओं की संवेदन हीनता का संवेत स्वर इस कहानी से संजीदगी लिए निकलता है। कहानी के पात्रों में पारिवारिक स्नेह और प्यार का सही सरुप यहॉं मिलता दिखा। इस तरह के आश्रमों की आवश्यकता, आज का परिवेश चाह रहा है। वृद्धों का सर्वेक्षण ही इसकी कसौटी है। आज के वृद्ध-जीवन-दर्शन को यह कहानी भली भॉंति परोसती हैं। इस अजीव चिंतन की पहल के लिए श्री सम्पत्ति जी की धारदार कलम, वंदनीय और अभिनंदनीय होकर, कलमकार को अभिनंदित करती है।

कहानी-सहर होगी,किसी स्याह रात के बाद- वंदनादेव शुक्ल जी- वंदनादेव शुक्ल जी की यह कहानी- बहुत कुछ कहती है। यानी सबकुछ कह देने के बाद भी, छोड जाती है बहुत कुछ अनकहा-गहरा चिंतन सोचने के लिए। वर्ततान परिवेश के इस आड़म्बर-पूर्ण समय में-लोग कितने और किस तरह से भयभीत है- कहानी का अनूठा दर्शन है। कहानी की जीवन कथा हिना की डायरी से प्रारम्भ होकर-डायरी के अंतिम पृष्ठ पर समाप्त होती है-नए जीवन संघर्ष के साथ। डायरी से कहानी का उद्भव और विकास-कहानीकार की अनूठी विद्या है। मीडिया या अखबार- नवीसी कितने नाजुक दौर से गुजर रही हैं-कहानी का मूल स्वर है। दरिन्दों की दुनियॉं का खौफ, जीवन की राहों को कितना संकीर्ण बना रहा है-हिना की इस दर्दीली दास्तान सबकुछ कहती दिखी। सच्चाई और निर्भीकता से चलने का जीवन कितना भयावह और जोखिम भरा है। लोग पनाह देने में भी कितने असमंजसों से गुजरते लगे जो कहानी बे-बाक वयां करती है। हिना और आसिफ की निश्छल प्यार भरी जिंदगी भी कितनी कंटकाकीर्ण लगी-कहानी की अपनी धरती है। कहानी हौसला अफजाई के नए रास्ते तैयार करती दिखी। हिना के साहसी कदमों का अभिनंदन ही कहानी का मूल सार हैं। पुरुषों की अपेक्षा नारी जागरण का भी शंखनाद है। नारी का समय सापेक्ष होना-कहानी की धार है। इस प्रखर धार के लिए कहानीकार वंदनादेव शुक्ल जी की कलम अभिनंदनीय हैं। धन्यवाद!
कहानी-‘पिघलते हिमखण्ड’- श्री हरदान हर्ष जी - श्री हरदान हर्ष जी की कहानी- पिघलते हिमखण्ड जीवन के संघर्षो से जूझते हुए मानव की कहानी है। इसमें एक सत्तर वर्षीय वृद्ध के दर्दों का शब्द चित्रांकन किया गया है। जो भाव कभी-कभी शब्द भी नहीं दे पाते है-उससे कहीं एक चित्रकार भली भॉंति चित्र में उकेर सकता है। क्योंकि कलाकार में दृष्टि और संवेदनाएॅं दोनो ही होती हैं। इस लिए कलाकार की कला सभी कुछ कहने में सक्षम है। यह कहानी भी एक चित्रकार के चित्र से प्रारम्भ होकर मानव के सामाजिक जीवन की विडम्बना लिए चलती है। कहानी का क्षेत्र जीवन की दर्दीली राहों के साथ मानव का पीछा नहीं छोड़ता है। जबकि कहानी का वृद्धपात्र अपने साहसी हौसले से समस्याओं को भलीभॉंति हल करता दिखा हैं। इस तरह कहानी अनेक मोडों पर गहन चिंतन लिए, दिशा निर्देश करती दिखी है। कहानी में जिंदगी के कंटकाकीर्ण गलियारों को याद करने का साहस दिखाया गया है। जिंदगी का यही तो सारभूत तथ्य है। इस प्रकार कहानी जीवन जीने की सफल योजना देती है। वृद्धावस्था में मानव,पारिवरिक गलियारों के परिवारजनों के असहयोग से, अन्दर में इतना दुखी हो जाता है कि उसका अदम्य साहस भी हिमखण्डों की तरह पिघल जाता है। फिर भी यह सबकुछ सहन करते हुए-उसे जीवन जीने की कला यह कहानी देती है। जिसके लिए कहानीकार श्री हरदान हर्ष जी अभिनंदनीय हस्ताक्षर है।
कहानी-जोहरा आपा- कीर्ति शर्मा जी- यह कहानी एक सब्जी के ठेले से चलकर मानवीय धरातल के उच्च शिखर तक जाती है, जहॉं एक सब्जी बेचने वाली के अन्दर बैठी मानवता वंदनीय बन जाती है। जोहरा आपा एक सब्जी बेचने वाली होकर भी प्यार और स्नेह की अनूठी पहिचान बनाती है। वह अपने व्यवहार और मानवीय सौंदर्य से अनेक लोगो के साथ एक छोटी बालिका को भी अपना बना लेती है। उसके अन्दर जलने वाला, पति के द्वारा तलाक देने की भीषण ज्वाला का ताप कोई भी नहीं जान सका, उसके प्यार भरे स्नेह की शीतलता के आगे। वह सब्जी बेचने के साथ प्यार और स्नेह की सौदागिर भी थी। तलाक के बाद उसे सोहर से कोई प्यार नहीं मिला-जिससे वह अन्दर इतनी टूट गई थी कि जीवन का अंतिम अध्याय खोलकर, सबको नया पाठ सिखा गई। कहानी में सौहरा आपा की दर्दीली जिंदगी, प्यार के इंतजार में तड़पते हुए चली गई। यह कहानी-इस तरह के अनेकों जिंदगियों की अनकही कहानी कहती हैं इसके लिए कहानीकार के अनूठे चिंतन के लिए धन्यवाद जाता है।

कहानी-अप्रासंगिक- डॉ.प्रेमकुमारी नाहटा जी- डॉ. प्रेमकुमारी नाहटा जी- मानवीय चिंतन की गहन पारखी हैं, आपकी चिंतन भरी धरती संवेदनाओं की फसलें उगाती दिखी है। इस कहानी में आज के भौतिकवादी समय में परिवारों की परिधि में जो क्रूर परिवर्तन आए है, उनका अच्छा खासा चित्रण किया है। भारतीय संस्कृति के परिप्रेक्ष्य में-जो बुजुर्गो के साथ हटकर व्यवहार हो रहा है उस पर अच्छा खासा व्यंग्य यह कहानी परोसती है। वातावरण कितना बदल गया है कि परिवार के लोगो को टी.बी. आदि देखने से बिल्कुल फुरसत नहीं है। माता-पिता तथा अन्य बुजुर्ग भार स्वरुप लगने लगे है। किसी भी कार्य में सलाह लेना भी नामुमकिन है। अपने इस तरह के कामकाजी समय में बुजुर्गों को अप्रासंगिक सा समझ लिया है। उनसे अक्सर कह दिया जाता है कि आप चुप रहिए, आपका जमाना बीत गया है। आप घर के मात्र भार स्वरुप शोभा हैं। कभी-कभी तो इतना भी कह दिया जाता है कि बूढा खाय-गॉंठ का जाय। इस तरह वृद्धजन-अपना जीवन संकटग्रस्त होकर जी रहे है। संस्कार विहीन समाज की दिशा क्या होगी इस ओर भी इसारा कहानी देती है। क्योंकि विदेशी मेहमानों से साफ कहलवाया है कि जिस घर में बुजुर्गो का सम्मान नहीं,, वहॉं संस्कारवान संतति का होना असम्भव हैं। संस्कारवान जीवन ही सच्चा जीवन है। इस प्रकार कहानी की अपनी पहल सार्थक होकर समय सापेक्ष है। कहानीकार श्रीनाहटा जी को अनेकशः बधाइयॉं।

कहानी-लडखडाते कदम डॉ. अमिता दुबे- इस कहानी का अपना पैगाम एक नया अध्याय खोलता है, जिसमें सरदार बलवंत सिंह ओर पत्नी रुमाल कौर एक पुत्री की चाह में दो पुत्र तक पैदा करती है, फिर भी अप्रत्यासित बेटी सुखमणि की चाह अधुरी ही रह जाती है। दो पुत्र और दो बहुएॅं होते हुए भी-सरदार जी अपनी ढपली-अपना राग वाली कहावत ही चरितार्थ करते दिखे। क्योंकि पुत्र से राशि नहीं बैठती और उधर छोटी बहू से। इसलिए वे दोनो घरों से दूर एक ढावा खोलते है सुखमणि की स्मृति में सुखमणि नाम से।पैंसन के साथ ढावा की आमदनी से सुखमय जीवन जीते है। एक गरीब घर की विद्यार्थी बालिका रोज खाना खाने आती है, उससे दोनो को प्यार हो जाता है। वे उसे सुखमणि पुत्रीवत मान लेते है। अनजाने में किसी बालक से प्यार के कारण उसे गर्भ रहा जाता है इससे वह फॉंसी लगाकर मर जाती है। जब सरदार को पता चलता है तो दुखी होते है। कहानी इंतजारी जीवन की दास्तान बनती है। सरदार जी स्वावलम्बी जीवन जीते है। कहानी स्वावलम्बी जीवन की धरोहर है। जीवन की राहे सुखमय उन्हीं की होती हैं जो स्वंय की राहें बना कर चलते है। इस नवीन पहल को यह कहानी परोसती है। लडखडाते कदम भी नए भोर की आशा लिए चलते है। कहानी का बहाव मंथर गति से चला जबकि तेज धार होना थी कहानी की। फिर भी कहानी अपना संदेशा छोडती है। कहानीकार अभिनंदनीय है।

कहानी-पूरी लिखी जा चुकी कविता- डॅंा.राजेन्द्र श्रीवास्तव जी- कहानी जीवन की राहें दर्शाती है-गहरे जख्मों को उजागर करके। इस कहानी में पतिद्वारा पत्नी की नौकरी छुडाकर भी अपनी सुखी जिंदगी के लिए और कुछ करने की सलाह देता है। इस त्रासदी भरी जिंदगी से तंग आकर-मॉं के साथ कहीं दूर जाकर, बैंक की नौकरी कर लेती है। नन्ही बेटी को भी विषम परिस्थितियों में पालती हैं अपने समय को कविता लिख कर सुखमय बनाने का उसका प्रयास रहता है। कविता की डायरी खो जाती है जो किसी कहानीकार के हाथों पडती है। वह उस डायरी को पढता है तथा बैंक जाकर डायरी दे आता है। डायरी प्राप्त कर वह बहुत प्रसन्न हो जाती है। उसके जीवन की बहुमूल्य धरोहर वह उायरी बन जाती है। उस डायरी से जीवन के तमाम अनछुए प्रश्न उभरकर सामने आते है। डायरी द्वारा कहानी लेखन की नई टेक्नीज कहानीकार की अनूटी पहल है। इसके लिए कहानीकार धन्यवाद के कुशल हस्ताक्षर है। किन्तु डायरी देने के बाद कहानीकार का इस तरह पलायन करना-कहानी के सही धरातल को उजागर नहीं कर सका। कहानी भटकती सी लगी। फिर भी कहानी धन्यवाद की ओर अपने कदम बढा़ती है।

कहानी- धुॅंधली यादें और सिसकते जख्म-श्री निसार अहमद जी- श्री निसार अहमद जी -वे अपनी इस कहानी में दर्द को उकेरते है जिसे पीकर अम्मी और अधिक कराहती है। बचपन में जो बच्चा-अब्बा की हरकतें देखकर पिता से नफरत करता था और अम्मी को कहता है मैं बडा होकर तुम्हारी सेवा करुॅंगा। वही जब बडा हो जाता है और पत्नी वाला बन जाता है तब उसकी दशा और दिशा दोनो ही बदल जाती है पत्नाी सबकुछ हो जाती है-मॉं को छोडकर। मॉं बाप (अम्मी और अब्बा) को विसरा देता है। उनके जीवन दर्दों को नहीं जानता है। पत्नी के अनुसार खूब सैर सपाटे करता है-अम्मी-अब्बा को भूल कर। अम्मी-अब्बा फॉंके का समय देखते है उधर शैर सपाटा है, तो इधर अम्मी को एक सलवार भी नसीब नहीं है। कहानी आज के परिवेश को उजागर करती है। मॉं-बाप की विडम्वना भरी जिंदगी का आईना पेश करती है, साथ ही इस बदलते घटनाक्रम पर चिंतन हेतु बुद्धिजीवियों से कुछ मॉंग भी करती है। पुरानीयादों को ताजा करती है कहानी, सेवाधर्म के दायित्व पर भी चिंतन परोसती है। परवेश के बदलाव का दस्तावेज है कहानी। जमाना सही दायित्व से क्यो मुकर रहा रहा है इस का भी दिशानिर्देश है कहानी। इस अनूठी पहल के लिए कहानीकार अभिनंदनीय है।

इस प्रकार उत्कृष्ट कहानीयों का यह संग्रह मानव जीवन के अनेकों अन्तर द्वन्दों को पाठक के सामने रखता है। कहानी की प्रभाविकता इस बात पर भी निर्भर रहती है कि उसमें कहानीकार की कितनी कल्पना शक्ति है। शब्द शक्ति का कितना विस्तार है तथा तर्कशक्ति में कितनी ऊॅंचाई और गहराई है। उपरोक्त सभी कहानियांॅ टूटते परिवार, मध्यमवर्गीय जीवन में निहित स्वार्थपरता एंव अंह के टकराव से विखरती जिंदगी की अन्तर्वर्ती करुणा को अभिव्यक्त करती दिखी है। कहानी संग्रह का अपना उच्च स्थान पाना भी इस बात पर निर्भर होता है कि उसका सहयोग और संरक्षण कितने मूर्घन्य साहित्य मनीषियों के कर कमलों ने कितनी सशक्तता से सवांरा है। कहानी का यह संसार अवश्य ही साहित्य जगत की अनूठी धरोहर होकर, नए सृजन का पथ प्रदर्शक बनेगा। इन्ही शुभकामनाओं के साथ कहानी सरोवर के सभी विकसित अम्बुजों का हार्दिक अभिनंदन, धन्यवाद!

सभी कौ मंगलेच्छु
वेदराम प्रजापति‘मनमस्त’
गायत्री शक्ति पीठ रोड गुप्ता पुरा
डबरा, जिला ग्वालियर म.प्र.
पिनकोड 475110
मों. 9981284867