Maar Kha Roi Nahi Nahi - (Part Fourteen) books and stories free download online pdf in Hindi

मार खा रोई नहीं - (भाग चौदह)

हर स्कूल के अपने प्लस माईनस होते हैं ।मेरे इस स्कूल के भी रहे।विशाल ,भव्य और खूबसूरत यह स्कूल मेरे अब तक के स्कूलों में सर्वोत्तम था।ज़िन्दगी के सोलह वर्ष इसमें कैसे गुज़र गए पता ही नहीं चला।इससे अलग हुए अभी एक माह भी नहीं गुजरा कि ऐसा लग रहा है कि जिन्दगी थम -सी गयी है,सरकती ही नहीं।लोग दूसरा स्कूल ज्वाइन करने की सलाह दे रहे हैं,पर मन नहीं मानता।फिर नए सिरे से नए स्कूल को झेलना कठिन लग रहा है। दूसरा कोई काम कर भी नहीं सकती।व्यापारिक बुद्धि है नहीं कि कोई व्यापार करूँ।लिखना- पढ़ना आता है।साहित्य से जुड़ी हूँ ।कई किताबें छप चुकी हैं पर प्रकाशक रॉयल्टी खुद खा जाते हैं ।अपनी ही किताब को पैसे देकर खरीदना पड़ता है।पाठक खरीदकर नहीं लेखक से मुफ़्त में किताबें लेकर पढ़ना चाहते हैं ।अपने किताबों की मार्केटिंग करने नहीं आती।चतुर- चालाक लोगों से भरी इस दुनिया में मुझ जैसे सीधे -सच्चे लोग कहाँ जाएं?
रिश्ते- नातेदार भी स्वार्थ के वशीभूत होकर ही साथ देते हैं और मुझसे भला किसी का क्या स्वार्थ सिद्ध होगा?जिंदगी भर की कमाई से एक छोटा- सा घर बना पाई हूँ।सबकी नज़र इस पर है कि मेरे बाद कौन उसका उत्तराधिकारी होगा?किसी को यह चिंता नहीं कि अभी तो जाने कितनी बड़ी जिंदगी पड़ी है,गुजारा कैसे होगा? सभी को लगता है अकेले कमाया -खाया है तो काफी बैंक -बैलेंस होगा।इसका उत्तर तो प्राइवेट स्कूल का कोई टीचर ही दे सकता है कि ईमानदार कमाई से वह कितना अमीर हुआ है।
सारी उलझनों से मुक्ति का उपाय था स्कूल ,जो आर्थिक सुरक्षा तो देता ही था,अन्य सारी सुरक्षाएँ भी उसी के कारण मिल जाती थीं ।अभी कुछ वर्ष आराम से वहाँ काम कर सकती थी,पर स्कूल प्रशासन ने मेरी स्थिति पर विचार किए बिना मुझे मुक्त कर दिया ।मैं कुछ कह न सकूँ इसलिए साथ में मेरी हमउम्र कई अन्य टीचरों को भी मुक्त कर दिया गया।उनके धर्म के टीचर भी उसमें शामिल थे ,पर सभी मेरे ही क्षेत्र के थे,उनके क्षेत्र के नहीं ।
हो सकता है यही उनकी संस्था का निर्णय हो।हो सकता है इसमें कोई भेदभाव न किया गया हो।हो सकता है प्रधानाचार्य भी मजबूर हों।हो सकता है सारे प्राइवेट स्कूलों का यही हाल हो।हो सकता है कोविड 19 के कारण ही यह कहर बरपा हो।
पर यह अन्यायपूर्ण तो है ही कि जीवन भर सेवा करने वाले को उम्र ढलते ही खाली हाथ सड़क पर खड़ा कर दिया जाए कि बाकी का रास्ता अकेले तय करो।हमें तुम्हारे भविष्य के बारे में सोचने की जरूरत नहीं ।विद्यालय को अच्छा परिवार कैसे मानें ,जब वह भी अपने बड़े -बुजुर्गों को परिवार से अलग कर देता है।
यह कैसा मानवीय धर्म है जो दूधारू पशुओं की तो पूजा करता है,पर उसके बांझ और बूढ़े होते ही सड़क पर लावारिस छोड़ देता है?किस दया,त्याग और मानवता की बात करते हैं वे लोग,जो कि मानवीय गुणों से शून्य हैं।ऐसी शिक्षण संस्थाओं से किस तरह की शिक्षा ग्रहण करेंगे बच्चे?अपने भविष्य के लिए चिंतित अध्यापक बच्चों में किस तरह के मानवीय गुण विकसित कर पाएँगे !
क्या सरकार को ऐसी शिक्षण-संस्थाओं पर लगाम नहीं कसनी चाहिए,जिनका उद्देश्य शिक्षा देना कम पैसे कमाना अधिक हो।जो अपने अध्यापकों को न तो सरकारी वेतन देते हैं ,न पेंशन ,न स्वीकृत ग्रेज्यूटी।जब चाहे टीचर को निकाल देते हैं ।
अनेक प्रश्न है ,जिसका उत्तर ढूंढना शेष है।

मुझे अपनी खोई हुई शक्तियों को एकत्र करके फिर से संघर्ष क्षेत्र में उतरना ही होगा।एक माह हो गए विद्यालय से मुक्त हुए और अपने घर में ही अवसाद ग्रस्त- सी डोल रही हूँ।बहुत जरूरी होने पर ही बाहर निकलती हूँ।कहीं आने -जाने किसी से मिलने -जुलने का भी मन नहीं होता।जहाँ जाओ वहीं रिटायरमेंट की चर्चा और तमाम नसीहतें-अभी तो आप यंग हैं कोई और स्कूल ज्वाइन कर लीजिए। घर में ही कोचिंग खोल लीजिए ।कोई बिजनेस कोई दूकान....उफ़ ,मन घबरा जाता है।अब इन चीजों में मेरी कोई रूचि नहीं ।मैं शांति से बैठकर लिखना -पढ़ना चाहती हूं।खूब घूमना चाहती हूं।अलग -अलग क्षेत्रों के लोगों से मिलना चाहती हूं।अब सुबह से शाम तक कोल्हू के बैल की तरह काम में जुटे रहना मेरे बस की बात नहीं ।पर अपनी मर्जी से जीने के लिए पैसा तो चाहिए ही।दो- चार दिन तो कोई रोटी खिला देगा, पर पता नहीं उम्र अभी कितनी बड़ी है ।खुद के और घर के मेंटनेंस के लिए भी तो पैसा चाहिए।बिजली ,पानी,मोबाइल,टाटा स्काई ,ब्लडप्रेशर की नियमित दवाई तो जरूरी खर्चे हैं।कहीं भी आने -जाने पर भी तो खर्च होता ही है।यानि बिना किसी आय के व्यय की स्थिति आ गयी है।पेंशन मिलती तो कमोवेश काम चल जाता। थोड़ी बहुत जो सेविंग है कितने दिन चलेगी?
यह है पी एच डी की हुई,योग्य,ईमानदार ,प्राइवेट स्कूल की रिटायर हुई शिक्षिका की चिंता।जो उम्र की सांध्यबेला में चैन से जीने के लिए चिंतित है।
यह है शिक्षा विभाग..की असलियत!.....यह है वह देश,जहाँ गुरू को गोविंद कहा जाता है।

(यह सिर्फ एक शिक्षिका की डायरी नहीं है यह उन तमाम शिक्षिकाओं की डायरी है जो शिक्षा विभाग की राजनीति की शिकार हुई हैं।लिखने को बहुत कुछ शेष है बाकी फिर कभी किसी अन्य धारावाहिक उपन्यास में।)


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