मार खा रोई नहीं - (भाग छह) Ranjana Jaiswal द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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मार खा रोई नहीं - (भाग छह)

सोचा न था ऐसा भी दिन आएगा
मेरा साया भी मुझसे जुदा हो जाएगा।
सचमुच उम्र के इस पड़ाव पर आकर ऐसा ही लगता है।दुनिया की छोड़ो अपनी देह भी तो अपना साथ नहीं देती।कभी सिर दुखता है कभी पैर।कभी सर्दी ,कभी बुखार ।तनाव तो हमेशा बना ही रहता है।कभी नींद नहीं आती, तो कभी सूरज चढ़ने तक सोती ही रहती हूँ।कभी भी खुद को पूर्ण रूप से स्वस्थ महसूस नहीं करती।जब तक नौकरी थी ,एक नियमितता थी।कष्ट होने पर भी काम करते रहने की मजबूरी थी,पर अब तो उससे भी मुक्त हो गयी।अब नए सिरे से नौकरी ढूँढने की हिम्मत नहीं।फिर से वही मुँह-अन्धेरे उठना, घर का काम निपटाना, भागे -भागे स्कूल जाना!स्कूल की अपनी परेशानियाँ!कभी बच्चों की बदतमीजियाँ ,कभी प्रिंसिपल की ज्यादतियां झेलना।कभी सहकर्मियों से तालमेल बिठाने के लिए उनकी सहनीय/ असहनीय बातें चुपचाप सुनना। कभी- कभी ये सब सहनशक्ति से बहुत ज्यादा हो जाता था ।पर इसका दूसरा पक्ष सुखद था।स्कूल से आर्थिक सुरक्षा थी,समाज में एक इज्जत थी।आपस में अपनी परेशानियां शेयर कर लेने से तनाव मुक्त हो जाती थी।बच्चों को पढ़ाना ,उनके साथ समय गुजारना एक अलग ही सुखद अहसास देता था।हँसने- हँसाने का ,अभिव्यक्ति का पूरा अवसर था,जिससे खुद को ऊर्जा,शक्ति ही नहीं खुशी भी मिलती थी।पर कोविड 19 ने ये सारे सुख छीन लिए ।इसने स्कूल और बच्चों से दूर कर दिया ।लाइव -क्लास में बच्चे दिखते थे ,पर वह कक्षा वाला अहसास नहीं था और अब स्कूल ने रिटायरमेंट देकर रही- सही उम्मीद भी तोड़ दी।
आखिरकार देश में व्याप्त हो रहे आर्थिक मंदी ने मुझे भी बेरोजगार कर ही दिया ।एक झटके में वह आधार टूट गया ,जिस पर तीस वर्षों से जी रही थी।प्राइवेट स्कूल में पेंशन भी नहीं।वेतन ही आधार था,वह भी नहीं रहा।
कोविड 19 से बची तो बेरोजगारी ने डंस लिया।16 वर्षों का परिश्रम, त्याग,समर्पण कुछ काम नहीं आया।उच्चतर श्रेणी का बॉयोडाटा फेल हो गया।सत्र पूरा कर लेने के प्रार्थना -पत्र पर विचार तक नहीं किया गया।विद्यालय -परिवार ने अपने परिवार से बाहर कर दिया, बिना यह सोचे कि मेरा भविष्य क्या होगा! तब लगा कि वह तो परिवार ही नहीं था।मैं ही मोह की हद तक उससे जुड़ गई थी।उसके सदस्यों ही नहीं ,उसके पेड़ -पौधों तक से मेरा लगाव था।इसका हरा- भरा परिसर मेरे मन को हरा कर देता था।सोचा न था कि एक दिन यह सब छोड़ना होगा और एक अनजान सफ़र पर निकलना होगा।सब यही कह रहे हैं कि यह स्वाभाविक है। सबके जीवन में यह क्षण आता है।मुझे खुश होना चाहिए कि ससम्मान मेरी विदाई की गई ।पर मैं खुश नहीं हूं क्योंकि मुझे लगता है अभी कुछ वर्ष और काम कर सकती थी ।
दिमाग में चलता रहता है कि क्या कोविड 19 की आर्थिक मंदी ही स्कूल की मजबूरी थी या फिर कुछ और बातें थीं।आखिर सत्र समाप्त होने के पूर्व ही पुराने शिक्षकों की विदाई के पीछे का रहस्य क्या है?क्या छह महीने की सैलरी की बचत करनी थी क्योंकि जुलाई से पहले नए टीचर्स की भर्ती नहीं होगी ?क्या यह कि नए शिक्षक को कम वेतन देना पड़ेगा? कि
सिर्फ युवा लोगों की ही टीम बनानी थी कि अपने क्षेत्र के नए शिक्षकों की इस संकट काल में भी जो भर्ती की गई ,उसकी भरपाई करनी थी।
ओह ,यह जातिवाद ,क्षेत्रवाद और अब उम्रवाद!शिक्षा जगत में भी इसका बोलबाला है।जातिवाद के कारण मुझे अपनी योग्यता के अनुरूप पद नहीं मिला और अब क्षेत्रवाद ने असमय ही मेरी नौकरी ले ली।