मार खा रोई नहीं - (भाग दस) Ranjana Jaiswal द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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मार खा रोई नहीं - (भाग दस)

प्रधानाचार्य के असल रूप की बानगी कई बार देखने को मिली थी पर कहते हैं न कि जब तक अपने पैर बिवाई नहीं फटती तब तक बिवाई वाले पैरों के दर्द का अहसास नहीं होता।
मैं सोचती थी कि वे संन्यासी हैं और जाति, धर्म ,क्षेत्रवाद, व्यक्तिगत सम्बन्धों और हर तरह के भेदभाव से बहुत ऊपर हैं पर बार -बार वे ऐसा कुछ कर जाते कि मन खिन्न हो जाता।फिर भी मैं कभी और कहीं भी उनकी बुराई नहीं करती।हमेशा उनके सकारात्मक पक्ष का ही जिक्र करती।इतने मुग्ध भाव से उनका जिक्र करती कि इधर के सहकर्मी कभी -कभी मुझसे नाराज़ भी हो जाते कि आपको वे हमेशा सही ही लगते हैं।मैं हँसते हुए दावा करती कि वे गलत हो ही नहीं सकते।उनके हर फैसले को सही कहती पर जब मेरे बारे में भी वे गलत फैसला लेने लगे ,तब लगा कि मैंने तो इन्हें देवता मान लिया था पर ये तो अच्छे इंसान भी नहीं है।अच्छा इंसान भेदभाव से ऊपर होता है।क्रोध में भी विवेक नहीं खोता।कान का कच्चा नहीं होता।
एक बार मैं 11 वीं कक्षा में राजेन्द्र यादव का उपन्यास 'सारा आकाश' पढ़ा रही थी।तभी मेरी नज़र कुछ लड़कों पर पड़ी ,जो आपस में अश्लील बातें कर रहे थे।मेरे कानों में उड़ता हुआ एक शब्द आया तो मैं तिलमिला उठी।जब इतनी दूर पर मुझे सुनाई पड़ गया तो आस- पास बैठी लड़कियों ने तो अवश्य सुना होगा।वे आपस में हँस-मुस्कुरा रही थीं,जैसे वे भी उनकी बातों को एंज्वॉय कर रही हों । आजकल बच्चे दसवीं पास करते ही शुरू हो जा रहे हैं।वैसे तो शुरूवात वे काफी पहले ही कर चुके होते हैं,पर कक्षा में या टीचर्स के सामने ऐसा करने से डरते हैं।पर ग्यारहवीं में आते ही उदण्ड हो जाते हैं।किसी से नहीं डरते।हिंदी के पीरियड को तो वे वैसे भी मनोरंजन का पीरियड मानते हैं ।क्लास में आते ही -"मिस आज मत पढ़ाइए,आज सिर्फ बातें करेंगे।कुछ आप बताइये कुछ हम लोग बताएंगे।" ऐसे में किसी तरह उनको मोड़कर पाठ पढ़ाना काफी मानसिक श्रम का काम होता था।ये तो विषय का अच्छा ज्ञान और पढ़ाने का लंबा अनुभव था कि उनके क्रॉस प्रश्नों का उत्तर मैं तत्काल दे देती थी।आकर्षक ढंग से पढ़ाने के कारण मेरा कोर्स समय से पूर्व पूर्ण भी हो जाता था और बच्चों को समझ में भी आ जाता था।पर इस क्लास को पढ़ाने में इतनी मानसिक शक्ति लगती थी कि उतने में दस अन्य कक्षाएं पढ़ा लूँ।
मेरे लिए बच्चे ग्यारहवीं कक्षा में पहुंचने के बाद भी बच्चे ही थे।मुझे बहुत बुरा लगा कि जिनके अभी दूध के दाँत भी नहीं टूटे,वे इस तरह की बातें कर रहे हैं।मैं उनके पास पहुँची तो वे चुप हो गए। मैंने उनके सरगना से पूछा -नोट्स बुक लाए हो।
-नहीं ,वह ढिठाई से बोला।
"किताब!"
--भूल गया!
मैंने उसे एक थप्पड़ मार दिया तो वह गुस्से से उठ खड़ा हुआ --आपने मारा क्यों ?मारना स्कूल में एलाऊ नहीं है।
"और स्कूल में किताब कॉपी लेकर आना भी एलाऊ नहीं है?"
--भूल गया तो क्या करें?
"रोज का तुम्हारा यही काम है।स्कूल सिर्फ बातें करने आते हो ?"
उसके साथी भी उठ गए थे और बक- चख कर रहे थे।लड़कियों की भवें भी तनी थीं यानी किसी को भी मेरा हाथ उठाना पसन्द नहीं आया था।
मैं डर गई कि कहीं ये मेरी शिकायत प्रिंसिपल से न कर दें। आखिर मेरा डर सही साबित हुआ ।पूरी क्लास ने जाकर मेरी शिकायत की।उस समय तो प्रिंसिपल ने उन्हें यह कहकर भेज दिया कि मदरली मारा होगा और मुझे बुलाया भी नहीं क्योंकि उन्हें तत्काल एक सप्ताह के लिए बाहर जाना था।मैंने सोचा विपदा टली।पर उसके बाद उनके लौटने तक क्लास में बच्चों ने खूब बदतमीजियां की ।मेरा अभिवादन तो दूर था।मेरी कक्षा में आपस में खूब बातें करते,खाना खाते,जब चाहे कक्षा में आते और निकल जाते।लड़के और लड़कियां सभी ने किसी भी मर्यादा और अनुशासन का ध्यान नहीं रखा।सभी विद्रोह पर उतारू थे।एक दिन परेशान होकर मैं स्कूल इन्चार्ज और क्लास टीचर के पास गई तो उन लोगों ने बड़े अनमने ढंग से बात की।लगा कि बच्चों ने उन्हें भी अपने घेरे में ले लिया है।मैंने उन्हें इशारा भी किया कि लड़के लड़कियां क्लास में इश्कबाजी कर रहे हैं,एक दूसरे का हाथ पकड़कर बैठते हैं।यहां तक कि अश्लील बातें करते हैं।पर ऐसा लगा कि ये सब उनके लिए कोई बड़ी बात नहीं ।बच्चों की उम्र ही ऐसी है बस मुझे उन पर हाथ नहीं उठाना चाहिए था।
मैं सोच रही थी क्या अपना बच्चा इस तरह की हरकत करता तो माँ उसे दंड नहीं देती।इग्नोर कर देती कि जो चाहे करो।कहा जाता है कि टीचर को बच्चों से मदरली व्यवहार करना चाहिए प्यार के साथ नसीहत भी ...।पर यहां तो प्रोफेशनली ट्रीटमेंट है।
बच्चों के फेवर में सरकारी कानून क्या बने ,वे तो उदण्ड होते जा रहे हैं ?शिक्षक से न लगाव है न लज्जा है न डर।यही चीजें तो छात्र को अनुशासित करती हैं ।
बच्चों को दंड देने के मैं भी ख़िलाफ़ हूँ|उनसे प्यार भी बहुत करती हूँ।इसी अधिकार भावना से यह गलती मुझसे हो गयी थी।बहुत मुश्किल से मैंने उन बच्चों का हृदय परिवर्तन किया।अपनी सारी लेखकीय प्रतिभा उन पर खर्च कर दी।वे फिर से सामान्य हो गए और मैं उनकी फेवरेट टीचर बन गयी।आज वे ही बच्चे स्कूल पास कर विभिन्न क्षेत्रों में प्रयासरत हैं और मुझसे बराबर परामर्श लेते हैं ।मेरे घर आते -जाते हैं ।यहां तक कि अपना व्यक्तिगत भी शेयर करते हैं कि किस लड़की से ब्रेकअप हुआ... किससे रिश्ते में हैं ?अपनी सारी बातें बताते हैं।उन्हें जब भी देखती हूँ पुरानी बातें याद आ जाती हैं।वे तो किशोर उम्र के बच्चे थे,उन्हें क्षमा किया जा सकता था।किया भी पर उस घटना पर प्रिंसिपल का रिएक्शन आज तक नहीं भूल पाई हूँ।
बाहर से लौटते ही उन्होंने मुझे ऑफिस में बुला लिया...।