मार खा रोई नहीं - (भाग पाँच) Ranjana Jaiswal द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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मार खा रोई नहीं - (भाग पाँच)

खाली हाथ आई थी इस दुनिया में
ले जा रही स्मृतियाँ को साथ मैं
मेरे चेहरे पर आहत अभिमान की रेखाएँ प्रकट हुईं, पर मैंने खुद को दबाए रखा ।जब उन्होंने मन में मेरी एक छवि बना ही ली तो मैं उसे मिटा तो नहीं सकती थी।वैसे भी मैं उनके अधिनस्त काम करने वाली अध्यापिका थी ।प्राइवेट स्कूलों में अध्यापकों का अस्तित्व मायने ही कितना रखता है ।जब चाहे उसे बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है।न तो सरकारी वेतन न सरकारी सुविधाएं ।अधिकतम काम और वेतन कम, ऊपर से घोर अनिश्चितता की तलवार हर समय सिर पर लटकती रहती है।फूँक-फूंककर कदम रखने के बावजूद कभी न कभी कोई गलती हो ही जाती है,फिर तो कोई क्षमा नहीं ।सारी खूबियों ,सारी मेहनत ,सारी कार्यकुशलता पर पानी फेर दिया जाता है और अनजाने में हुई उस गलती को इतना हाईलाइट किया जाता है कि लगता ही नहीं उस व्यक्ति ने कभी कुछ अच्छा किया है ।उसे बुरी तरह डांटा -फटकारा जाता है...नौकरी से निकाल देने की धमकी दी जाती है और अवसर मिलते ही निकाल भी दिया जाता है }अध्यापक को सफाई देने का मौका भी नहीं दिया जाता और अगर वह अपनी सफाई में कुछ बोले तो और भी बुरा हो जाता है ।उसे सिर झुकाकर जर-खरीद गुलाम की तरह सब कुछ सहना पड़ता है ।जिस स्वाभिमान की शिक्षा वह विद्यार्थियों को देता है ,वह उसके जीवन में कहाँ होता है ?
मुझे भी कई बार इस स्थिति का सामना करना पड़ा था ।उस समय मेरा जी तो चाहा था कि चीख-चीखकर जमीन-आसमान एक कर दूँ ।अपने साथ हो रहे अन्याय का प्रतिकार करूं ,पर मुझे यह पता था कि ऐसा करना तत्काल नौकरी से हाथ धोना होगा और नौकरी मेरी जरूरत थी ,मजबूरी थी ।इससे मुझे आर्थिक स्वतंत्रता मिली थी ,जिसके कारण मैं ज़िंदगी की दूसरी लड़ाइयाँ अकेली लड़ पा रही थी ।उनकी फटकार से मेरा अभिमान आहत होता पर मैं खुद ही उन्हें सॉरी बोलकर वापस आती ,पर महीनों डिप्रेशन में रहती ।अकेले में फूट-फूटकर रोती कि मैं इतनी मजबूर क्यों हूँ ।काश,मेरा भी कोई संबल होता ,जिसके भरोसे मैं ऐसी नौकरी को लात मारकर वापस चली जाती ।मैं ईश्वर से प्रार्थना करती ...फरियाद करती...अपने भाग्य को कोसती ,फिर धीरे-धीरे उस गहरे आघात को भूलकर अपनी दिनचर्या में रम जाती ।
पर वे सारे मन के हरे घाव थे ,जो कभी नहीं सूखते ।
नौकरी में भी मैं व्यवसायिक संबंध नहीं बना पाई थी ।सबसे इमोशनली जुड़ जाती थी ,पर जब सबका असली रूप देखती तो झटका खा जाती ।सब कुछ वैसा ही तो नहीं होता ,जैसी हम कल्पना करते हैं ।शायद मैं अब तक कल्पना -लोक में ही जीती रही हूँ ।
रिटायरमेंट की खबर मेरे लिए किसी सदमें से कम नहीं थी ।
मुझे समझ लेना चाहिए था कि यह जिंदगी का एक बड़ा सत्य है। जो आया है उसे जाना ही पड़ता है ।इंसान को तो यह दुनिया भी छोड़नी पड़ती है एक दिन, फिर यह तो नौकरी है ।फिर क्यों उससे यह मोह नहीं छूट रहा ?क्यों मैं डिप्रेशन में हूँ ?क्यों भविष्य इतना डरा रहा है मुझे ?इतने दिनों का जुड़ाव क्यों नहीं टूट पा रहा है ,जबकि सच यही है कि सिर्फ़ मैं ही जुड़ी थी |