(यह उपन्यास एक शिक्षिका की डायरी के पन्ने हैं।एक शिक्षिका की डायरी से भी प्याज की तरह गठीले शिक्षा तंत्र की कई परतें खुल सकती हैं और यह पता चल सकता है कि एक स्त्री का मर्दों के क्षेत्र में उतरना सहज नहीं है। )
ज़िन्दगी का ये कैसा दौर है !ऐसा लगता है जैसे मैं किसी धुंध में खड़ी हूँ,जहां से कोई रास्ता नज़र नहीं आ रहा।ऐसा लगता है जैसे मैं फिर से उसी मोड़ पर आ खड़ी हुई हूँ ,जिसके चारों तरफ रास्ते ही रास्ते हैं,पर उनमें से कोई मुझे मेरी मंजिल तक नहीं ले जाएगा।
पच्चीस वर्ष पहले मैं इसी तरह किंकर्तव्यविमूढ़ थी,भटक जाने के पूरे आसार थे।गुमराह करने वाली शक्तियां चारों तरफ से मुझे घेर रही थीं ।एक भी आदमी ऐसा नहीं था ,जो मुझे सही राह दिखाए ।तभी बिजली कौंधी और मुझे एक रास्ता नज़र आया ।एक स्कूल,जो नया -नया खुला था ।वहीं से मेरी ज़िंदगी में ठहराव आया।आत्मनिर्भरता हासिल हुई ।मैंने अपनी मर्ज़ी से जीना सीखा।अब मैं अपनी लड़ाई लड़ सकती थी।गुमराह करने वाली शक्तियां अपने आप तितर-बितर हो गईं थीं,अब वे मेरी शिकायत कर सकती थीं ।मुझे बदनाम कर सकती थीं ,पर मेरा कुछ बिगाड़ नहीं सकती थीं।उस समय जाना कि किसी अकेली स्त्री के लिए आत्मनिर्भरता कितनी जरूरी है?वरना उसके तन -मन से खेलकर उसको पतन के गर्त में धकेलने वाले गली -गली से निकल आते हैं!ये समाज अकेली स्त्री के लिए सुरक्षित जगह नहीं है।किसी को स्त्री के दुःख -तकलीफ़ और भविष्य की चिंता नहीं होती,सभी उसका इस्तेमाल करना चाहते हैं।'यूज और थ्रो' पाश्चात्य नहीं भारतीय समाज का भी फैशन है।इंसानियत,मानवता सब खोखली बाते हैं,कोई उस पर नहीं चलता।स्त्री को अबला समझकर कोई मदद करने नहीं आता, बल्कि उसे लूटने आता है,तबाह करने आता है।यूं ही तो नहीं चकले आबाद हैं और हर शहर में रेडलाइट एरिया है।
ईश्वर की अनुकम्पा रही कि कोई मुझे इस्तेमाल नहीं कर पाया क्योंकि मैं समय रहते ही ऐसे लोगों से दूर हो गयी।यही कारण है कि शहर में मेरे बहुत सारे दुश्मन हो गए।पर वे मेरा कुछ बिगाड़ नहीं पाए क्योंकि मैं उन पर निर्भर नहीं थी।
शिक्षित होने का महत्व तभी पता चला।हालाँकि मुझे अपनी योग्यता के अनुसार पद नहीं मिला, पर जीने -भर के साधन तो मिले ही।कम से कम समझौता तो नहीं करना पड़ा।यह तो संतोष मिला ही कि अपना 'स्व' गंवाकर कुछ नहीं पाया।अपनी ही नज़रों से गिरना तो नहीं पड़ा।उच्च शिक्षा के बाद भी स्कूल टीचर मात्र रह जाना मेरी अयोग्यता नहीं है, बल्कि वह योग्यता है जो सिर्फ परिश्रम से हासिल है।मैं भी बड़ा पद पा सकती थी,पर उसके लिए न तो कोई पहुँच थी, न सोर्स -सिफारिश ।न कोई अपना था ,न हितैषी मित्र । पैसा भी नहीं था और गलत समझौते मैं कर नहीं सकती थी।
इसलिए स्कूल मास्टरनी बनकर ही रह गयी,वह भी प्राइवेट स्कूलों की।लोग पूछते हैं कि काबिल होते हुए भी क्यों मैं विश्वविद्यालय या किसी डिग्री कॉलेज में नहीं हूँ ।कम से कम किसी सरकारी स्कूल में ही होती।मैं किस -किससे और क्या क्या बताऊँ?'मार खा रोई नहीं' वाली ज़िन्दगी के लिए किसे दोष दूं-भाग्य को,अपनों को,समाज को,भ्रष्टाचार को या खुद को।