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मार खा रोई नहीं - (भाग चार)

मैं अब स्कूल पर अधिकार नहीं जता सकती थी क्योंकि हाईस्कूल के प्रमाणपत्र में माता- पिता की असावधानी से मेरी जो जन्मतिथि दर्ज थी,और जिसे ठीक कराने की कोशिश भी नहीं की गई ,के अनुसार मैं पचास पार कर गयी थी।कई वर्ष उम्र से ज्यादा दर्ज थे,पर स्कूल तो कागज़ देख रहा था।स्कूल में कई टीचर्स ऐसे भी थे जिन्होंने अपनी उम्र कम करके लिखाई थी।वे बूढ़े दिखते थे और बीमार रहते थे,पर उन्हें रिटायर नहीं किया जा सकता था।यह कोई सरकारी संस्था भी नहीं थी कि बर्थ-सार्टिफिकेट की वैधता की जांच कराए। मैं रिक्वेस्ट ही कर सकती थी इसलिए मैंने प्रार्थना- पत्र दिया कि कम से कम मार्च तक यानी इस सत्र के पूरा होने तक यानी मात्र तीन महीने और कार्य करने अवसर दिया जाए पर सवाल तीन महीने ही नहीं ,पूरे छह महीने की सैलरी बचाने का था।नई नियुक्ति जुलाई से पहले होनी नहीं थी।वर्तमान टीचर्स से ही काम चला लेना था।
मैं भी तो सेलरी के बारे में ही सोच रही थी।दोनों तरफ अर्थ ही आधार था।वर्षों के रिश्तों के बीच अर्थ आ गया था।मेरी तो मजबूरी थी पर स्कूल मजबूर नहीं था क्योंकि बच्चों से पूरे वर्ष की फीस वसूल ली गयी थी।वैसे भी यह कोई छोटा -मोटा स्कूल नहीं था,जिसकी आर्थिक नींव कमजोर हो।
पर प्राइवेट स्कूल होने के बहाने पेंशन की भी व्यवस्था नहीं थी।
मेरी वर्षों की सेवा ,त्याग, समर्पण को भी नहीं देखा गया ।स्कूल ने मेरी परेशानियों और मजबूरियों को दरकिनार करके अपने निर्णय को अंजाम दे दिया।तब लगा कि स्कूल ने सिर्फ प्रोफेशनल रिश्ता रखा था ।मैं ही उससे इमोशनली जुड़ गई थी।स्कूल ने एक बार भी नहीं सोचा कि रिटायर होने बाद बिना पेंशन या आर्थिक सुरक्षा के मैं कहाँ जाऊंगी?वैसे तो प्राइवेट स्कूल हर बात में सरकारी स्कूल के नियमों को मानते हैं ,पर न तो सरकारी सेलरी देते हैं न पेंशन।काम जरूर उससे चौगुना लेते हैं ।गन्ने को पेरकर उसका रस निचोड़कर जैसे उसे फेंक दिया जाता है उसी तरह ये प्राइवेट स्कूल करते हैं।कोई मानवीयता नहीं ,सहानुभूति नहीं ,अपनापन नहीं।वैसे तो कहते हैं विद्यालय एक परिवार है।पर क्या वे परिवार ही सिद्ध होते हैं ?क्या परिवार -सी सुरक्षा,संरक्षण व अपनत्व वहाँ मिल पाता है!हाँ, वे उन आधुनिक परिवारों जैसे जरूर होते हैं,जहाँ बूढ़े माँ -बाप को परिवार से बाहर कर दिया जाता है।
मैंने प्रिंसिपल से कहा भी कि संस्था एक वृद्धाश्रम भी खोल दे, जहाँ रिटायर कर दिए गए अकेले शिक्षक रह सकें।पर वे हँसकर बात टाल गए।यह कहने पर कि बिना पेंशन के जीवन कैसे गुजरेगा? उन्होंने कहा कि आपमें इतना टैलेंट है,उसका उपयोग कीजिए।आप तो लेखक हैं खूब लिखिए ।उन्हें यह समझाना बेकार साबित हुआ कि हिंदी में लेखन रोटी ,कपड़ा,मकान नहीं दे सकता।हिंदी का प्रकाशक मालेमाल होता है,लेखक नहीं। उन्हें विश्वास ही नहीं था कि बहुत कम लेखक ही रॉयल्टी पाते हैं या साहित्य की रोटी खाते हैं।
शिक्षा के क्षेत्र में जातिवाद की शिकार तो मैं शुरूवाती दौर में हो गयी । विश्वविद्यालय में पूर्ण पात्रता और बेहतरीन इंटरव्यू के बाद भी मेरा सलेक्शन नहीं हुआ।इंटरव्यू बोर्ड में जो लोग शामिल थे,वे मेरे लेखकीय व्यक्तित्व और योग्यता के कायल थे,बाहर से जो विशेषज्ञ आए थे,वे भी मेरे व्यक्तित्व,कृतित्व और इंटरव्यू से खासे प्रभावित दिखे,फिर भी इंटरव्यू का परिणाम शून्य रहा।विश्वविद्यालय और विशेषकर मेरे विभाग में एक विशेष जाति का वर्चस्व था और उसी जाति के एक व्यक्ति का सलेक्शन हुआ।ऐसा एक बार नहीं कई बार हुआ ,वह भी कई महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में।कहीं का भी चुनाव -बोर्ड पाक -साफ नहीं था।कहीं रिश्वत थी कहीं सोर्स-सिफारिश,कहीं जातिवाद तो कहीं क्षेत्रवाद ।और भी कुछ हो ,तो मुझे पता नहीं ।अक्सर देखती कि कम योग्यता वाले पद पाकर अपनी योग्यता का डंका पीट रहे हैं।वे उन चीजों को नहीं गिनाते थे,जिसके बल पर पद हासिल किए थे।किसी ने खेत बेची थी किसी ने ज़मीन।किसी ने ईमान तो किसी ने ज़मीर।अक्सर तो किसी न किसी विश्वविद्यालय में बड़े पद पर आसीन की संतानें ही पद पाती थीं क्योंकि वहाँ आपसी समझौता होता था कि 'तुम मेरी चुनो मैं तुम्हारी चुनूँगा'।इस क्षेत्र में 'बसुधैव कुटुम्बकम" नहीं "विश्वविद्यालय कुटुम्बकम" की अवधारणा थी।
आपसी संबंध के अलावा गुप्त रूप से,जो मोटी रकम अदा करनी होती,उसकी जानकारी भी शिक्षा -जगत के आपसी सम्बन्धियों को ही हो पाती है। 'खग जाने खग ही की भाखा'।मैं इन सबसे सर्वथा अनभिज्ञ थी और अगर भिज्ञ भी होती तो क्या कर लेती?उन "पेट -भरो" के सुरसा जैसे मुँह को बंद करने की सामर्थ्य ही कहाँ थी मुझमें?
दूसरे प्रदेशों में भी साक्षात्कार दिए,पर वहाँ क्षेत्रवाद बहुत था।कई जगह तो बस कोरम पूरा किया गया।वहाँ नियुक्त पहले ही तय था कोरम पूरा करने के लिए विज्ञापन और फिर साक्षात्कार का ढोंग किया गया।
अन्ततः मैंने उस क्षेत्र में प्रयास करना ही छोड़ दिया।कुछ समय सरकारी स्कूलों के पीछे भागी।परीक्षा में पास हो जाती थी।साक्षात्कार भी अच्छा होता था,पर नियुक्ति पत्र नहीं आता था।पता चला वहाँ भी गुप्त दान और सोर्स सिफारिश की प्रथा है।विश्वविद्यालय की अर्हता वाली का सेलेक्शन माध्यमिक सरकारी स्कूलों में भी न हो सका।गनीमत थी कि किसी ने इसे मेरी अयोग्यता नहीं मानी।किसी ने भाग्य, किसी ने प्रयास की कमी जरूर माना।किसी ने कहा कि किसी को गॉड फादर बना लेना चाहिए था क्योंकि कोई मजबूत ,बुद्धिमान ,सोर्सफुल पुरूष साथ होता तो वह दौड़ -भाग करके नौकरी दिला देता ।समझौता वह भी स्त्रीत्व का ...अपने आदर्श का ..अपनी अस्मिता का मुझे कतई मंजूर नहीं था।मैंने मान लिया कि मेरी योग्यता और प्रयास में ही कमी थी कि मुझे अच्छी नौकरी नहीं मिली।
जबकि शिक्षा-तंत्र को कम जानने की सज़ा मुझे मिली थी।

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