मार खा रोई नहीं - (भाग बारह) Ranjana Jaiswal द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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मार खा रोई नहीं - (भाग बारह)

उस वर्ष स्कूल का सिल्वर जुबली था।भव्य कार्यक्रम का आयोजन होना था।नृत्य,गायन और अन्य रंगारंग कार्यक्रम के साथ नाटक भी होना था।हमेशा की तरह नाटक कराने की जिम्मेदारी मुझ पर थी।नृत्य तो इंटरनेट की मदद से सिखा देना आसान था।गायन के लिए संगीत टीचर थे पर नाटक के लिए अकेली मैं।स्क्रिप्ट लिखने से लेकर ड्रेस डिजाइन करने,नाट्य सामग्रियाँ जुटाने,स्टेज मैनेजमेंट करने के अलावा बच्चों को अभिनय सिखाने की जिम्मेदारी मुझ पर होती थी।सहयोग के लिए जो टीचर दिए जाते उनसे सहयोग से ज्यादा अड़चन ही मिलती।नाटक कराने में मुझे बहुत मेहनत करनी पड़ती थी क्योंकि परफेक्शन मेरी कमजोरी है।किसी भी चीज़ पर कोई अंगुली न धरे।छोटे बच्चों को अभिनय सिखाना वैसे भी आसान भी नहीं होता क्योंकि वे मूडी होते हैं।दिक्कत ये भी होती है कि उन्हें इसके लिए स्कूलऔर ट्यूशन के अतिरिक्त समय निकालना होता है।सुबह -सुबह आधा -अधूरा नाश्ता करके वे स्कूल आते हैं।कुछ कामचोर माताएं उनके टिफिन में भी पौष्टिक चीजें नहीं रखतीं।कुछ तो टिफिन ही नहीं देतीं या फिर बच्चे ही नहीं लाते।जबसे स्लिम होने का फैशन चला है बच्चे खाने -पीने में कंजूसी करते हैं ।खैर मैं बच्चों को रिहर्सल के दिनों में डबल टिफिन लाने को कहती।स्कूल के बाद रूके बिना प्रैक्टिस नहीं हो सकती थी।छुट्टियों में भी उन्हें बुलाना पड़ता।जिसके लिए कभी बच्चे गुस्सा करते कभी अभिभावक।कुछ अभिभावक तो इसी बात पर लड़ने आ जाते कि उनके बच्चे को नाटक में क्यों रखा?वे स्कूल पढ़ने को भेजते हैं नौटंकी करने नहीं ।पर वे ही अभिभावक जब नाटक में उनको अभिनय करते देखते तो गर्व से फूल जाते।पात्र चुनने में मैं एक्सपर्ट थी।पढ़ाने के दौरान ही मैं देखती रहती थी कि कौन- सा बच्चा किस पात्र के उपयुक्त होगा।रीडिंग लगवाते समय उनकी डायलाग डिलीवरी के बारे में भी जान लेती थी।मेरे पात्र चयन,ड्रेसिंग सेंस और डायलागों का सभी लोहा मानते थे।अक्सर मैं बड़े लेखको की उन कहानियों को नाटक में रूपांतरित करती थी,जो बच्चों के पाठ्यक्रम में भी होते थे,इससे दुहरा लाभ होता था।बच्चों का पाठ भी तैयार हो जाता था और वे अभिनय कला भी सीखते थे।अपने कार्यकाल में दौरान मैंने सैकड़ों नाटक कराए और सभी सुपर डुपर हिट हुए ,पर इसके लिए मुझे बहुत कुछ झेलना भी पड़ता था।
स्कूल में कई हॉल के बावजूद नाटक रिहर्सल के लिए पर्याप्त जगह नहीं मिलती थी।हर जगह नृत्य वाले ही भरे रहते।उन्हें ज्यादा समय व ज्यादा महत्व भी दिया जाता था।हिंदी नाटक वाले हमेशा उपेक्षित रहते इसलिए कभी लाइब्रेरी,कभी स्कूल मैदान ,कभी किसी छोटे खाली रूम में उनकी प्रैक्टिस कराती।आखिरी कुछ दिनों में तो अपने क्लास में ही प्रेक्टिस करा लेती,क्योंकि क्लास भी नहीं छोड़ना था और तैयारी भी करानी थी।क्लास में बच्चों के सामने प्रेक्टिस कराने से एक फायदा यह होता था कि बच्चों की झिझक खत्म हो जाती थी और गलत का करेक्शन भी हो जाता था।मैं बच्चों की पढ़ाई का कोई नुकसान नहीं होने देती थी क्योंकि कोर्स पहले ही पूरा करा देती थी।
एक बात मैं पूरी ईमानदारी से स्वीकार करती हूँ कि मेरे नाटकों की सफलता के पीछे बच्चों का बड़ा हाथ था।वे मुझसे भावनात्मक रूप से जुड़े रहते और पूरा सहयोग करते। बाकी अपने सहकर्मियों से मुझे असहयोग ही मिलता था।वे जानते थे कि हर बार नाटक ही सारे कार्यक्रमों पर भारी पड़ जाता है,इसलिए वे अड़चनें डालने का एक भी अवसर नहीं छोड़ते थे।
सिल्वर जुबली के अवसर पर भी ऐसा ही हुआ था....।नाटक की थीम कन्या -भ्रूण हत्या पर केंद्रित थी।स्क्रिप्ट शानदार थी। आदिवासी और शहरी संस्कृतियों में बेटी की स्थिति भी दिखानी थी और गर्भ में कन्या -भ्रूण की फरियाद भी।चूँकि कार्यक्रम काफी भव्य होना था,इसलिए इस बार नाटक के पात्रों के डायलॉग स्टूडियों में पहले से ही रिकार्ड कराए गए थे।इसमें कई जगह मैंने भी आवाज़ दी थी ।नाटक करीबन सेट हो गया था ।तभी टीचर्स की एक टीम बनाई गई,जो रिहर्सल को देखकर उसे बेहतर बनाने के सुझाव देता था।टीम में ज्यादातर अहिन्दी भाषी ही थे।वे हिंदी ठीक से समझ नहीं पाते थे पर नाटक को खराब करने पर आमादा रहते थे।उन लोगों ने पहले स्क्रिप्ट को बदलने को कहा, उसे काट -छांटकर खराब कराना चाहा!फिर उसे 20 से 15 फिर 10 मिनट का कर देने को कहा,जबकि कई बकवास कार्यक्रम को अधिक समय दे रहे थे।सबसे खराब तो तब लगा ,जब उन लोगों ने उस विशेष सीन को ही निकाल देने को कहा,जो नाटक का उत्स था।मैं परेशान होकर प्रिंसिपल के पास शिकायत लेकर गई तो पता चला कि वे लोग मेरी शिकायत पहले ही कर चुके हैं कि मैं उन लोगों की बात नहीं मान रही।प्रिंसिपल के अपने क्षेत्र के लोग थे वे ,इसलिए उनकी बात पर उन्हें ज्यादा विश्वास था ।उन्होंने कहा-सिर्फ आपका नाटक ही नहीं है और भी बहुत सारे कार्यक्रम है ।इसलिए नाटक दस मिनट से अधिक नहीं होना चाहिए।छोटा कर दीजिए।मैंने कहा पर वे लोग उस विशेष सीन को ही हटा रहे हैं,जो नाटक के उद्देश्य को स्पष्ट करती है।उन्होंने कहा --देख लीजिए,जितना हो सके हटा दीजिए।मुझे बहुत दुःख हुआ कि वे मेरी बात सुन ही नहीं रहे।जी चाहा कि नाटक से अलग हो जाऊं,पर यह तो और भी बुरा माना जाता।खैर किसी तरह सब मैनेज किया।उन लोगों की खुशामद करके नाटक को खराब होने से बचाया।हास्य-विनोद,ट्रेजडी और महत्वपूर्ण संदेश देने वाले उस नाटक को बच्चों के बेहतरीन अभिनय ने जीवंत कर दिया।और एक बार फिर मेरा नाटक ही नम्बर वन रहा।मुख्य अतिथि ने विशेष रूप से उसकी प्रशंसा की ।अखबारों ने उसे ही प्रमुखता से छापा।चारों ओर मेरी प्रशंसा हुई पर एक बार भी प्रधानाचार्य ने मुझे शाबासी नहीं दी।संशोधक टीम ने यह जरूर कहा कि उनके संशोधन के कारण ही नाटक सफल हुआ।मुझे इसी बात की खुशी थी कि मेरा परिश्रम व्यर्थ नहीं गया।पर उसके बाद लंबे समय तक मुझे नाटक की जिम्मेदारी नहीं दी गयी,क्योंकि मेरे खिलाफ प्रधानाचार्य के कान भर दिए गए थे।अब अहिन्दी भाषियों को हिंदी नाटक कराने को कहा जाता था।उन लोगों ने नाटक के बीच फिल्मी गाने डालकर ऐसे- ऐसे नाटक कराए कि तमाशा ही बन गया।सामने सभी ने उनकी तारीफ़ की पर पीठ पीछे सभी यह स्वीकारते रहे कि मेरे जैसा नाटक कोई नहीँ करा सकता।हद तो तब हुई जब इन्टरस्कूल नाट्य प्रतियोगिता में भी उन्हीं लोगों को जिम्मेदारी दी गयी,जबकि इस प्रतियोगिता में बाहर के स्कूली बच्चे भी शामिल होते थे।जबरदस्त प्रतियोगिता होती थी।उन लोगों ने अपने क्षेत्र के एक नाटक को हिंदी में रूपांतरित कराया और प्रेक्टिस कराने लगे।पात्र उन्हीं बच्चों को चुना,जो मेरे द्वारा मांजे गए कलाकार थे।बच्चे परेशान थे क्योंकि व्याकरण दोषों से भरी हुई और कहानी रहित स्क्रिप्ट उनकी समझ से बाहर थी।वे परेशान होकर मेरे पास आए कि आप सिखाइए ,पर मैंने उनके काम में हस्तक्षेप करना उचित नहीं समझा।वे लोग जब समझ गए कि स्क्रिप्ट में ग्रामर दोष है तो मुझे उसे ठीक करने को कहा।मैंने कर भी दिया पर नाटक की शुरूवात देखकर हँसी आ गयी।मैंने उनसे कहा कि नाटक की शुरूवात ऐसे नहीं होती ,तो उन लोगों ने मेरे ऊपर यह जिम्मेदारी भी डाल दी।मैंने उसकी काव्यात्मक शुरूवात करा दी।बाकी कहानी उन लोगों के अपने हिसाब से परफेक्ट थी,इसलिए मैंने भी कुछ नहीं कहा।खूब पैसा खर्च करके नाटक के उपकरण तैयार किए गए ,जबकि मैं बहुत कम खर्च में नाटक कराती थी। एक दिन मैंने रिहर्सल देखा तो चौंक पड़ी।उन लोगों ने डायलॉग रिकार्ड कराया था और नाटक के बीच गाने भी डाले थे। मैंने उन्हें समझाया कि प्रतियोगिता में रिकार्डेड आवाज या फिल्मी गाने नहीं डाल सकते।पात्रों के डायलाग बोलने की कला पर भी नम्बर होते हैं।स्टेज के अनुशासन का भी ध्यान जरुरी है।पात्रों की पीठ दर्शकों के सामने नहीं होनी चाहिए,न स्टेज देर तक खाली रहना चाहिए।माइक के सामने ही डायलॉग बोलना जरूरी है,पर उन लोगों ने मेरी किसी बात पर कोई ध्यान नहीं दिया।उनके पहले मैं कई बार बच्चों को लेकर इस तरह की प्रतियोगिताओं में गयी थी और उन्हें जिताकर लाई थी।मुझे पता था कि किस -किस बात पर नम्बर कट जाते हैं।नाट्य क्षेत्र के मशहूर लोगों से मेरा परिचय था,इसलिए भी बहुत -कुछ मुझे पता था।पर मेरे अनुभव का लाभ वे लेना नहीं चाहते थे ।अपने ऊपर कुछ ज़्यादा ही भरोसा था उन लोगों को।

रिणाम वही हुआ,जो मुझे पहले से पता था।नाटक सुपर फ्लॉप हुआ था।वे हँसी के पात्र बन गए,पर उन्हें कुछ नहीं कहा गया।उन लोगों ने सारा दोष बच्चों पर डाल दिया कि वे स्टेज पर जाकर डायलॉग्स भूल गए थे और माइक का ध्यान नहीं रखा था।
बच्चों को डायलॉग्स ऐसे ही थोड़े याद हो जाते हैं,उसके लिए मशक्कत करनी पड़ती है।उन्हें पात्र में ढालना पड़ता है।उनके साथ लगना पड़ता है।
अपने बच्चों की असफलता से मन दुःखी हुआ।वे भी सबसे डाँट खाकर उदास थे।मैंने उनका मनोबल यह कहकर बढाया कि अगली बार हम मिलकर कुछ अच्छा करेंगे।
उन टीचर्स के लिए भी अफसोस हुआ कि मुझे सबक सिखाने की कोशिश उनके लिए सबक बन गयी।वे मुझे दिखाना चाहते थे कि मेरे बिना भी नाटक हो सकता है।पर यह नहीं देख पाए कि विषय ज्ञान ,अध्ययन ,अनुभव और परिश्रम के बिना ऐसा नहीं किया जा सकता।