मार खा रोई नहीं - (भाग आठ) Ranjana Jaiswal द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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मार खा रोई नहीं - (भाग आठ)

प्रधानाचार्य के शांत चेहरे, हँसती हुई आँखों और आकर्षक व्यक्तित्त्व के पीछे एक कुरूप और बदसूरत शख्स था।उनके श्वेत कपड़ों के भीतर एक काला दिल था। उनकी संत जैसी बातों में कोई सच्चाई नहीं थी।कहने को वे संन्यासी थे,पर संन्यासियों के कोई भी लक्षण उनमें नहीं थे। वे मांस का सेवन करते थे।अपनी टीम में वे या तो इस क्षेत्र के ऊर्जा से भरे हुए सुंदर युवा / युवतियों को रखते थे या फिर अपने क्षेत्र के युवा/ युवतियों को,जो सुंदर तो नहीं होते पर उनके अपने लोग होते। उन्हें उम्रदराज लोगों से चिढ़ -सी थी।वे हर जगह और हर चीज को सुंदर देखना चाहते थे।उन्होंने आते ही अपने विद्यालय का कायाकल्प कर दिया था ।आस -पास की जमीनें खरीदकर चारों तरफ इमारतें खड़ी कर दी थीं । पूरे परिसर का इस तरह सुंदरीकरण किया था कि वह शहर का नम्बर वन स्कूल बन गया था।स्कूल के मैदान में विदेशी घास लगवाए थे।गमलों में देशी- विदेशी फूलों की बहार थी। स्टेडियम,बैडमिंटन कोर्ट आदि का कोई जवाब ही नहीं था। बहुत ही ऊंची ,लिफ्ट युक्त चौथी फ्लोर तक की इमारत दूर से ही सबका ध्यान आकृष्ट करने में समर्थ थी।इस स्कूल में अपने बच्चों को एडमिशन दिलाने के ख़ातिर अभिभावको की कतार लगी रहती।
इस स्कूल को शहर का नामी स्कूल बनाने में इनकी बड़ी भूमिका थी पर चिराग तले अंधेरा भी कम नहीं होता,इस बात का पता मुझे बहुत बाद में चला।शुरू में जब वे आए थे ,मैं उनसे खासा प्रभावित हुई थी। वे हँसमुख,युवा,सुंदर ऊर्जावान और कर्मठ थे।उनसे मुझे बहुत प्रेरणा मिलती थी।विश्वास ही नहीं होता था कि इतनी कमउम्र में वे कई स्कूलों के प्रधानाध्यापक रहने के बाद यहां आए हैं।उन्हें निरन्तर काम करते देखकर मैं भी ऊर्जा से भर जाती थी।उनकी प्रेम की हद तक इज्जत करती थी।
कई वर्ष अच्छे से बीत गए।धीरे -धीरे उनकी कलई उतरने लगी ।लोग उनकी कमियां देखने लगे ,पर मैं तो उनकी अंधभक्त थी ।उनके लिए लड़ जाती।सभी जानते थे कि मैं उनकी बुराई नहीं सुन सकती।उनके साथ मेरा अनुभव अच्छा ही रहा था।कभी- कभार लगा भी कि वे कहीं -कहीं गलत कर रहे हैं,पर फिर सिर झटक देती कि नहीं वे गलत हो ही नहीं सकते।हालांकि जब उन्होंने कई योग्य टीचर्स को स्कूल से निकाल दिया,तो माथा ठनका कि इतना सुलझा हुआ आदमी ऐसा क्यों कर रहा है?तब पता चला कि वे कान के कच्चे हैं और उनके क्षेत्र के किसी टीचर ने इधर के किसी भी टीचर की बुराई अगर कर दी है,तो फिर उसे स्कूल से हटाना ही है।
मुझे यह सब अच्छा नहीं लगा। उनके देवत्व की कलई थोड़ी -थोड़ी उतरने लगी फिर दिखने लगा कि उनमें अभिमान क्रोध,ईर्ष्या, और बदले की भावना भी जरूरत से ज्यादा है।जिस पर भी वे नाराज हो जाते हैं ,उसको मटियामेट करने के लिए कमर कस लेते हैं।चाहें वह विद्यार्थी हो या शिक्षक या स्कूल का अन्य कोई कर्मचारी।अभिभावकों से भी उनका व्यवहार अच्छा नहीं था।चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारियों के साथ तो गुलामों जैसा व्यवहार करते हैं ।सुना तो यहां तक कि नाराज़ होने पर वे उन्हें गाली देते हैं और मारते भी हैं ।उन्हें सुबह से शाम तक काम में लगाए रहते है।छुट्टी के दिन भी उनकी छुट्टी नहीं होती।गुस्से में वे होंठों को विद्रूप करके इतने अभिमान से बोलते हैं मानो वे ही ईश्वर हैं और किसी को बनाना -बिगाड़ना उनके हाथ में है।विद्यालय के इधर के सभी शिक्षक कभी न कभी उनकी चपेट में आए थे और कहते थे कि वे उस समय बहुत बुरा व्यवहार करते हैं ।अपने आगे किसी की बात नहीं सुनते।सफाई का मौका तक नहीं देते ।अपनी ही बात ऊपर रखते हैं।एक बार जो सोच लेते हैं या निर्णय कर लेते हैं,उससे टस से मस नहीं होते। उम्र में बड़े,अनुभवी और उच्च- शिक्षित का भी मान नहीं रखते।सभी को एक ही लाठी से हांकते हैं ।यह सब सुनकर मैं फूंक -फूंककर कदम रखती ताकि ऐसी स्थिति का सामना न करना पड़े।
पर आखिरकार ऐसी स्थिति आ ही गयी और मुझे उनका वह रूप देखना पड़ गया ,जिसके बारे में अब तक सिर्फ सुना था।