कपूत बेटा राज बोहरे द्वारा मनोविज्ञान में हिंदी पीडीएफ

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कपूत बेटा

दफ्तर में सबसे बड़ी चिकचिक हुई थी इसलिए सर बिना रहा था । वह दफ्तर से बाहर निकल कर सड़क पर यूं ही खड़ा हो गया था। रिस्ट वॉच पर निगाह डाली तो पता लगा कि शाम हो चुकी है । झल्लाते हुए सोचा कि हमारे देश में कैसा है यह दफ्तरी जीवन ? न सुबह होते मालूम होती है ,ना शाम होती जान पड़ती! बस एक ही खटराग में उलझे रहो- दफ्तर ,अफ़सर और दफ्तर की नस्तियां !
मन को विचारों से छुटकारा देकर मैंने घर की ओर कदम बढ़ाए । घर के पास आते ही जैसा कि हर बार होता है, हृदय में एक ऊब सी भर आई ।
वे अभी पहले ही कमरे में बैठे होंगे, घुसते ही रोकेंगे, शिकायतों की लंबी फेहरिस्त सुनाने लगेंगे । सगे बाप हैं, कैसे रोकूँ,कैसे अनदेखा करूँ,क्या करूं ? एक क्षण को रुका तो , पर घर के अंदर जाना था , सो दूसरे ही पल प्रवेश किया।
बैठक से सीधा दरवाजा आँगन में के खुलता है और बैठक में खुलते हुए दरवाजे के पार दांए तरफ उनका कमरा है, मैंने जानबूझकर उधर नजर नहीं की और बैठक पार करके भीतर जाने वाले दरवाजे पे पाँव रखा।
यहीँ आके मुझे लगा कुछ गड़बड़ है , मैंने डरते हुए दाएं तरफ उनके कमरे की तरफ देखा -अरे आज उनका कमरा तो अंधेरे में डूबा है ! सन्नाटे में भी !
एक पल को राहत हुई कि चलो आज रोज साँझ की बकबक से छुटकारा मिला।
फिर एकाएक ध्यान आया ख़ूब शाम हो चुकी है , अंधेरा फैल चुका है, फिर भी उनके कमरे में अंधेरा क्यों है ?क्या बात है?
आँगन में झांका तो उस रसोई को भी बन्द पाया जो सुबह से साँझ तक अखण्ड भंडारे की तरह जागती रहती थी,कभी चाय,कभी काढ़ा तो कभी जलपान तैयार करने के लिए।
मैं बरबस उधर चला गया । वहाँ वहीं दम घोंटू वातावरण था। सांस रुकी हुई थी। लगा अब रोकते हैं -कौन है ? लेकिन नहीं किसी ने नहीं टोका ।कोई आवाज नहीं थी ।निर्जन सन्नाटा था । मैंने हाथ बढ़ाया और स्विच दवा दिया। कमरे में भीना सा उजाला फैल गया ।
अब तो मेरी हालत और भी खराब थी, कमरा सुनसान पड़ा था । ना उनकी खटिया ,ना दवाओं की अलमारी और ना उनके मिलने वालों के लिए बिछाई , बैंच! सब कुछ नदारद था !
कमरा बंद कर मैं अंदर की ओर बढ़ा। अंदर एक अजीब सी शांति थी ,वैसी ही शांति जैसी तूफान के आने के पहले या बाद में होती है । घर में तूफान के बाद की ही शांति थी । लग रहा है तूफान तो आ चुका था ,बस उसके अवशेष ही शेष थे। अंदर भी शिवाय एक कमरे के सभी कमरों में अंधेरा था। मेरा मन आशंका में डूबा मे जा रहा था- आखिर क्या बात हो गई है ?
सभी कमरों में रोशनी के वास्ते बल्ब जलाता में उसी कमरे में पहुंचा, जहां पहले से रोशनी थी।
देखा कि बच्चे चुप बैठे हुए हैं, पत्नी भी बैठी है।सब चुप ।सब के माथे पर चिंता नाच रही है ।इससे बड़ी सोच में डूबे हुए से बैठे थे, मानो मेरे आने का उन्हें पता ही ना लगा हो।
मैं भी घर के इस मनहूस वातावरण के असर में आ गया और एक कोने में बैठ जा बैठ कर बैठ गया।
छोटा बच्चा मुझे देखकर मेरे पास आ गया और तोतली आवाज में -पप्पा, बापू ने आज फिर ललाई की औल अपने दूसरे मकान में चले गए ।
मेरी निगाहें अनायास पत्नी की तरफ गयीं जो निर्निमेष मुझे ही तक रही थी।
उनकी दृष्टि मुझसे सहन ना हो सकी, उनसे कुछ पूछने का साहस न था और मैं बच्चे को लेकर बाहर चला आया।
बैठक के दरवाजे से मैंने देखा बच्चे की निगाहें भी उसी और उठ गई थी - सौ कदम दूर हमारा दूसरा मकान था , जिसमे पहले किराएदार रहते थे और कुछ दिनों से बापू ने किरायेदारों को देना बंद कर दिया था। पहले हमने सोचा कि ऐसा क्यों है? बाद में पता लगा कि वे उसे सुरक्षित करना चाहते थे । उस मकान के सामने का दरवाजा खुला हुआ था और वहां रोशनी के लिए जलती लालटेन यहीं से दिख रही थी। सामने ही खटिया बिछी थी। इस लालटेन के हल्के उजाले में एक मानव आकृति नजर आ रही थी। माथे पर साफा,हाथ मे गुटान । कभी-कभी खास तो नहीं बस उनकी हुंकारी का स्वर यहाँ तक सुनाई दे रहा था ।यही थे बापू।
जो अक्सर इन्हीं बिना बात, बिना कारण, किसी भी छोटी सी बात से रिसा कर मुझे छोड़कर वहां रहने चले जाते थे। पत्नी और उनकी लड़ाई का कारण खोजने में मैं असमर्थ हूँ। यह बात हमेशा से नही रही है ,चार वर्ष पहले तक तो बापू मेरी पत्नी को साक्षात् देवी मानते थे । उनकी बनाई हर चीजों की प्रशंसा करते थे , पर एक दिन जाने क्या हुआ, हम सबसे नाराज हो गए और उस दिन दोपहर का खाना खाते हुए चिल्लाते हुए उन्होंने कहा -कभी जली हुई और कभी कच्ची रोटी , क्या तुम मुझे मारना चाहती हो ?
वह ह₹ बात सुनी तो हम सब लोग अचरज में थे। उस दिन से वे केवल मां के हाथ का बना ही खाना खाते हैं । लेकिन फिर भी कलह मिटी ना थी और वे अक्सर झल्लाते रहते थे -बिना वजह पत्नी पर नाराज होते रहते थे ।
इन दो वर्षों में वे चाहे जब रूठ कर मां को साथ लेकर अपना खाना बनाने का सामान लेकर उस खंडहर से पुराने मकान में जाने लगे थे ।
ऐसा कई बार हुआ था । पर बस कुछ दिन।

एक बार की बात दिन कोई त्यौहार था और उनको सबक सवार हुई थी , उस मकान में जाने की तैयारी करने लगे।
सुबह शायद पत्नी ने माँ से अदब से बात करके घर से बाहर न जाने का अनुरोध करते हुए कहा था के "अम्मा साल भर का त्यौहार है ,यही मना लो! वरना लोग क्या कहेंगे , कि इकलौता बेटा है और बाप मत्ताई अलग रोटी बना रहे हैं ।"
तो मां तैयारी करते करते रुक गई थी और बापू न जाने की बात जानकर एकदम आग बबूला हो उठे थे शाम को जब मैं घर लौटा तो घर में कोहराम मचा हुआ था । पता लगा बापू का बोलना बंद था , उनकी नब्ज़ गायब थी, डॉक्टरों वैद्यों का जमघट लगा हुआ था । सभी के चेहरे तनाव में डूबे हुए थे । बड़ा बच्चा चीख चीख कर उनको जगा रहा था। तभी उन्हों ने आंखें खोली- बेटा क्या है?
उनकी आवाज में ना कंपन था, ना घबराहट ।
मैंने पल भर में ही सारा माजरा समझ लिया , झटके के साथ कमरे से निकल आया था और भीतर आंगन में चला गया था ।
उनके पास मौजूद सब लोग स्तब्ध से रह गए थे और सब एक-एक करके खिसकने लगे थे ।
कुछ देर बाद मैंने झांक कर देखा था बापू बड़े प्रेम से खाना खा रहे हैं और मां से बतिया भी रहे हैं । मैंने उनकी हुंकारी सुनी-"मुझे बेहोश देख के वह कुछ नहीं बोला और उसके माथे पर शिकन भी नहीं थी। कैसा कपूत बेटा पाया मैंने।"
यह शब्द मेरे तीर से लगे ,मैं सीधा पत्नी के पास पहुंचा -"तुमको क्या पड़ी है उन्हें रोकने की !वे कहीं भी जाएं ,कभी भी जाएं ,तुम्हें क्या करना ?जानती हो तुम्हारे कारण आज मैं मोहल्ले में भर में बदनाम हो गया हूं !"
पत्नी भी डरते हुए से स्वर में बोली- साल भर का त्यौहार है, आज के दिन भी बूढ़े -बुढ़िया अलग रहते अच्छे लगते क्या? हम सब पकवान खाते और वे दाल दलिया!"
सुनकर उससे सहमत होता हुआ मैं खून का घूंट पीकर रह गया था ।
अगले दिन मैं जब दोपहर को लौटा तो जैसी मुझे आशा थी , उस बंगले वाले कमरे का दरवाजा खुला था और बापू वहीं बैठे हुए गली की ओर देख रहे थे ।
ऐसा ही कई बार हुआ और वही आज हुआ। अचानक झटका सा लगा । मैंने पीछे मुड़कर देखा पत्नी पास में खड़ी थी ।शायद खाने को कहने आई थी। एक तो दफ्तर की तकरार ,उस पर घर का झगड़ा, मेरा मूड बिगड़ चुका था । मैंने छोटे बच्चे को उन्हें संभालवाया और खाने को मना कर दिया फिर जाकर चुपचाप अपने बिस्तर पर लेट गया।
उन दिनों मैं आते-जाते उधर देखता रहता था,उनसे बात करने की कोशिश में एक दो बार गया भी और उनसे वापस का निहोरा भी किया, पर बापू ने मुझसे बात ना की।
फिर उन्हें जाए जब लगभग 8 दिन हो चुके थे,उस दिन जब मैं घर की ओर बढ़ा तो आवाज आई - घनश्याम!
हठात मैंने मुड़कर देखा , वैध जी उसी कमरे के दरवाजे पर खड़े मुझे ही पुकार रहे थे । उन्होंने संकेत से मुझे बुलाया। उधर खिंचा साथ चला गया ।अंदर बैठ जाने के बाद बोले -बेटा बापू की तबीयत ज्यादा खराब है, इन्हें घर ले जाओ। मैं कुछ कह ना सका, सिर्फ हिलाकर हामी भरी और उठ कर चला आया ।
आते-आते मैंने बापू की वही गुर्राहट भरी हुंकारी सुनी थी जो वे अपना अनकहा गुस्सा जताने को निकालते थे। घर आकर मैंने बड़े बेटे को भेज दिया था । उनका सामान उठवाने को।
कुछ देर पश्चात बैठक के पास वाले दांये पुनः बापू की खटिया बिछे थी ,बेंच लगी थी और दूसरा सामान भी। उनके छोटे से किचन में खाने के बर्तन भी लग गए थे।
बाबू अपनी खटिया पर आराम से लेटे थे और मैं इंतजार कर रहा था उनका कि वे कब अपना महत्व प्रकट करने के लिए फिर से किसी बात का बतंगड़ बना कर बंगला में जा कर लेते हैं।