ऐतिहासिक कहानी-
महारानी लक्ष्मीबाई की अमर गाथा
“ तुम्हारे पति बिना संतान मरे हैं, इसलिये अब झाँसी पर हमारा कब्जा होगा ”
अंग्रेजों के सबसे बड़े अधिकारी लार्ड डलहौजी का जिस समय ऐसा पत्र मिला उस समय झाँसी की महारानी लक्ष्मीबाई तलवार बाजी का अभ्यास कर रहीं थीं। वे एकदम से आग बबूला हो उठीं,“ मैं अपनी झाँसी कभी नहीं दूंगी! ”
बात सन् अठारह सौ सत्तावन की है। यह घटना झाँसी नामक उस स्थान की है, जो इस समय दिल्ली - मुम्बई के रेल मार्ग के बीच ग्वालियर के पास एक बड़ा जंकशन है। उस समय यहां गंगाधर राव नामक मराठा शासक राज्य करते थे, जिनकी अचानक हुई दुखद मृत्यू के बाद मजबूरी में महारानी लक्ष्मीबाई के द्वारा सत्ता संभाल ली गई थी, इसी कारण ईस्ट इंडिया कंपनी के लार्ड डलहौजी ने यह हुकम भिजवाया था।
झाँसी ही नहीं, भारत वर्ष के कई राज्यों पर उन दिनों इंग्लैड की ईस्ट इंडिया कंपनी पर लालची नजर गड़ी हुई थी। बहुत पहले भारत में केवल व्यापार करने के लिए आने वाली इस कंपनी ने धीरे-धीरे छोटे-मोटे राजाओं से टैक्स वसूल करने के अधिकार प्राप्त किये और किसी न किसी बहाने पूरे भारतवर्श को अपनी जागीर बना लिया था। कंपनी का सर्वोच्च अधिकारी लार्ड डलहौजी जब इंग्लैड से भारत के लिये चला, तो सिर्फ एक लक्ष्य ले के आया था कि कंपनी शासन का विस्तार हो यानी कि छोटे-मोटे राज्य को ऐन-केन- प्रकारेण ईस्ट इंडिया कंपनी के अधीन करना है। उसने इसके लिए कई तरह के नियम बनाये, कई तरह की चालें चलीं।
“ हड़प नीति ” के नाम से जनता में प्रसिद्ध उसकी एक अजीब सी नीति सरासर दादागिरी की तरह चल रही थी। इस नीति के तहत नियम बनाया गया था कि जो भी राजा उस समय बिना किसी संतान के खत्म जो जाता, उसका राज्य ईस्ट इंड़िया कंपनी के राज्य में विलय कर हो जाता था। यदि कोई राजा निस्संतान होता और वह अपना वंश बढ़ाने के लिए लड़का गोद लेना चाहता था, तो उसे ईस्ट इंड़िया कंपनी से इजाजत लेना पड़ती थी। यदि बिना इजाजत गोदी ले लेता था तो उसकी रियासत भी कंपनी के राज्य में विलय हो जाती थी। झाँसी का मामला भी ऐसा ही था।
झाँसी के राजा गंगाधर राव की पत्नी लक्ष्मीबाई एक वीरांगना महिला थी। बचपन से ही वे बहुत साहसी और महत्वाकांक्षी थीं। मराठा सरदार मोरो पंत की वे इकलौती संतान थीं और लड़की होने के बाद भी उनकी सारी आदतें लड़कों की तरह की थीं। बचपन से ही लक्ष्मीबाई बरछी, तीर, कृपाण और तलवार का अभ्यास करती थी। घुड़सवारी, तैराकी और सेना सजाकर दुर्ग तोड़ने वाले अभ्यास यानी किलों पर आक्रमण करने के खेल लक्ष्मीबाई के प्रिय खेल थे। वे लड़कियों जैसे कोई खेल नहीं खेलती थी। अपनी साड़ी को वे इस तरह बांध लेतीं कि किसी भी तरह के फुर्ती भरे काम करने में उन्हे कोई दिक्कत नही होती थी।
लक्ष्मीबाई के बचपन के साथी नाना साहब थे जो खुद भी बचपन से सेनापतियों का अभिनय करते हुये सैनिकों जैसे खेल खेलते थे। इस वजह से इन दोनों में खूब गहरी पटती थी। लक्ष्मीबाई के पिता मोरो पंत मराठों के पेशवा के प्रमुख सलाहकारों में एक थे और मराठबाड़ा यानी आज के महाराष्ट़ में रहते थे।
लक्ष्मीबाई का विवाह झाँसी नरेश महाराज गंगाधर राव के साथ हुआ। गंगाधर राव एक अच्छे संगीतप्रेमी और विद्वान व कला प्रिय व्यक्ति थे। ब्याह के बाद लक्ष्मीबाई झाँसी आई तो अपनी वीरांगना सहेली काना और मुंदरा को साथ में लेकर आईं। झाँसी में उनकी मुलाकात अपने जैसी ही वीरांगना झलकारी बाई से हुई तो चारों पक्की सहेली बन गई। वे पुनः सैन्य अभ्यास में रूचि लेने लगीं।यहां आकर उन्होने तोप चलाना भी सीखा और बन्दूकबाजी भी सीखी।
रानी अपने पिता की इकलौती संतान थी सो कुछ दिन बाद अपनी बेटी की याद उनके पिता को झाँसी खींच लाई और वे भी झाँसी आ बसे।
कुछ दिन हंसी खुशी में बीते कि दुःख की घड़ियां आरंभ हो गई।लक्ष्मीबाई के पति महाराज गंगाधर राव बीमार हो गये। उनकी कोई संतान न थी सो एक मेधावी बालक दामोदर राव को महाराज और महारानी ने गोद ले लिया। नियमानुसार ईस्ट इंडिया कंपनी को इस गोदीनामे को मंजूरी के लिये भेजा गया। अ्रंग्रेज जानते थे कि झाँसी ऐसा राज्य है जो अपनी समृद्धि और राजनैतिक महत्व के कारण बुन्देलख्ंड का सबसे बड़ा है। इसलिए उन्हें लालच आ गया , उनकी नीयत में खोट आ गया।
कंपनी ने इस गोदीनामे को अमान्य कर दिया। झाँसी के रापपरिवार में उन दिनों गहरी उदासी के दिन थे। राजकाज में किसी की रूचि नहीं थी और सारे उत्सव और खुशी के समारोह बंद हो चुके थे।
अचानक रानी पर वज्रपात हुआ । महाराज गंगाधर राव की एक रात अचानक ही मृत्यु हो गई। रानी पागलों की तरह बिलख उठीं।
कोई उन्हें क्या समझाता! राजा भी युवा थे और रानी भी जवान थीं । पिता मोरो पंत के समझाने बुझाने पर रानी चुप हुई। फिर झाँसी राज्य के मंत्रियों ने रानी से प्रार्थना की कि वे राजगद्दी संभालें वरना अंग्रेज इस राज्य पर काबिज हो जायेंगे।
मरता क्या न करता ! अनमने भाव से रानी ने झाँसी की गद्दी सभाली, और एक बार फिर ईस्ट इंडिया के कंपनी के सबसे बड़े अधिकारी लार्ड डलहौजी को खुद के सतता संभालने की सूचना व दामोदर राव का गोदीनामा भेजा।
हिंदुओं की परंपरा है कि पति की मृत्यु के बाद यदि पुत्र न हो तो पत्नी राज्य को ग्रहण कर सकती है। लेकिन अ्रग्रेजों ने यह नियम नहीं माना। उन्होंने रानी से भी कहा कि वे गद्दी त्याग दें और चुपचाप अंग्रेजों को सत्ता सौंप दें।
लार्ड डलहौजी के पत्र को पढ़कर रानी ने कहा कि मैं अपनी झाँसी नहीं दूंगी। एक औरत के द्वारा अंग्रेजों को दिया गया यह दो-टूक जवाब बहुत कड़ा और चुनौती भरा था। यह समाचार झाँसी नगर और आसपास की रियायतों में आग की तरह फैल गया। जिसने भी समाचार सुना उसने रानी का हौसला बढ़ाया और उनकी तारीफ के लिये झाँसी आकर रानी से मिलने लगे।
रानी जानती थी कि अंग्रेज फौज इस समय बहुत ताकतवर है, उससे अकेला लड़ना संभव नहीं है। उन्होंने अपने खास दूत के मार्फत बहुत सारी रियासतों के राजा-नवाबों को खबर भेजी कि झाँसी के साथ बहुत अत्याचार हो रहा है। आज झाँसी है तो कल कोई दूसरी रियासत के साथ ऐसा होंगा। इसलिये रानी का संदेश था कि सारी भारतीय रियासतें मिलजुलकर अंग्रेजी कंपनी का मुकाबला करें और इसे देश से बाहर निकाल कर फेंक दें। रानी ने तमाम जासूस और दूत भेज कर जनता के मन की बात जानना चाही। उन्हे दूतों के मार्फत पता लगा कि अंग्रेजों की हड़प नीति के विरोध में बिठूर, सतारा, कानुपर, बरेली आदि कई रियासतों में विद्रोह की आग सुलग रही है। लोगों ने गुप्त बैठकें की है।
कानुपर के तांत्या टोपे ने रानी को मदद का भरोसा दिलाया तो और कई लोगों ने इसी तरह की खबरें भेजीं, जिससे रानी का साहस कई गुना बढ़ गया।
रानी को पता लगा कि अंग्रेजी फौज में भर्ती तमाम हिन्दुस्तानी सिपाहियों में विद्रोह की आग सुलग रही हैं। अगर ऐसे फौजी क्रांतिकारियों के साथ हो गये, तो यह लड़ाई कठिन नहीं होगी। अंग्रेज बहुत कमजोर हो जायेंगे।
आम जनता में भी कंपनी के प्रति विद्रोह की बात इस कदर फैल रही थी कि गुपचुप तरीके से एक गांव से दूसरे गांव तक संदेशे भेजे जाते और लड़ाई के लिये तैयार रहने को कहा जाता। क्रांति के लिये गुप्त नमूने के रूप में कमल का फूल और गेहूं की रोटी को चुना गया। उन दिनों गुपचुप एक गांव से दूसरे गांव तक ये दोनों चीजें भेज कर स्वतंत्रता संग्राम की अलख जगाई जा रही थीं।
राजा-नवाबों से लेकर फौजी और किसान तक इस लड़ाई के लिये तैयार हो रहे थे। लग रहा था कि इस बार के हल्ले में दिल्ली फतह हो जायेगी। विद्रोह शुरू करने की तारीख इकतीस मई अठारह सौ सत्तावन तय हो चुकी थी। क्रांतिकारियों यानि कि स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने सारा कार्यक्रम तय कर लिया था। रानी लक्ष्मीबाई इंतजार कर रही थीं कि क्रांति आरंभ हो और वे भी झाँसी के आसपास के इलाके में बसी अंग्रेजी फौज पर टूट पड़ें।
देश के क्रांतिकारियों केा तेज झटका लगा क्योंकि अचानक फौज के एक सिपाही मंगल पाण्डेय ने मेरठ की फौजी छावनी में अपने कुछ साथियों के साथ दस मई अठारह सौ सत्तावन यानी कि तय की गई तारीख के इक्कीस दिन पहले हीे क्रांति की शुरूआत कर डाली। सारा मामला बिगड़ गया। पूरी तैयारी के बिना शुरू हो गये इस स्वतंत्रता संग्राम का मुहूर्त ही खराब कर हो गया। मंगल पांडेय और उसके साथियों को जेल में डाल दिया गया और मंगल पांडेय को तुरत-फुरत फांसी पर चढ़ा दिया गया।
देश भर में तरह तरह की अफवाहें फैल गई। सब जगह भागमभाग शुरू हो गई। क्रांतिकारियों का बना बनाया खेल बिगड़ गया। न तो सही जगह पर लोग इकट्ठे हो पाये न ही हथियार पहुंच सके। अंग्रेजों के सामने कुछ दगाबाज लोगों ने क्रांति की पूरी योजना बता दी तो वे सख्त हो गये। कंपनी ने अपनी वफादार सेना को ऐसी जगहों के लिए भेजना शुरू कर दिया, जहां का राज्य उनके हाथ से फिसल सकता था। एक फौज झाँसी भी भेजी गयी।
इधर रानी लक्ष्मीबाई को भी ऐसी भनक लगी कि अंग्रेजी फौज उन्हें बेदखल करने के लिए झाँसी के किले को घेरने वाली है। उन्होंने किले की दीवारो और बुर्गो की मरम्मत कराने के साथ-साथ तोपे और गोला-बारूद इकट्ठा करना शुरू कर दिया। झाँसी की फौज को लड़ाई के लिए तैयार रहने को कहा गया तो महिलाओं ने भी पीछा रहना उचित न समझा। काना, मुंदरा और झलकारी बाई ने महिला बिग्रेड की तैयारी करना शुरू कर दी।
रानी का शक सच निकला।
एक रात अचानक ही कंपनी की सेना ने झाँसी के किले को घेर लिया और गोलाबारी शुरू कर दी। गोले आ-आकर दीवारों और बुर्जो पर लगने लगे। कुछ गोले सीधे सैनिकों को आकर लगे तो बेचारे मौके पर ही शहीद हो गये।
रानी ने भी अपने तोपचियों को हुकम दिया कि ईंट का जवाब पत्थर से इिया जाय। झाँसी की कड़क बीन और बिजली नामक तोपें आग उगलने लगीं। जिनके गोलों ने अंग्रेजी सेना पर कहर बरपा दिया।
रानी घूम-घूमकर हर तोपची को उकसा रही थी कि पूरे उत्साह के साथ गोलाबारी करें, हम सुरक्षित है आखिर में जीत हमारी ही होगी। रानी का कहना सच था, रानी की फौज किले में थी और कंपनी की फौज बाहर खुले मैदान में, इसलिए सारे हालात रानी के पक्ष में थे। रानी को चिन्ता में डालने के लिए कंपनी के अफसरों ने झाँसी शहर की प्रजा के साथ लूटपाट और मारपीट शुरू कर दी थी। सुना तो रानी तड़प कर रह गई, लेकिन टूटी नहीं।
कई दिन तक लड़ने के बाद कंपनी की फौजें रानी का बाल भी बांका नहीं कर सकीं। फिर ऐसी घटना घटी कि रानी का जिसकी आशंका ही न थी। दुूल्हाजी नाम के एक विश्वासपात्र किलेदार ने न जाने किस लालच में आकर किले का एक द्वार खोल दिया। रानी को बड़ा सदमा लगा। लगा कि अब बाजी हाथ से जाने वाली है। किले के द्वार से होकर कंपनी की फौज किले के अंदर घुस आई और सैनिकों में आमने सामने की लड़ाई होने लगी।
रानी की सहेली काना और मुंदरा आनन-फानन में तैयार हुईं और वे अपने दूसरे सैनिकों के साथ अंग्रेज सेना पर टूट पड़ीं। उन्होने तलवारबाजी के ऐसे जौहर दिखाये कि सैकड़ों सिपाही मौत के घाट उतर गये। लेकिन रानी का भी कम नुकसान नहीं हुआ, बहुत से वफादार सैनिक शहीद हुये, बहुत घायल हुए। यह हालत देख कर होशियार वीरांगना झलकारी बाई को अंदाजा लग गया कि कंपनी की बड़ी फौज का मुकाबला झाँसी के मुट्ठी भर जांबाज सैनिक ज्यादा देर तक नहीं कर पायंेगे। सो उन्होेंने महारानी लक्ष्मीबाई को सलाह दी कि वे अपने कुछ खास सैनिकों के साथ ही तुरंत किला छोड़ दें क्योंकि जान है तो जहान है।
रानी को झलकारी बाई की यह सलाह जंच गई और उन्होंने अपनी पीठ पर दामोदर राव को बांध और अपने प्रिय घोड़े पर बैठकर किले के पिछले हिस्से में मौजूद शिव मंदिर के पास वाली दीवार की ओर बढ़ गई। क्योंकि अब तक किले के सारे दरवाजे कंपनी की फौज के कब्जे में आ गये थे।
योजना के मुताबिक रानी लक्ष्मीबाई जैसी पोशाक पहन घोडे़ पर बैठकर झलकारी बाई रानी से उल्टी दिशा में बढ़ी और अंग्रेज कैप्टन फ्र्रेडरिक जिस जगह युद्ध कर रहा था, वहां जा पहुंची।
दुश्मन ने समझा कि रानी लक्ष्मीबाई स्वयं आ गई है, सो सब लोग चारों ओर से उसी जगह इकट्ठा हो गये और झलकारी बाई को घेर लिया। उधर रानी को दीवार पर सूना मैदान मिला तो उन्होंने किले की दीवार से ही घोड़े को ऐड़ लगा दी। घोड़ा भी बहुत साहसी और वफादार था। उसने चारों टापे हवा में लहरा दी और रानी सहित क्षण भर में ही दीवार के नीचे के मैदान में आ पहुंचा। रानी तेज गति से घोड़ा दौड़ाते हुए झाँसी नगर के बड़ा गांव गेट से बाहर निकलकर कालपी की दिशा में बढ़ चली। किले के नीचे इंतजार कर रहे रानी के वफादार कुछ सैनिक रानी के पीछे पीछे चल पड़े थे। तांत्या टोपे से खबर मिली थी वे कालपी आ जायें वहां रानी को मदद की जायगी।
एक सौ मील का फासला पार करके रानी कालपी पहुंची, लेकिन लगातार दौड़ते रहने के कारण अब तक रानी का बहादुर घोड़ा बेहद थक चुका था। धड़ाम से यकायक वह घोड़ा जमीन पर गिरा और तुरंत ही उसके प्राण पखेरू उड़ गये। रानी के सैनिकों ने उनको नया घोड़ा दिया जिस पर बैठ रानी आगे बढ़ने लगी।
रानी को कालपी के पास यमुना तट पर बहुत से अंग्रेज सैनिक दिखे जिन्होंने रानी को देखते ही तुरंत ही मोर्चा संभाल लिया। रानी के सैनिकों ने उन समस्त सिपाहियों को मौत के घाट उतार दिया और रानी से कहा कि ऐसा लगता है कि कालपी पर अंग्रेजों का कब्जा हो गया है इसलिये यहां तांत्या टोपे नहीं आ सके हैं । आपको मदद नहीं मिल सकेगी
अब रानी ने तुरंत ही अपना रास्ता बदला । वे यमुना के किनारे-किनारे अपना घोड़ा दौडाने लगी। बिना रूके थकी-हारी रानी लगातार चलती रहीं और वे अगले दिन ग्वालियर आ गई।
संयोग से ग्वालियर का किला खाली पड़ा था। रानी ने वहां कब्जा किया और अपना झण्डा फहरा दिया।
उधर झाँसी में झलकारी बाई ने अंग्रेज सैनिकों का अपनी ताकत भर मुकाबला किया। लेकिन एक स्त्री इतने लोगों से कब तक लड़ती ? लगभग एक सौ पचास दुश्मनों को मारकर झलकारी बाई वीरगति को प्राप्त हुई। तब लोगों को असलियत पता लगी कि ये तो रानी की सखी झलकारी बाई है। रानी लक्ष्मीबाई तो जाने किस रास्ते से झाँसी से निकल चुकी हैं।
कालपी की पराजय की खबरें झाँसी पहुंची तो कंपनी की सेना रानी के पीछे लग गई।
कंपनी के बड़े अफसरों को रानी के बारें में पल-पल की खबरें मिल रही थीं। उन्हे जब यह पता लगा कि रानी ने इस वक्त ग्वालियर के किले पर कब्जा जमा लिया है, तो अंग्रेजों की एक बड़ी सेना ग्वालियर की ओर चल पड़ी।
उधर आगरा से भी जनरल हयूरोज के नेतृत्व में एक सेना ग्वालियर की ओर बढ़ी। दो दिन बाद रानी फिर अंग्रेजों की फौज से धिरी थी।
यहां न तो रानी के पास ज्यादा सेना थी और गोला बारूद। सो रानी ने कुशल रणनीति अपनाई और दामोदर राव को पीठ पर बांधकर झाँसी की तरह ग्वालियर किले के एक ओर से घोड़ा को नीचे कूदने के लिए ऐड लगा दी। घोड़े सहित रानी किले से नीचे उतरी और एक तरफ बढ़ ली। पीछे से अंगं्रेज सैनिक भी लपके चले आये।
रानी का घोड़ा इतनी ऊंचाई्र से कूदने के कारण थक चुका था कि यकायक सामने एक नाला आ गया, जिसे देख वह अड़कर खड़ा हो गया। रानी को अपना पुराना घोड़ा याद आया जो ऐसे छोटे मोटे नालों को पलक झपकते पार कर लेता था।
रानी घोड़े की पीठ से उतरी और नीचे खड़ी होकर आने वाले सैनिकों से भिड गई। कई सैनिक मरे, कई घायल हुए लेकिन वे तो चींटियों की तरह बढ़ते जा रहे थे। रानी थक गई। उनकी तलवार कई जगह से भोंथरी हो गई।
....और उन दुष्टों ने चारों ओर से घेर कर रानी पर हमला कर दिया। रानी बुरी तरह घायल हुई फिर जमीन पर गिर पड़ी।
समीप ही बाबा गंगादास की कुटिया थी, जहां लगभग सौ साधु संत विश्राम कर रहे थे। उन्हें पता चला कि झाँसी वाली रानी को स्वर्ण रेखा नाले के पास अंग्रेजों ने घेर रखा है तो वे सब आनन-फानन में अपने त्रिशूल लेकर उधर ही दौड़ पडे़।
इतने साधुओं को देखकर सिपाही सिर पर पैर रखकर भाग निकले और साधुओं ने रानी की बेजान देह को संभाल लिया।
दामोदर राव भी अचेत थे। उन्हें तुरंत ही एक साधु के हाथ गुप्त स्थान पर भेज दिया गया और रानी के शव को पूरे सम्मान के साथ घास के बड़े बंडल पर लिटाकर आग को सौंप दिया गया। साधुओं ने सुरक्षा की दृष्टि से तुरंत ही वह स्थान छोड़ा और अज्ञात स्थान को प्रस्थान कर गये।
अंग्रेजों की सेना ने बहुत तलाश किया लेकिन उन्हें न दामोदर राव मिले न ही रानी का शव। रानी तो मर के भी अमर हो गई थी।
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