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चतुर दर्जी

लोक कथा- चतुर दर्जी

सत्यप्रकाश नाम का दर्जी कपड़े सीने में बड़ा माहिर था। वह नयी-नयी डिजायन के कपड़े सीता था। इस कारण उसके यहाँ ग्राहकों की भीड़ हमेशा ही मौजूद रहती थी। बुद्धि की एक आदत खराब थी, वह कपड़ा चुराने में पूरी चतुराई लगा देता था। जब कोई ग्राहक कपड़े सिलवाने के लिये उसे नाप दे जाता तो सत्यप्रकाश कपड़ा काटते समय हर वस्त्र में से थोड़ा सा कपड़ा बचा के रख लेता। इसी आदत के कारण सत्यप्रकाश कोे लोग सत्तू दर्जी के नाम से पुकारते थे।

सम्पत प्रसाद नाम का मुनीम खुद को बड़ा चतुर समझता था। एक बार उसने अपने दोस्त के बीच शर्त लगाई कि वह इस बार जो कपड़े सिलवायेगा उसमें से सत्तू दर्जी थोड़ा सा भी कपड़ा नहीं चुरा सकेगा।

सम्पत मुनीम ने अपने लिए कमीज का एक कपड़ा खरीदा और सत्तू दर्जी की दुकान पर जा पहुँचा। सत्तू ने मुनीम का नाप लिया और कपड़ा देखकर कहा कि इसमें से कमीज सिल जावेगी। सम्पत ने समझा कि सत्तू तो बड़ी आसानी से कह रहा है कि कमीज सिल जायेगी इसका मतलब इस कपड़े में से कुछ और कपड़ा बच सकता है। एक मिनट रूक कर मुनीम बोला ’’क्यों सत्तू इस कपड़े में से एक कमीज के अलावा एक बनियान भी सिल सकते हो क्या ?’’

’’सत्तू ने कहा क्यों नहीं सिल सकती जरूर सिल सकती है।’’

मुनीम सम्पत को अब भी शक की गुजांयस नजर आई। उसने कहा एक कमीज बनियान के साथ एक रूमाल भी निकाल सको तो अच्छा होगा।’’

सत्तू बोला- ’’निकाल दूंगा।’’

अब मुनीम बड़ा खुश हुआ और घर लौटने को हुआ तो सत्तू ने कागज का वह पर्चा से वापस लौटा दिया जिस पर कमीज का नाप लिखा था। सम्पत ने पूंछा-’’तुम्हें इसकी जरूरत नहीं है क्या ?’’

सत्तू बोला- ’’अब इसकी जरूरत नहीं है।’’

सम्पत समझा कि सत्तू को मेरी कमीज का नाप याद हो गया होगा। इसलिये यह पर्चा वापस कर रहा है। वह खुशी-खुशी नाप का पर्चा लेकर वापस आ गया।

पन्द्रह दिन बाद जब सम्पत मुनीम अपने सिले हुये कपड़े लेने दर्जी के पास गया तो दर्जी ने एक पैकेट में बांधकर रखे सिले कपड़े उसे वापस कर दिये और अपनी सिलायी की मजदूरी ले ली।

बड़े गर्व के साथ कपड़ों का बंडल लिये सम्पत अपने दोस्तों के बीच पहुँचा और बोला-’’मैंने एक कमीज के कपड़े में से तीन कपड़ा बनवा लिये। सत्तू दर्जी सारी बदमाशी भूल गया होगा।’’

दोस्तों के आग्रह पर जब बंडल खोला गया तो सम्पत को काटो तो खून नहीं। उसमें कमीज, बनियान और रूमाल तो निकले, लेकिन कपड़ों का आकार सम्पत मुनीम के अनुरूप न होकर किसी छोटे से बच्चे के नाप का था। सम्पत के दोस्त हंस पड़े और बोले कि ’’हमने तुम्हारे नाप की कमीज बनवाने की शर्त रखी थी। तुम्हारे बच्चे के नापकी कमीज बनवाने की नहीं। तुमने हमको धोखा दिया है, अतः शर्त हार गये हो।’’

सम्पत को बहुत गुस्सा आया तो वह सत्तू दर्जी के पास जाकर बुरा भला कहने लगा। सत्तू मीठी आवाज में बोला-’’मुनीम जी, मैंने आपके नाप का पर्चा तो आपको ही लौटा दिया था। इसलिये मैं आपके नाप की कमीज कैसे बना पाता। और फिर एक कमीज के कपड़ा में से तीन कपड़ा कैसे बन जाते ?’’

शर्मिन्दा होकर मुनीम लौट आया पर उसने सत्तू दर्जी को सबक सिखाने का निर्णय ले लिया।

कुछ दिन बाद की बात है संपत मुनीम के मालिक लखपतिराम के यहाँ बेटे की शादी थी। सेठ के पूरे घर के सदस्यों के लिये कपड़े सिले जाना थो। सेठ ने मुनीम को यह जिम्मेदारी दी कि वह सामने बैठकर सत्तू से कपड़े सिलवाये और ध्यान रखें कि सत्तू कपड़ा न बचा पायें।

सम्पत बोला-’’मैं पूरे समय सत्तू के पास बैठूंगा और उसे कपड़ा नहीं बचाने दूंगा। मैं वादा करता हूँ कि अगर मेरे होते हुये सत्तू कपड़ा बचा ले तो मैं अपनी मूंछ मुड़वा लूंगा।’’

सत्तू को मुनीम की यह प्रतिज्ञा पता लगी तो वह मुस्करा पड़ा। उसे संपत मुनीम की काली और बड़ी-बडी झबरीली मूंछे याद आने लगी।

सेठ लखपतिराम ने कपड़ा के दुकानदार के यहाँ से एक डिजायन के कपड़े का पूरा थान ही खरीद लिया, ताकि घर भर के कपड़े बन सकें। और बाजार में उस डिजायन का कपड़ा ही शेष न बचे। और यदि दर्जी कपड़ा बचाये तो तुरंत पता चल जाये।

संपत मुनीम ने रोजाना सत्तू दर्जी के यहाँ बैठना शुरू किया। कपड़ा कटना और सिलाई होना शुरू हो गया। संपत मुनीम रोज अपना खाना बंधवा कर दुकान पर आ जाता और सत्तू के सामने बैठकर ही खाने के वक्त खाना खाता। अर्थात् वह दुकान से एक पल को भी न हटता। रात को दुकान बंद करते समय मुनीम अपने सामने पूरा कपड़ा एक सन्दूक में बंद करके ताला लगाके खुद चाभी ले कर घर जाता।

अभी काम शुरू हुये तीन चार दिन बीते थे कि सत्तू का बारह-तेरह साल का लड़का दुकान के बाहर खड़ा हो गया और बोला-’’पिताजी आपको अम्मा बुला रही है।’’

सत्तू बोला जाओ मैं काम कर रहा हूँ।’’

लड़का चला गया मगर कुछ देर बाद फिर लौट आया। वह फिर अपने पिता को बुलाने लगा। सत्तू ने फिर उसे लौटा दिया। आधार घंटे बाद लड़का फिर आ गया।

अब सत्तू उससे नाराज होकर बोला-’’तुम यहाँ से भाग जाओ नहीं तो ऐसी पिटाई लगाऊँगा कि ठीक हो जाओंगे। ’’

मगर लड़का टस से मस न हुआ।

सत्तू को गुस्सा आया और उसने सामने रखा अपना एक जूता उठाकर लड़के को दे मारा। लड़के ने लपककर जूता उठाया और भाग गया। मुनीम हंसते हुये यह प्रसंग देख रहा था।

शाम को वह लड़का फिर आया तो दर्जी ने दूसरा जूता फेंक कर मार दिया और लड़का वह जूता भी उठा ले गया।

कुछ दिन बाद जब सारे कपड़े सिल गये तो गर्व से अकड़ते मुनीम जी कपड़े लेकर सेठ के पास जा पहुँचे और बोले-’’सेठ जी सत्तू को मैने जरा सा भी कपड़ा नहीं बचाने दिया है।’’

सेठ बड़े खुश हुये और पूंछने लगे कि सत्तू अपनी मजदूरी कब लेने आयेगा ? तो मुनीम ने बताया कि वह कल आकर मजदूरी ले जायेगा।

अगले दिन सत्तू मजदूरी लेने आया, तो सेठ और मुनीम उसे देखकर हैरान रह गये-वह उसी कपड़े की कमीज पहने था जो सेठ ने सत्तू के पास सिलने भेजा था।

सेठ ने सत्तू से पूंछा ’’हमारे मुनीम की कड़ी चौकसी के बाद भी तुमने ये कपड़ा कैसे बचा लिया ?’’

मुस्कराता सत्तू बोला-’’सेठ जी अगर आदमी बदमाशी करने की ठान ले तो लाख चौकसी के बाद भी अपना काम कर डालता है।’’

मुनीम तो पानी-पानी हो गया था। वह बोला-’’लेकिन यह कैसे हो गया सत्तू भाई ?’’

सत्तू ने कहा-’’मुनीम जी आपको याद होगा कि मैंने दो बार अपने लड़के को जूता फेंक कर मारा था। उसके पहले मौका पाकर मै।ने दोनों जूतों में दो-दो मीटर कपड़ा छिपा दिया था। बस वह चार मीटर कपड़ा हमारे घर पहुँच गया था। उसी से यह कमीज बना ली मैनें।’’

फिर क्या था, प्रतिज्ञा के मुताबिक संपत मुनीम को अपनी मूंछे मुड़वाना पड़ी और सत्तू की चतुराई की सब लोग तारीफ करने लगे।

एक बार की बात है कि सेठ लखपतिराम के यहाँ विदेश से कोई कपड़ा आया। उस कपड़े का डिजायन सबसे अनूठा और अलग था। कमीज सीने के लिए देते वक्त सेठ लखपतिराम ने हिदायत दी कि-’’सत्तू तुम चाहे जितनी मजदूरी ले लो, पर इस कपड़े में से जरा सा कपड़ा भी मत बचाना, हां फिर भी यदि तुम कपड़ा चुरा लोगें तो याद रखना कि मेरे इस विदेशी कपड़े की कतरन लगा कपड़ा जो व्यक्ति पहनेगा, मैं उसके कपड़े ही नोच लूंगा।’’

सत्तू समझ रहा था कि चुराये गयेय कपड़ों के टुकड़ वह हमेशा अपने कपड़ों में जोड़ता है, इसलिए सेठ का इशारा उसी की ओर है।

पर सत्तू तो सत्तू था, उसने सेठ के कपड़े में से भी एक टुकड़ा बचा ही लिया, और वह सोचने लगा कि इस टुकड़ा को कहाँ लगाये, अचानक उसी दिन पुलिस दरोगा रणजीत सिंह ने एक कमीज सीने के लिये दी, तो सत्तू की बांछें खिल गई। उसने सेठ लखपतिराम के कपड़े का वह उम्दा डिजायन के टुकड़े की कालर बनाके दरोगा जी की कमीज मंे लगा दी। दरोगा जी के कपड़े का टुकड़ा बचा के उसने अपने उपयोग ें ले लिया। सेठ ने उसे मुंहमांगी मजदूरी दी।

कुछ दिन बाद की बात है, नगर में एक बार एक शानदार जश्न था। उस जशन में सेठ लखपतिराम अपनी नई (विदेशी कपड़े की़) कमीज पहनकर आया था। गले में सोने की मोटी जंजीर को कमीज की कालर के ऊपर झुलाता हुआ वह बड़ा इतरा रहा था। अपने मित्र सेठ गनेशीमल से वह कह रहा था-मेरी कमीज का कपड़ा हजारों रूपये का है। पूरे नगर में इस कपड़े की टक्कर का कपड़ा नहीं मिलेगा।’’

तभी वे दोनों चौंक उठे। दरोगा रणजीतसिंह उस जश्न में पधार रहे थे और वे भी नई कमीज पहने थे। उनकी कमीज में लखपतिराम के विदेशी कपड़े की कालर लगी थी।

सेठ लखपतिराम को काटो तो खून नहीं। उसने अपने मित्र गनेशीमल से नजरें मिलाने का साहस नहीं बचा था। वह चुपचाप जश्न मंें से खिसक आया। कुड़ते हुए मन ही मन वह सत्तू दर्जी को बहुत दिनेां तक गालियां देता रहा था, पर सामने पड़ने पर कुछ कहने की हिम्मत नहीं कर पाता था। लखपतिराम को देेखकर उधर सत्तू दर्जी प्रायः अपनी चतुराई पर मन-ही-मन मुस्कराता रहता था।

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