कर्ण पिशाचिनी - 1 Rahul Haldhar द्वारा डरावनी कहानी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • Lash ki Surat

    रात के करीब 12 बजे होंगे उस रात ठण्ड भी अपने चरम पर थी स्ट्र...

  • साथिया - 118

    अक्षत घर आया और तो देखा  हॉल  में ही साधना और अरविंद बैठे हु...

  • तीन दोस्त ( ट्रेलर)

    आपके सामने प्रस्तुत करने जा रहे हैं हम एक नया उपन्यास जिसका...

  • फाइल

    फाइल   "भोला ओ भोला", पता नहीं ये भोला कहाँ मर गया। भोला......

  • दरिंदा - भाग - 3

    प्रिया को घर के अंदर से सिसकियों की आवाज़ लगातार सुनाई दे रह...

श्रेणी
शेयर करे

कर्ण पिशाचिनी - 1

क्योंकि मेरी तरह आप भी हिंदी भाषी राज्य में रहते हो तो कहानी में जिस जगह का उल्लेख किया गया है वह आपको पता नही होगा । जगह का नाम बोलपुर है जो बंगाल के बीरभूम जिले में उपस्थित हैं । यह जगह ठाकुर रवीन्द्रनाथ टैगोर के शांतिनिकेतन विश्वविद्यालय और 51 शक्तिपीठों में से एक देवी कंकालेश्वरी /कंकालीतला देवी के लिए प्रसिद्ध है जो कोपाई नदी के किनारे कंकालीतला नामक गाँव में उपस्थित है । यह मंदिर तांत्रिक व कापालिकों का बहुत प्रिय स्थान है क्योंकि यहाँ देवी काली की मूर्ति जागृत बताई जाती है ।
------------------------------------------------

यह कहानी इस वक्त की नहीं है । यह लगभग 1950 - 60 दशक की कहानी है जब लोग दिन की हवा , छाया और रात को अनजाने भूत - प्रेत के डर से सहमे रहते थे ।
जब सभी बीमारी व हानि को अशुभ शक्ति से जोड़ा जाता था यह उस वक्त की कहानी है ।
यह भाद्रपद महीना ( अगस्त - सितम्बर ) है । विजयकांत नाम का एक आदमी पिछले 1 घंटे से चलता ही जा रहा है । बर्धमान से दोपहर में जब वह रेलगाड़ी में बैठा उस वक्त सूर्य पश्चिम की तरफ रवाना हो रहा था । रेलगाड़ी जब बोलपुर स्टेशन में पहुंचा तब सूर्य देव अपनी लालिमा को आसमान में बिखेरकर खुद गायब हो गए थे ।
स्टेशन से बाहर निकलकर विजयकांत ने सबसे पहले कुछ खा लेना सही समझा । आज दोपहर में खाने के लिए ज्यादा कुछ नहीं मिला और रात को मिलेगा ऐसी आशा भी नहीं है क्योंकि सही पते तक पहुंचने में कितना समय लगेगा उसे अब भी नहीं पता । यहां आने का कार्यक्रम सुबह था लेकिन एक जरूरी काम में उलझकर आने में देरी हो गई ।
स्टेशन के बाहर दो - तीन खाने का दुकान दिखाई दिया ।
बहुत सोचकर वह एक झोपड़ी जैसे दिखने वाले दुकान के अंदर गया । आसपास के सभी दुकान ऐसे ही हैं लेकिन उनमें यही एक दुकान नया और साफ सुथरा दिखाई दिया । पूड़ी और आलू की सब्जी से उसने अपना आहार समाप्त किया । इसके बाद चलना शुरू कर दिया ।
वैसे भी चलने के अलावा कोई दूसरा उपाय नहीं है । उसका गंत्वव्य कंकालीतला के पास ही एक ब्राह्मण घर तक है । अगर दिन होता तो कुछ बैलगाड़ी दिखाई देते लेकिन शाम के वक्त दो - चार घर लौटते लोगों के अलावा रास्ता लगभग सुनसान है । लगभग 10 किलोमीटर तक पैदल जाना है इसीलिए देरी करने से कोई लाभ नहीं ।
देवी तारा को शरण करने उसने चलना शुरू कर दिया ।
चारों तरफ हरियाली ही हरियाली देखकर पहले अच्छा ही लग रहा था । कुछ दूरी के फांसले पर छोटे-छोटे घर हैं , उसमें ज्यादातर झोपड़ी ही है । देखते ही देखते दिन की रोशनी एक समय बंद हो गई । वह आदमी बस्तीयों को बहुत देर पहले ही पीछे छोड़ आया है । इस समय शाम के वक्त भी वातावरण कुछ ज्यादा ही उमस से भरा है । विजयकांत बीच-बीच में ही अपने पॉकेट से रुमाल को निकालकर गले के पसीने को पोंछ रहा है ।
बहुत देर पहले ही शाम बीत चुकी है इसीलिए वह कहाँ तक पहुंच गया है उसे समझ में नहीं आ रहा । साथ में घड़ी भी नहीं है । इस जगह पर वह पहली बार आ रहा है इसीलिए रास्ता भी पहचानने में दिक्कत हो रही है ।
कुछ देर पहले तक रास्ते में जो भी मिलता उससे सही दिशा मालूम हो जाती लेकिन अंतिम आदमी को उसने लगभग आधे घंटे पहले देखा था ।
वह आदमी रास्ते के पास वाले तालाब से नहाकर घर लौट रहा था । विजयकांत ने जब उससे अपने गंतव्य के बारे में पूछा था तो उसने बताया कि देवी मंदिर के पास पहुंचने में अभी लगभग आधा घंटा और लगेगा । यह रास्ता कुछ दूर तक सीधा जाने के बाद दाहिनी तरफ मुड़ गया है । उसी तरफ सीधा चलने पर मंदिर के पास पहुंचा जा सकता है । वहाँ से आगे का रास्ता उसे किसी से पूछना होगा ।
विजयकांत द्वारा उस आदमी से रास्ता पूछकर आगे बढ़ते ही आदमी ने पीछे से प्रश्न किया ।
" बाबू जी क्या शहर से आए हैं? "
विजयकांत द्वारा हां बोलते ही वह फिर बोला ।
" थोड़ा जल्दी से पैर चलाकर आगे बढ़िए क्योंकि आज रास्ता बहुत ही सुनसान है । "
" क्यों ? "
" आज अमावस है । आज क्या कोई निकलता है । जाइए थोड़ा जल्दी जाइए और वैसे भी देवी माता के पास जा रहे हैं डर कैसा । "
" डर , डर क्यों लगेगा? " विजयकांत ने आश्चर्य होकर बोला ।
" नहीं कुछ नहीं । आज अमावस है इसीलिए आसपास थोड़ा ज्यादा अंधेरा है इसीलिए सावधान कर रहा था । "
" अमावस्या , आज भाद्रपद महीने का अमावस्या है । "
" हाँ बाबू जी "
" भाद्रपद महीने की अमावस्या मतलब आज तो कुशग्रहणी अमावस्या है । यह तो बहुत ही भयानक होता है । "
विजयकांत ने मन ही मन सोचा कि निकलने से पहले उसने इस पर ध्यान ही नहीं दिया । बहुत बड़ी गलती हो गई है लेकिन अब जल्द से जल्द उसे अपने गंतव्य तक पहुंचना होगा । विजयकांत ने सामने की तरफ देखा कि चारों तरफ गहरा काला अंधेरा है । दो कदम दूर भी ठीक से कुछ दिखाई नहीं दे रहा । वह सोचने लगा कि अब तक चल रहा था लेकिन इतना अंधेरा है इसपर ध्यान ही नहीं गया । कुछ देर रुककर विजयकांत ने सामने ध्यान से देखा और फिर चलना शुरू कर दिया । चलते वक्त उसे ऐसा महसूस होता रहा कि एक घना काला अंधेरा किसी पत्थर की तरह उसके रास्ते को रोक रहा है । किसी भी वक्त उसके शरीर से धक्का लगकर उसे शायद चोट पहुंचाएगा । डर ने उसे अपने आगोश में भरना शुरू कर दिया था । उसने किसी अंधे की तरह अपने दोनों हाथों को सामने की तरफ फैला दिया जिससे हाथ पहले ही किसी अवयव को स्पर्श कर सके । विजयकांत ने अनुभव किया कि स्वस्थ आंख रहते हुए भी वह मानो अंधा है । कान ठीक रहने के बावजूद वह मानो बहरा है । अगर बहरा नहीं हुआ हैं तो वह क्यों कोई आवाज़ नहीं सुन पा रहा? या उसके चारों तरफ के सभी प्राणी जगत एक क्षण में ही गायब हो गए हैं । सभी पेड़ मानो किसी आशंका वश जम से गए हैं , वरना थोड़ा सा भी हवा चारों तरफ क्यों नहीं है । उसे कुछ भी दिखाई और सुनाई नहीं दे रहा , वह केवल चलता ही जा रहा है । अचानक विजयकांत को सुनाई दिया कोई लगातार कुछ गुनगुना रहा है । लेकिन यह गाना नहीं मंत्र पाठ है । वह किस मंत्र का पाठ कर रहा है विजयकांत ने ऐसे मंत्र पहले कभी नहीं सुना । वह मंत्र के आवाज की दिशा की ओर चलता है , नहीं शायद वह मंत्र ही उसे खींच कर ले जा रही है । इसी तरह अंधेरे में चलते हुए विजयकांत ने दूर एक रोशनी की छटा देखी । किसी ने शायद आग जलाया है । विजयकांत को थोड़ा बल मिला क्योंकि जब आग है तो वहाँ मनुष्य अवश्य होंगे ।
कुछ देर बाद विजयकांत ने देखा कि वह एक सुनसान जगह पर खड़ा है , जहां चारों तरफ बड़े - बड़े पेड़ हैं ।
वहां से कुछ ही दूरी पर गहरे अंधेरे में एक विशाल शरीर वाला साधु पद्मासन में बैठा है । उस साधु के सामने एक जलता हुआ यज्ञ कुंड है । इसी आग को ही शायद विजयकांत ने दूर से देखा था । साधु के दाहिने तरफ एक कम उम्र वाली लड़की का सम्पूर्ण नग्न शव रखा हुआ है ।
उस लड़की की बाल जमीन पर चारों तरफ फैला हुआ है , लड़की के आँखों पर सुंदर सा पलक बिछा हुआ है मानो कोई देवी सो रही हैं । साधु का शरीर देखने में बलशाली है । उनके कंधे तक बड़े - बड़े बाल , पहनावे में लाल धोती , माथे पर बड़ा सा लाल टीका तथा वो लगातार मंत्र पाठ कर रहे थे । तथा बीच-बीच में यह कंकाल खोपड़ी से आग में घी तथा साथ में बेल पत्र का अर्घ भी दे रहे थे । इस सुनसान वातावरण में मंत्र पाठ और बेल पत्ते के जलने की चिट - पुट आवाज़ ने परिवेश को भयावह बना दिया है ।
विजयकांत और खड़ा नहीं रह पा रहा , एक तो पहले से ही चलने के कारण थकान लगी है और इस दृश्य ने मानो उसे अपने वश में कर लिया है ।
साधु के पीछे ही एक बूढ़ा आदमी नीम के पेड़ के नीचे आकर बैठ गया । चारों तरफ हवा में घी का सुगंध है ।
जितना समय बीत रहा था मंत्र पाठ उतना ही तीक्ष्ण होता जा रहा है । बीच-बीच में साधु कुछ घी लड़की के शव के ऊपर भी डाल रहा है । विजयकांत ने अचानक अनुभव किया कि पूरा वातावरण और भी भारी हो गया है । हवा में घी का सुगंध खत्म होकर एक सड़ा हुआ गंध फैल रहा है ।
कुछ होगा या फिर कुछ होने वाला है । विजयकांत डरते हुए साधु के क्रियाकलापों को देखता रहा । विजयकांत ने एक बार सोचा कि यहां से भाग जाया जाए लेकिन उसका पैर मानो मिट्टी में धंस गया है । उसका पूरा शरीर भारी हो गया है और आंख धीरे-धीरे बंद हो रही है । उसने अपने मन को यह कहकर सांत्वना दिया कि चलो यहां पर कोई आदमी तो है । शायद वह कोई तांत्रिक व कापालिक है या शव साधना कर रहा है लेकिन साधु भी तो एक मनुष्य ही है । थक जाने के कारण विजयकांत के दोनों आंख बंद हो रहे थे शायद वह बैठे - बैठे कुछ देर सो भी गया था ।
अचानक लाश के सड़ने जैसी गंध नाक में जाते ही वह जाग गया । उसकी नजर साधु की तरफ गई और नजारा देख शरीर कांप गया । साधु के शरीर में धीरे-धीरे बदलाव हो रहा था । साधु का सफेद शरीर धीरे-धीरे काले रंग में परिवर्तित हो रहा था । कुछ ही देर में एक सुंदर सा शरीर इतना कुरूप व भद्दा हो गया कि देखकर उल्टी आ जाए ।
वह किसी बाण की तरह मंत्र पढ़ रहा है ।
" ओम ह्रीं नमो भगवति कर्णपिशाचिनी चंडवेगिनी वद वद स्वाहा ”
यह किस वस्तु का मंत्र है जिससे ऐसा परिवर्तन होता है?
विजयकांत आतंक व उत्तेजना से खड़ा हो गया है । उसकी नजर लड़की की शव पर पड़े । लड़की का शव थोड़ा-थोड़ा हिल डुल रहा था । विजयकांत अपने आतंकित आँखों के पलकों को झपकाना भूल गया है ।
इसी वक्त अचानक चारों तरफ आंधी जैसे हवा चलने लगी । लेकिन विजयकांत ने ऊपर देखा तो पेड़ पौधे एकदम शांत हैं तो फिर यह आंधी और हवा क्या है?
क्या यह कोई माया रुपी आंधी है जिससे पेड़ का एक भी पत्ता नहीं हिल रहा ।
तो साधु क्या कोई साधना कर रहा है ? कहीं यह कोई निम्न प्रकार का साधना तो नहीं है ?
इसी वक्त फिर विजयकांत की नजरें लड़की की शव पर पड़ी । लेकिन यह क्या हो रहा है शव तो धीरे - धीरे उठकर बैठ रही है । मंत्र पढ़ने के बीच में साधु उस लड़की के कान में बोल रहे थे ,
" आओ , आओ , आ जाओ देवी यक्षिणी तुम आओ । "
कुछ देर ऐसे ही बीता फिर अचानक उस लड़की का शव धीरे-धीरे अपने पैरों पर खड़ी होनी लगी । वह सुंदर लड़की अब वहाँ नहीं है । वहाँ पर खड़ी है एक विकृत शरीर , जिसके शरीर का रंग काला , लाल आँखे , लपलपाती जीभ और उसकी उदर बड़ी सी है ।
साधु हंसते हुए चिल्लाकर बोला ,
- " आ गई , तुम आ गई देवी । मैंने कर दिखाया । मेरी साधना सिद्ध हुई । "
ठीक उसी वक्त इस भयानक पिशाचिनी रूप को देख डर के कारण विजयकांत के मुँह से एक आवाज़ निकल गई ।
तुरंत ही वह भयानक मूर्ति लड़की के शव रूप में परिवर्तित हो गई ।
साधु चिल्लाते व गुस्से से हाहाकार करते हुए बोला ,
- " कौन , कौन है तू । किसने मेरी साधना में बाधा दिया । "
साधु अपने आसन से उठने लगा । विजयकांत ने अपने ऊपर आते खतरे को देखकर डर से सामने बिना देखे ही आगे की तरफ पूरी ताकत से भागने लगा । पानी,कीचड़ , ईंट - पत्थर के ऊपर से वह न जाने कहां भाग रहा है ।
भागते - भागते ही वह एक जगह बेहोश होकर गिर पड़ा ।....

...अगला भाग क्रमशः...


@rahul