कहानी-
औरत-ऐ-औरत
--आर.एन. सुनगरया
राजरानी बहु बनकर, परिवार में आई तो, अभूतपूर्व शानदार हर्षोल्लास एवं उमंगों के साथ विधिवत स्वागत-सत्कार पश्च्चात रस्मों-रिवाज, रीति-नीति के तहत गृहप्रवेश हुआ। रामदास को यह शुभावसर लगभग चार दशक बाद मिला, पहले पुत्र की शादी करने पर, इसके लिये प्रतिक्षा बहुत लम्बी करनी पड़ी। रामदास की पत्नि भी अपने-आपको धन्य महसूस कर रही थी कि बहुत पढ़ी-लिखी शिक्षित बहु आ रही है। सारे घर-द्वार परिवार को समझदारी, सुचारू, संयम, सामन्जस से सम्हाल सकेगी। भरे-पूरे खानदान से आ रही है, तो संयुक्त परिवार की सामान्य समस्याओं से भली-भॉंती अवगत होगी ही, अच्छा अनुभव भी होगा, हिलमिल कर साथ रहने का।
आहिस्ता-आहिस्ता राजरानी की फितरत, असलियत, साजिश, शरारत, सर्पीली सक्रियता, चार सौ बीसी, चालाकी, चतुराई मुखोटों में छिपी रीति-नीति, नियत तथा उसकी वास्तविक मंशा, जो मात्र अपने, स्वार्थ, सुविधा, सहूलियत इत्यादि के लिये है। इस एक मात्र एजेन्डा को फलीभूत करने के लिये, राजरानी सदैव बेचेन और सचेत रहती है। अपने आप के लिये जीती है, अपनी प्रतिपूर्ती के वास्ते वह जिन्हें शिकार, बनाती है वे उसके किसी ना किसी नाते-रिस्ते में आते हैं। उनके एहसानों तले दबे होने के बावजूद भी उसे उन पर कोई सहानुभूति नहीं उभरती, एहसान फरामोशी सबूत स्वरूप वह उस प्राणी को मरते दम, एक चम्मच पानी भी मुँह में डालने में अपनी सम्वेदना प्रदर्शित करना मुनासिव नहीं समझती, निर्धारित रिश्ता तो भूल भी जाये, तो मानवीय रिश्ता तो नहीं भूला जा सकता है। हॉं, दिखावे के लिये जरूर सजीव व अभिनय करेगी!
राजरानी अपनी कारिसतानियों कारगुजारियों अथवा क्रिया कलापों की सफलता या कामयाबी के वास्ते अचूक अनूठे स्रोतों का सहारा लेने में भी नहीं हिचकिचाती है। कोई संकोच नहीं होता है। निडरता एवं निर्लज्जता पूर्वक, रीति, नीति, नियत के तहत, अदृश्य अस्त्र -शस्त्र का प्रयोग करती है, धैर्य पूर्वक। नितांत निजि स्वार्थपरता के परिणाम अपने पक्ष में करने हेतु वह अपने शातिर दिमाग द्वारा गुप्त अस्त्रों को दाग कर हमला कर देती है। राजरानी के भावुकतापूर्ण घातक वार से घायल शिकार अपने सम्बन्ध के भ्रमजाल में बेवश होकर, रिश्ते के लिहाज में, एैच्छिक फल, उसकी झोली में डाल देता है, खुशी-खुशी, वह अपनी चालाकी की सफलता पर हर्षित होती हुई, झोली समेट कर चलती बनती है! सामान्य शिष्टाचार का एक शब्द तक बोलने में कतराती है। राजरानी की इस हरकत से सॉंप भी मर जाता है, और लाठी भी सुरक्षित अपनी तुड़ी में वापस। भविष्य में उपयोग हेतु सुरक्षित। स्वजीवी, आभार का एक शब्द तक नहीं।
देते रहो रिश्तों का वास्ता संस्कारों की दुहाई, भविष्य की विभिषिका का भय और मर्यादाओं का हवाला। उसके ठेंगे पर! इतराकर अपनी बेशर्मी, मगरूरता, अहंकार, सारी परम्पराऍं, मान-मर्यादा, लाज, लिहाज, लज्जत, सामाजिक मापदण्ड, दया, धरम, परिपाठी, बात-व्यवहार, मेल-जोल, सम्पूर्ण प्रतिमान, स्वार्थ की भट्टी में स्वाह......। मात्र आज की चमक, चाहत की चिन्ता, कल का ठिकाना नहीं। तात्कालिक हरकत सफल तो विजेता समान प्रसन्नता, वगैर नफा-नुकसान सोचे-विचारे। ध्यान नहीं किन अमूल्य सम्पदाओं को खोने के पश्च्चात यह दो पल की प्रसन्नता हाथ लगी है। अपने नाते-रिश्तों को अनदेखा करके दाव पर लगाकर, दूसरों के सम्बन्धों का दौहन करके अपना स्वार्थ सिद्ध करना एवं प्रति उत्तर का वक्त आने पर बिलकुल भूल जाना, यही प्रवृति की आयु अधिक नहीं होती। ऐसे लेन-देन में स्वत: ही हानि हो जाती है, कालान्तर में। निर्धारित रिश्ता भी समाप्त प्राया हो जाता है। उसका पोषण नहीं हो पाने के कारण वह सूख जाता है एवं ठूँठ की शक्ल में हमेशा नजरों में चुभता रहेगा।
राजरानी जब अपनी ससुराल आई तो नवपति से जुड़े सम्पूर्ण सम्बन्ध स्वत: ही, राजरानी के साथ परम्परागत संस्कार के अनुसार अदृश्य डोर से बंध गये। उनकी समग्र मर्यादाओं एवं रस्म-रिवाजों सहित। इन कोमल बन्धनों को निवाहने की जिम्मेदारी दोनों पक्षों के कन्धों पर आ जाती है। बिना भेद-भाव, बिना स्वार्थ बिना ठेस पहुँचाये, निर्मल हृदय से जीवन पर्यन्त सहेजे रखना सबका दायित्व है। तभी रिश्तों की सार्थकता एवं मर्यादा कायम रह सकेगी।
प्यार, प्रेम, स्नेह, वात्सल्य, मान-सम्मान, आदर-सत्कार, श्रद्धा, सेवा, सलाह-सहायता, सुलह इत्यादि पाने के लिये देने की भी शश्वत प्रवृति, परिपाठी परम्परा, संस्कार, संस्कृति आदिकाल से चली आ रही है। सामाजिक एवं मानवीय मूल्यों की सुरक्षा हेतु इस पद्धति का समुचित निर्वहन अत्यावश्यक है। तभी समाज में संतुलन एवं सुख-शॉंति, शुकून आनन्द की प्राप्ति हो सकेगी सदैव। यही जीवन का आधार है। जिसने यह तथ्य समझ लिया उसका पारिवारिक जीवन तर गया। पार लग गया। पूर्ण सफल हो गया।
स्वाभाविक रूप से बहु राजरानी को ससुराल के वातावरण के अनुरूप अपने आपको ढाल लेना चाहिए था, मगर वह अन्दर ही अन्दर अप्रत्येक्ष रूप से कोशिश करती रही है कि सबको अपने मन-मुताबिक अपने ईशारों पर नाचने के लिये तरह-तरह के हथकण्डे, षड़यंत्र, धमकियॉं देकर, भयभीत करके रिश्तों का अपने पक्ष में दुरूपयोग करने की योजना पर काम कर रही है। अपने बच्चे की चाहत, प्रीत-स्नेह, वात्सल्य, मोह के बदले तलवे चटवाने हेतु मजबूर करके, भावात्मक दबाव डालने की, ऐसी ही अनेक जुगत लगा कर पूरे परीवेश, परिदृश्य और माहौल को अपने मनशूवों और हरकतों की पृष्ठभूमि तैयार करने में अपनी पूरी आंतरिक ऊर्जा लगा देती है। अनेकों झूठी कहानियॉं बनाकर अपने पति को गोद में बैठाकर मन गड़न्त वाकिये उसके कान में मंत्र की तरह फूंकना यही उसका, भ्रमित करने का मुख्य मिशन रहता है।
लेकिन परिवार का स्वाभिमान एवं आत्मसम्मान उसकी साजिश के आड़े आ गया बचाव में।
राजरानी को मुंह की खानी पड़ी। औंधे मुंह गिरी धड़ाम! स्वयं शुभ-अशुभ, उचित-अनुचित, अपने-आप बड़बड़ाकर स्वत: आक्रोश को व्यक्त करने का हथकण्डा अपनाया, परन्तु यह हमला भी कारगर नहीं हुआ, निष्फल हो गया। उसकी माया काम नहीं आ रही थी। हर स्तर पर मात होती जा रही थी, तब खीजकर, खिशियाई बिल्ली की भॉंति पुत्र-पति को अपना शिकार बनाया, उन्हें एक-एक पन्जे में दबोच कर अपनी खुन्दक-भड़ास निकालने लगी, पूरी तरह प्रताडि़त करती हुई, अपने साथ कमरे में कैद कर ली। उन्हें रोके रखने हेतु, उलूल-जुलूल सोशल मीडिया का सहारा लेकर!
चटोरेपन की आदत की पूर्ती के साथ हथियार बनाकर तरह-तरह के रोजमर्रा के व्यंजन बना-बना कर खिलाने लगी पुत्र-पति को इससे वह एक तीर से दो निशाने लगाकर हर्षित होने लगी, एक तो पुत्र-पति को प्रभावित करती है कि मेरे सिवा तुम्हारे खान-पान का ध्यान रखने वाला कोई और नहीं है, सिर्फ मैं ही एक मात्र हितैसी हूँ। खून के रिश्ते भी नहीं। दूसरा यह कि परिवार के शेष सदस्यों को चिड़ाने एवं दिखाने का अवसर मिल जाता कि देखो, मैं कितने अच्छे व्यन्जन बना कर, तुम्हें वंचित कर रही हूँ। आओ मेरे ईशारों पर नाचो एवं तलवे चाटो तो अच्छे-अच्छे पकवान खाने को मिलेंगे। मगर ये कारसतानियाँ भी उसके किसी काम नहीं आईं। किसी ने कोई तवज्जो नहीं दी।
राजरानी अब पूरी तरह चौटिल नागिन की भॉंति फुफकारती-फुसकारती, क्रोधित इधर-उधर भटक रही है। बदले के लिये घात लगाकर ताक में है।
राजरानी वास्तव में अपने-आपको ही सर्वश्रेष्ठ मानती है! उसे अपने आप पर इतना आत्माभिमान, आत्मविश्वास, अहंकार है कि उसकी धारणायें, जो उसने स्वयं धारण कर रखीं है, के अनुसार वह किसी से कम नहीं है। सारे रिश्ते–नाते, ऊँचे-नीचे, उसके इर्द-गिर्द एवं अधीन समझती है, स्वयं। उसकी दिनचर्या वह स्वत: निर्धारित करती है, कब उठना है! कब बैठना है! कब जाना है! कहॉं जाना है! कब लौटना है। क्या काम है! ये सारी जानकारियों को ना तो वह स्वयं देगी, ना ही उससे पूछ-ताछ करने का कोई अधिकार ही नहीं रखता।
सारा के सारा कार्यकलाप पूर्णत: गुप्त, गोपनीय और अनजाना ही रहेगा, अनसुलझी पहेली की भॉंति रहस्यमय! भले ही चाहे घर परिवार समाज में मान-सम्मान, छबि का सवाल ही क्यों ना हो। पूरी तरह निरंकुश होकर, जहॉं चाहे जाये, जिसके भी खेत में मुँह मारे। डॉंटने-फटकारने वाला तो कोई हो नहीं सकता, क्योंकि वह तो सर्वोच्च शिखर पर है। उसको मार्गदर्शन, सलाह, सहायता समझाईश देने का ज्ञान ही नहीं है किसी के पास। उसके तर्क-कुतर्क का सामना-समाधानकरने लायक बुद्धि किसी के पास नहीं है। क्योंकि सम्पूर्ण ज्ञान तो वह अपने पाकेट में डाल रखी है! उसके कोपभाजन से सब बचना चाहते हैं। जी हॉं नंगे से सब भागते हैं। जान बचाकर। औरत-ऐ-औरत धन्य हो।
♥♥♥ इति ♥♥♥
संक्षिप्त परिचय
1-नाम:- रामनारयण सुनगरया
2- जन्म:– 01/ 08/ 1956.
3-शिक्षा – अभियॉंत्रिकी स्नातक
4-साहित्यिक शिक्षा:– 1. लेखक प्रशिक्षण महाविद्यालय सहारनपुर से
साहित्यालंकार की उपाधि।
2. कहानी लेखन प्रशिक्षण महाविद्यालय अम्बाला छावनी से
5-प्रकाशन:-- 1. अखिल भारतीय पत्र-पत्रिकाओं में कहानी लेख इत्यादि समय-
समय पर प्रकाशित एवं चर्चित।
2. साहित्यिक पत्रिका ‘’भिलाई प्रकाशन’’ का पॉंच साल तक सफल
सम्पादन एवं प्रकाशन अखिल भारतीय स्तर पर सराहना मिली
6- प्रकाशनाधीन:-- विभिन्न विषयक कृति ।
7- सम्प्रति--- स्वनिवृत्त्िा के पश्चात् ऑफसेट प्रिन्टिंग प्रेस का संचालन एवं
स्वतंत्र लेखन।
8- सम्पर्क :- 6ए/1/8 भिलाई, जिला-दुर्ग (छ. ग.) मो./ व्हाट्सएप्प नं.- 91318-94197
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