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होली??

स्नेही मित्रों ! 

      स्नेहमय सुभोर के साथ इस महत्वपूर्ण पर्व की अशेष शुभकामनाएं | पर्व संदेश देता है अपने अहं की वेदी में ईर्ष्या-द्वेष की लकड़ियाँ जला लें | हमारी प्रिय सखी मंजु महिमा ने इस अग्नि-दहन का जो शब्द-चित्र खींचा है ,वह बहुत कुछ सोचने को विवश करता है ,वह चेतावनी देता है अपने मन में झाँकने की ,चिंतन की धरा को सींचने की जिसमें से नव-पल्ल्वित कोंपलें झाँकती तो हैं किन्तु यह विचारणीय है कि कहीं उस धरा पर हम काँटों की खेती तो नहीं कर रहे ?      

      मंजु की यह रचना अवश्य ही कहीं न कहीं आपकी दृष्टि से भी गुज़री होगी | प्रश्न यह भी है कि हमारी आत्मा के आवरण पर लगे दाग़  को क्या यह होलिका जलाकर भस्म कर सकेगी? क्या हम वास्तव में एक निर्दोष जीवन जीने प्रयास का मन से कर पाएंगे ?'बहुत कठिन है डगर पनघट की ' किन्तु 'करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान !' भी उतना ही सही है न ? हमें अपने ऊपर काम करना होता है ,दूसरों पर नहीं -अपने मन पर ,अपने चिंतन पर ,अपने व्यवहार पर,अपने दृष्टिकोण पर ,अपनी ईमानदारी पर !यानि स्वयं पर तो सब कुछ सरल,सहजहो सकता है  किन्तु उसके लिए मानसिक तैयारी की आवश्यकता तो होगी न !          

      साथियों! आप सब सोच रहे होंगे कि इस रंगीन उत्सव पर मैं कैसी बेअदबी कर रही हूँ ! इसके लिए मैं नतमस्तक हो क्षमा माँग सकती हूँ और मेरी रीढ़ की हड्डी वहीं रहेगी जहाँ है। इसका मुझे पूरा आश्वासन है |कभी कोई बात इशारे में भी जहाँ पहुंचनी होती है ,पहुँच ही जाती है |       

         मैं ही नहीं ,हमारे बहुत से साथी इस समय में उद्विग्न हैं ,मैं जानती हूँ किन्तु मनुष्य को प्रकृति के सुंदरतम आशीषमय  उपहार मिले हैं ,मिलते रहेंगे | हम सब आश्वस्त हैं|  प्रेम,करुणा भरकर प्रकृति ने हमें ऎसी पिचकारी प्रदान की हैं जिनमें हम स्नेह के रंगों को भरकर अपने पूरे ब्रह्माण्ड को सराबोर कर सकते हैं | अभी हमारी रा.व.ना. मंच की गोष्ठी 26/3 को संपन्न हुई है | उसके लिए कुछ लिखना था किन्तु जब मन अन्धकार से घिरा हो तब कुछ ऐसे ही गीत बुने जाते हैं |इस आशा व विश्वास  के साथ कि सबके मन के अन्धकार शीघ्र ही दूर हों,प्राणियों में सद्भावना हो ,विश्व का कल्याण हो | आमीन !आजकल मैं 'सुभोर' शब्द का प्रयोग करने लगी हूँ जो मैंने अपनी जोधपुर निवासी छोटी बहन जैसी सखी से चुराया है |                 

होली??
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रुत बासंती.झूमकर बाहें पसारे मुस्कुरा वो फागुनी घूँघट उघारे

प्रणय की वल्लरी देखो सज गई हैंऔर वीणा फाग की भी बज रही है

पर अँधेरा हो भरा जब मन हमारे रेशमी मल्हार कैसे गा सकेंगे?......

-प्रीत से सारी दिशाएँ झूमती हों वृक्ष के पातों पे हरितिम बाँसुरी हो

रंग से उद्विग्न हों जब मन सभी केऔर आलिंगन करे जब माँ प्रकृति

किंतु  वीणा के सु्रों में पीर हो जब प्यार के संवाद से कैसे जुड़ेंगे?.....

-गाल पर अश्रु थिरकते देखती हूँ ऑंख की पुतली में आँसू की लड़ी है

पुतलियो के स्वप्न सारे थिर खड़े हैऔर पनघट भी सभी ये जड़ पड़े हैं

समय की है माँग अश्रु पोंछ दूँ मैं वर्ना दिल के छाले यूँ कैसे भरेंगे......?

-जब.तने हैं हम निरे अज्ञान  में सब और अभिमानों में करते स्नान हैं हम

फिर जला लें होलिका कितनी यहाँ परऔर प्रहलादों को भी हम मिलकर बचा लें  

किन्तु पावन साँझ कैसे सज सकेगी ? ईर्ष्या ,नफ़रत  न जब तक  दूर होंगे ------ 

-आओ करलें साधना  हम सब बनें शिव और करलें सत्य का  भी आचरण  मिल

सुंदरम हो जाएगा तब जगत सारा और पा लेंगे सभी उसका सहारा

यात्राएं पूरी करके मोक्ष पा लें तब ही तो परमात्मा में मिल सकेंगे??

अनेकानेक मंगलकामनाओं सहित 

आपकी मित्र

डॉ.प्रणव भारती
 

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