यादों के झरोखों से—निश्छल प्रेम (10) - अन्तिम भाग Asha Saraswat द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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यादों के झरोखों से—निश्छल प्रेम (10) - अन्तिम भाग




बात उन दिनों की है जब स्कूटर,मोटरसाइकिल,कार महिलाएँ बहुत ही कम चलाया करती थी ।


इंटरमीडिएट करने के बाद जब हमारा दाख़िला डिग्री कॉलेज में हुआ था ,तब हम सहेलियों के साथ पैदल जाते ।कभी साइकिल से जाते तो कभी-कभी एक ही साइकिल से दो सहेलियाँ एक साथ चले जाते थे।


हमारी सहपाठी दो सहेलियाँ कॉलेज से पॉंच किलोमीटर दूर रहती थी,वह प्रतिदिन साइकिल से ही कॉलेज आती थी।स्कूटर या स्कूटी की कोई व्यवस्था नहीं थी न ही किसी का ध्यान इस ओर आकर्षित होता था।एक बार मैं और मेरी दूसरी सहेली उनके गॉंव उनके साथ गई तो
रिक्शा में बैठकर गये हम दोनों को गॉंव बहुत ही दूर लगा।


हमें आश्चर्य हुआ कि बरसात में,शीतलहर की ठंड में और तपती धूप की गर्मी में यह दोनों कितने कष्टों से के साथ कॉलेज आतीं है और लौट कर घर भी जाती है।लेकिन दोनों ख़ुशी से पढ़ाई करती,कभी परेशान नहीं होती ।


हमारे घर से कॉलेज लगभग एक किलोमीटर था ,हम बड़े ही आराम से चले जाया करते थे।


हमारे घर से थोड़ी दूरी पर हमारी हिन्दी की प्रोफ़ेसर रहा करतीं थी ।वह हमें हिन्दी पढ़ाया करतीं थी,मै उन्हें बहुत पसंद किया करती थी।उनसे मन ही मन डरा करती थी कभी भी उनसे बात करने की हिम्मत नहीं हुई ।जब कभी सामने वह आजाती तो मैं नमस्कार करती तो वह सिर हिला कर उत्तर दे देतीं ।


कॉलेज जाने से पहले सुबह वह स्कूटर से डेरी से दूध लेने जातीं।हम देखते वह दूध का डिब्बा स्कूटर पर पैरों के बीच रखकर बड़ी कुशलता से स्कूटर चलातीं ।सुबह सवेरे जब वह जाती तो तैयार होकर ही जातीं ।


कभी भी उनके कपड़े अस्त-व्यस्त नहीं देखे।कॉलेज दूसरी साड़ी पहन कर जातीं थी।कॉलेज में वह सभी छात्राओं की प्रिय थीं ।पढ़ाते समय प्रत्येक छात्रा पर उनका ध्यान रहता और कुशलता से पढ़ातीं ।


शाम को हम उन्हें देखते थे वह स्कूटर पर सब्ज़ी लेने जातीं।प्रतिदिन वह ताज़ा सब्ज़ी लाया करतीं थी।शाम को सैर के लिए अपने दो बच्चों को लेकर अवश्य जाती,उनके मनपसंद फल ख़रीदतीं और बड़ा थैला उनके बँटे के पास होता ।


उनके पति दूसरे लड़कों के कॉलेज में प्रोफ़ेसर थे उनका आने-जाने का समय उनके समय से भिन्न था ।दो बच्चे थे बड़ा बेटा आठ वर्ष का और दूसरा बेटा पॉंच वर्ष का था ।दोनों बच्चों को स्कूल भेज कर ही वह कॉलेज ज़ाया करतीं ।


इस तरह उनकी दिनचर्या बहुत ही व्यस्त थी लेकिन उनके चेहरे पर कभी थकान देखने को नहीं मिलती थी ।वह सदैव चुस्त दुरुस्त अपने काम बड़ी ही कुशलता से करतीं थी।शाम को दोनों बच्चों का गृहकार्य करातीं फिर खाना बना कर घर के बाक़ी काम निपटातीं ।


उनकी एक विशेषता हम देखते कि उनकी वेशभूषा कभी भी ख़राब नहीं होती,सज संवर कर ही रहती ।होंठों पर लिपस्टिक उनका पसंदीदा श्रृंगार था।


एक दिन कक्षा में हमारी सहपाठी निर्मला पीरियड की घंटी के बाद कक्षा में आई तो उन्होंने उसे कक्षा में पीछे बैठाया और आगे से समय पर आने की हिदायत दी ।


निर्मला को बहुत बुरा लगा सबके सामने उसे दंड मिला था । पीरियड समाप्त होने पर वह उसे अपने साथ स्टाफ़ रूम में ले गईं और बड़े ही प्यार से समझाया कि हमें समय की कद्र करनी चाहिए ।यदि हम समय से अपने काम करे तो कभी भी कोई परेशानी नहीं आती।सभी काम आसानी से पूरे हो जाते है ।मैं सिर्फ़ लिपिस्टिक लगा कर ही कॉलेज नहीं आती ,बाक़ी काम भी समय पर पूरे करती हूँ...और निर्मला के साथ ठहाके लगा कर हँसते हुए कक्षा में आई......मैं और मेरी सभी सहेलियों के मन में उनके प्रति सम्मान और बढ़ गया ।


मुझे आश्चर्य था कि इतनी सरलता से अपनी गृहस्थी और घर को वह कैसे सँभाल लेती है ।दूसरों को भी अच्छी सोच देती है अनगिनत लड़कियों को उन्होंने अच्छी शिक्षा दी।नारी सशक्तिकरण की मिसाल थी वह🙏🙏।


आशा सारस्वत


अन्तिम भाग —यादों के झरोखों से —निश्छल प्रेम