एक दुनिया अजनबी - 45 - अंतिम भाग Pranava Bharti द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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एक दुनिया अजनबी - 45 - अंतिम भाग

एक दुनिया अजनबी

45 -

बड़ी अजीब सी बात थी लेकिन सच यही था कि प्रखर की माँ विभा मृदुला के साथ मंदा और जॉन से मिल चुकी थीं | जॉन ने जब यह बताया, मंदा के चेहरे पर मुस्कुराहट फैल गई |

"आपने कभी नहीं बताया मंदा मौसी ? " सुनीला ने आश्चर्य में भरकर पूछा |

"बेटा !समय ही कहाँ मिला, मैं तुम्हें फ़ोन करती रही, तुम बिज़ी रहीं |"

"विभा जी ने हमें आश्वासन दिया, वो हमें यथाशक्ति सहयोग देंगी| "

" माँ--! वो इसमें क्या सहयोग देंगी ? "वह माँ को कहाँ ठीक से समझता था ?

"वो बहुत कुछ कर सकती हैं, मैं जितनी बार भी उनके पास गई उनसे सीखकर ही आई -- वह बहुत ख़ुश हैं --दर्शन को लेकर इन दोनों में बहुत चर्चा हुई और उन्हें समझ में आया कि जॉन वास्तव में हैं क्या और चाहते क्या हैं ? "

"मेडिटेशन शुरू होने के बाद अपनी स्थिति व स्वास्थ्य के अनुसार वह यहाँ आकर व्याख्यान भी देंगी, जॉन ने उन्हें मना लिया है |"

"ओह ! बहन को यह सब मालूम है ? " प्रखर ने आश्चर्यचकित होकर पूछा |

"बिलकुल, बहन छोड़ती कहाँ है माँ का हाथ ? " मंदा मुस्कुराईं |

" मैं ले आया करूँगा मम्मी को ---" धीरे से प्रखर के मुख से निकला |

"अरे ! नहीं, वो तो सब इंतज़ाम है ---बस, उन्हें तुम्हारी चिंता है |

उसे खेद हो रहा था कि जो बहन उससे सब बातें शेयर करती थी, इतनी बड़ी बात उसे कैसे नहीं बताई ?

नीचे डिनर के लिए सब लोग आ चुके थे, एक केबिन में सबका इंतज़ाम कर दिया गया था | खाना खाते-खाते बातचीत होती रही | सबको महसूस हुआ जॉन कितना 'वैल-रैड 'है, कितना चिंतनशील ! सुनीला आश्वस्त हो चुकी थी कि जॉन अपने धर्म को फ़ैलाने के लिए नहीं वरन एक शुद्ध, पवित्र मन से यह काम करना चाहते हैं |

इन तीनों मित्रों को वह एक सुलझे हुए शिक्षक की भाँति लग रहा था ;

"कभी हम राजा सुरथ बन जाते हैं तो कभी अर्जुन जो अपने कर्तव्य से भागना चाहता है, कभी सुदामा से दीन-हीन हो जाते हैं ---यानि हमें अपने दोष नहीं देखने --बस उलटे-सीधे विचार ही बनाने हैं ? "

दरसल, अब तक सुनीला के साथ सब जॉन से प्रभावित होने लगे थे | उसे लग रहा था जॉन एक अच्छा इंसान है, एक सच्चा इंसान ! जो आज के ज़माने में तलाशने से भी नहीं मिल पाता |

"जिस प्रकृति ने हमें बनाया है उसे तो हम शिकायतों से भर देते हैं और जो दिया है उसको तहस-नहस करके दूसरों पर आक्षेप लगा देते हैं |"

"भारत में तो पत्थर में से भी भगवान बना लिए जाते हैं , कंकर में से शंकर बनाकर उनको पूजा जाता है, फिर इंसान में से इंसानियत क्यों निकलती जा रही है ? "

"ज़िंदगी उलझाती ज़्यादा है मि.जॉन ---"प्रखर उदास था |

"नहीं, ज़िंदगी नहीं उलझाती, हम खुद उलझना चाहते हैं | कभी धर्म में, कभी जाति में, कभी वर्ग में, इंसान-इंसान के बीच में दीवार खड़ी करके, अपने अहं और बड़प्पन के दिखावे में !"

"जब हम यह समझ जाते हैं कि इस संसार में हम केवल शरीर हैं, पाँच तत्वों से मिलकर बने एक शरीर भर ---जिनका अंत उन्हीं पाँच तत्वों में मिल जाना है | तब हम आत्मा को समझने लगते हैं जो न गलती है, न जलती है ---साक्षी भाव से हम उसे देख व पहचान सकते हैं |सबमें हमें वही दिखाई देने लगता है जिसे हम तलाशते फिरते हैं | "

सच में मनुष्य का मन कितना भटकता है ! अजीब सी नुकीली सलीबों पर टँगा अपने लिए कष्ट पैदा करता रहता है |

सच तो यह है कि मनुष्य को खुद में ही झाँकना है, किसीके कहने समझने से कुछ भी नहीं होने वाला, खुद को पहचानना ज़रूरी है |

सुनीला मन में सोच रही थी कि उसे भी एक डॉक्टर की हैसियत से अपनी सेवाएं यहाँ पर देनी चाहिएँ |

प्रखर और निवेदिता को भी जैसे यह मार्ग पुकार रहा था |

हम सब जन्म से सिद्ध ही हैं, ज़रूरत केवल स्वयं को पहचानने की है |

रात काफ़ी होने लगी थी, जॉन और मंदा मौसी को प्रणाम करके तीनों घर वापिस लौटने के लिए निकल पड़े, कुछ नई सोच के साथ ! एक आश्वस्ति सबके मन में भर रही थी |

डॉ .प्रणव भारती

pranavabharti@gmail.com