बाबूजी सिखाते- सिखाते मर गये मगर......
आर 0 के0 लाल
बाबूजी हमेशा कहा करते थे, “हिम्मते मरदां मददे खुदा”। यह एक फारसी कहावत है जिसका मतलब होता है “फॉर्चून फेवर्स ब्रेब्स” । बाबूजी के समय में अपने देश में बहुत कम, लगभग पचीस प्रतिशत ही लिटरेसी थी, इसलिए वह हमेशा पढ़ने की सलाह देते थे। जब भी मौका मिलता तो वे लोगों को अपने पास बैठा लेते थे और कुछ न कुछ उन्हें पढ़ाया करते थे। बाबूजी ने फारसी और अरबी भाषा में शिक्षा ग्रहण की थी इसलिए उनकी हर बात में उसी का लय होता था। अक्सर वह कहा करते थे "पढ़े लिखे को फारसी क्या?" उनके समय में बड़े ख्यानदान में विद्या का बहुत महत्व था तभी वे लोग कोई नौकरी अथवा मुंशी-गिरी कर पाते थे और बड़ी-बड़ी जांगीरदारों का काम संभालते थे । पढ़े लिखे लोग ज्यादातर, पटवारी , मास्टर या दफ्तरों में बाबू होते थे। उनके पिता
जी भी पटवारी थे। उनके समय में कहावत थी कि “फारसी पढ़ने वाला कभी बेकार नहीं रहता”। बाबूजी भी सबसे कहते थे कि “पढ़े लिखे को फारसी क्या” अर्थात पढ़ा लिखा व्यक्ति फारसी जरूर जानता होगा । बाबूजी तो कई दफे घर के बच्चों से भी फारसी में प्रश्न पूछ लेते थे और जब वे कुछ नहीं समझ पाते तो उनकी पिटाई तक कर डालते थे। न जाने वे कैसे भूल जाते थे कि अब अपने देश में फारसी नहीं पढ़ाई जाती।
पढ़ने के लिए वे अपने बच्चों को सुबह चार बजे ही उठा देते थे और हर काम एक निर्धारित टाइम टेबल के तहत करने की नसीहत देते। वे कहते थे, "हर सुखन मौका व हर नुक्ता मुकामें दारद" यानी हर बात की अपनी एक जगह होती है। प्यार से समझाते कि अभी मौका है पढ़ लो, जिंदगी बन जाएगी वरना पछताओगे”। बाबूजी जरूर कहते थे कि पढ़े फारसी बेचे तेल, मतलब जो पढ़ा लिखा है वह तेल बेचने जैसा निश्चेष्ट काम कर ही नहीं सकता । इसके बावजूद भी बच्चे उनसे बहुत डरते थे और उनके पास नहीं फटकते थे पता नहीं कब वह पढ़ाने बैठ जाए और कुछ न आने पर डांटने लग जाएँ ।
बाबू जी को गलत कामों से बड़ी चिढ़ थी । मोहल्ले वाले जब किसी को गलत काम करते हुए पकड़ते तो उनके पास ले जाते और उनसे फैसला करने को कहते। वे नारियल की तरह ऊपर से सख्त थे , गलत काम के लिए बहुत बिगड़ते मगर दिल से नरम भी थे इसलिए तरह-तरह के उदाहरण देकर समझाने की कोशिश करते और हिदायत देते कि आगे कोई गलती न करें वरना उनसे बुरा कोई नहीं होगा । किसी की गलती पर जब वे डांट पिलाते तो कहा करते थे, “तुख्में मुर्ग दूजद शुतुर मीशे” यानी मुर्गी का अंडा चोरी करने वाला अंत में ऊंट की चोरी करता है । इसलिए अच्छे बच्चों को किसी गलत आदत से बचना चाहिए। मगर लोग उनकी
सलाह को एक कान से सुनते और दूसरे से निकाल देते। अथक प्रयासों के बावजूद भी बाबूजी किसी को सुधार नहीं सके । सब कुछ वैसा ही चलता रहा। धीरे धीरे तो लोग उनसे शिकायत करना ही बंद कर दिया था फिर भी उन्हें सब पता होता था कि कौन क्या कर रहा है, कौन लड़के – लड़कियां स्कूल से भागकर घूम रहा है तो कौन धूम्रपान कर रहा है , मगर वे क्या कर सकते थे।
बाबूजी हमेशा आशावादी थे, हारना उन्होंने सीखा ही नहीं। वे सभी से कहते थे कि “ईश्वर उसी की मदद करता है जो स्वयं प्रयास करता है”। असफलता के डर से आदमी को अपना कार्य करना नहीं छोड़ना चाहिए। बाबूजी सभी को बताते थे कि उनका बचपन बड़ी मुसीबतों में बीता था मगर उन्होंने कभी हार नहीं मानी और न कभी रोए। वे सभी को अपनी राम कहानी सुनाते थे और बताते थे कि जब वे मात्र छ: साल के थे तो उनके पिता जी नहीं रहे । गांव में उनके चाचा-चाची थे मगर बाबू जी और उनके सगे भाइयों को पढ़ाने लिखाने को कोई तैयार नहीं था। इसलिए उन्होंने तय किया कि वे शहर चले जाएंगे और पढ़ेंगे। लेकिन वहाँ उनके खाने-पीने और पढ़ाई की व्यवस्था कैसे होगी यह उनकी समझ में नहीं आ रहा था। उन्हें पढ़ने की बहुत लगन थी। साथ ही उन्होंने सोचा कि बाप के बाद वे ही बड़े हैं तो उनके ऊपर ही उनके भाइयों और घर वालों की जिम्मेदारी थी । उनका ध्यान भी रखना होगा और उनको पढ़ा लिखा कर एक अच्छा जीवन देना होगा। अपनी ज़िम्मेदारी के इस संकल्प को वे जीवन भर निभाते रहे परंतु लोग उनका फायदा उठाते रहे। शायद उन्हें वे लोग बेवकूफ समझते थे।
वे बताते थे कि गांव में तो स्कूल था नहीं। जब कोई उन्हें शहर भेज कर पढ़ाने को तैयार नहीं हुआ तो एक दिन वे अपने चाचा-चाची से लड़कर और अम्मा का चरण स्पर्श कर शहर की ओर निकल पड़े थे। उनकी अम्मा तो रोती ही रह गई थी।
शहर जाते समय उनके पास मात्र एक धोती,एक जाघिया, दो कमीज, एक पायजामा और एक झोले में कुछ सतुवा और चावल था।
उन्होंने अपनी जाघिया स्वयं हाथ वाली सुई से सिल कर तैयार की थी । बाबूजी अपने गांव से शहर लगभग सत्तर मील दूर कैसे गए थे इसका पता हमें नहीं है । किसी को पता नहीं कि वह पैदल गए थे या कोई सवारी मिली थी। वैसे भी उस समय बैलगाड़ी के अलावा एक आम आदमी को कुछ भी उपलब्ध नहीं था। शहरों में बग्घी एवं तांगे हुआ करते थे। साइकिल होती थी पर साइकिल लेना सबके बस की बात नहीं थी। रिक्शे बहुत कम दिखाई पड़ते थे । उनसे उनकी सवारी के बारे में पूछने पर से वे नाराज हो जाते थे कि शायद लोग उनकी कहानी सुनकर उनका मजाक उड़ा रहे हैं। बाबूजी गाँव से एक लोटा और एक डोरी भी साथ लेकर निकले थे। उस समय ये दोनों चीजें बड़े काम की हुआ करती थी । रास्ते में प्यास लगे तो लोटा और डोरी से किसी भी कुएं से पानी निकाल कर पिया जाता था। तब पानी निकालने वाला चापा-कल भी नहीं होता था।
उस समय कम ही लोग किराएदार रखते थे। बड़े लोगों के बंगले में कोई न कोई कमरा फ्री में रहने को मिल जाता था । बाबू जी को भी एक कोठी में जगह मिल गई थी। बदले में वे उस कोठी के मालिक के पत्र लिखा करते थे और अन्य दस्तावेज
बनाते थे । उनके पास कपड़े कम थे इसलिए वे घर में जाघिया पहनते थे और जब बाहर निकलते तो पायजामा पहन लेते थे। रात में कपड़े धो देते और सुबह उसको ही पहन कर काम चलाते। बाबूजी तो लोटे में ही अपने पैसे रखते थे। अक्सर लोटे में जलता कोयला डाल कर अपने कपड़ों पर प्रेस कर लेते थे। चिकने पेंदी वाला लोटा से तो कमाल का प्रेस होता था और उससे कुर्ते पर चुन्नट भी डाला
जाता था। धोबी को देने के लिए पैसे नहीं होते थे।
वे बताते थे कि उनकी पढ़ने की काबिलियत देखकर एक ख्याति प्राप्त पाठशाला ने अपने कॉलेज में उन्हें एडमिशन दे दिया था। उसी साल उन्हें फारसी और अंग्रेजी में अव्वल स्थान मिला और उन्हें वजीफा भी मिलने लगा। शाम को बाबूजी दो बच्चों को ट्यूशन पढ़ाते थे जिससे उन्हें महीने में हर एक से चार आना अर्थात कुल आठ आना मिल जाता था। आज तो लोग अठन्नी को फेंक देते हैं मगर उस समय उसकी बहुत कीमत थी । वे बताते थे कि उनके खाने का खर्च रोजाना मात्र तीन पैसे थे । इस प्रकार महीने भर में वे दो आने बचा लेते थे। एक रुपए में सोलह आने और एक आने में चार पैसे होते थे।
बाबूजी के शहर चले जाने के बाद साल भर उनकी अम्मा रोती रहीं और जब वे वापस घर नहीं गए तो उनकी अम्मा ने उनके छोटे भाई को उनका हालचाल लेने भेजा था। बाद में वे उनके साथ कुछ राशन भी भेज दिया करती। अब तो बाबूजी की गाड़ी पटरी पर आ गई थी । आगे चल कर उन्हों ने एक एक करके अपने भाइयों को अपने शहर बुला लिया और उनका दाखिला भी अपने ही कालेज में करवा दिया। अब अपने भाइयों के लिए वे कठोर परिश्रम करने लगे। सभी के लिए खाना बनाते और ट्यूशन करके थोड़ी बहुत कमाई भी करते रहे। लोग उनके अपने भाइयों के प्रेमकी मिशाल देते थे। उन्होंने अपने भाइयों को पढ़ा लिखा कर नौकरी में लगवा दिया। खुद भी नौकरी पा गए थे। लोग बताते हैं कि उनके अपने भी अलग-अलग जगहों पर जाकर अपना घर अलग बसा लिया क्योंकि कोई उनके साथ नहीं रहना चाहता था।
बाबूजी की ऊंची नौकरी होने के कारण गांव एवं जनपद में उनकी अच्छी खासी इज्जत होने लगी थी। लोग अपना काम करने उनके पास आने लगे मगर जब उन्हें लगता था कि काम सही है तभी वह किसी की मदद करते थे वरना भगा देते थे ।
इसलिए लोग उन्हें घमंडी समझने लगे थे।
वे ऊपर की कमाई पर कतई विश्वास नहीं करते थे। एक अफसर होते हुए भी वे बहुत सादगी से रहते थे । न तो उन्होंने कभी ड्राइंग रूम बनाया और न ही किसी कार से चले। हमेशा साइकिल से ऑफिस जाते थे । इसलिए लोग उन पर सदैव हंसते थे मगर उन्होंने कभी किसी की चिंता नहीं की और अपनी ईमानदारी, निष्ठा मेहनत के कारण सबके प्रिय बने रहे।
वह कहते थे कि अपने को डेवलप करो मगर लोग चाहते थे कि खुद कुछ न करना पड़े और दूसरे की कमाई मिल जाए । बाबूजी कहा करते थे बेईमानी न करो परंतु लोग उल्टा जवाब देते कि जब सभी बेईमानी कर रहे हैं तो मैं क्यों ना करूं ।
वे एक ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने अपना जीवन अपने परिवार और समाज के लिए अर्पण कर दिया। जब उनका इंतकाल हुआ तो कई दिनों तक सभी रिश्तेदार और पडोसी उनकी कहानियां सुनाते रहे थे मगर अब उन्हें कोई याद नहीं करता। उनके अपने घर में उनकी एक भी फोटो नहीं है ।
हमेशा दूसरे की मदद करने वाले बाबूजी के अंतिम समय में उनकी बात मानने वाला कोई नहीं था फिर भी उनको उम्मीद थी कि यह समाज बदलेगा और लोग एक दूसरे की मदद करते हुए अपनी बुराइयों को दूर करेंगे।
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