यादों के झरोखों से—निश्छल प्रेम (8) आपके सामने प्रस्तुत है।मातृभारती के सम्मानित पाठकों को,सम्मानित रचनाकारों को नमस्कार ।
मैं भोजन बनाने के लिए रसोईघर में जा रही थी तभी मेरी मित्र ने मुझे दरवाज़े से पुकारा—-
सुबह के समय मेरी मित्र शारदा का मेरे घर आना मुझे अचंभित सा लगा ।अपनी चिंता प्रकट करते हुए मैंने पूँछ ही लिया,क्यों क्या हुआ सब ठीक तो है।
शारदा मेरी घनिष्ठ मित्रों में से एक थी मेरी चिंता को भाँपते हुए बोली—
अरे सब ठीक है बैठने तो दो,पानी पिलाओ मुझे प्यास लगी है।
मैं पानी लेकर उसके पास बैठ गई और बोली अब बता क्या बात है।
उसने कहा तुम तो जानती हो मैं सामाजिक संगठन से जुड़ी हूँ ।आज किसी ऐसी महिला को सम्मानित करना है,जो अपने परिवार का भरण-पोषण स्वयं अकेले करती हो।आज शाम को कार्यक्रम है और ग्रुप में यह ज़िम्मेदारी मुझे सौंपी है।
शारदा की बात सुनकर मुझे अचानक वह दिन याद आ गया जब मैं नये घर में रहने के लिए आई थी।
मेरे घर के सामने एक परिवार रहता था,एक महिला और चार बच्चे ।दो लड़के थे एक की उम्र पंद्रह वर्ष और दूसरे बेटे की बारह वर्ष ।दो लड़कियाँ थी एक की उम्र दस वर्ष और छोटी बेटी की उम्र आठ वर्ष ।
मेरे घर कभी-कभी बच्चियाँ आ जाती,मैं अपने काम काज में व्यस्त रहती तो अधिक बातें नहीं हो पाती थीं एक दिन मैं बच्चों से बातें कर रही थी तभी बड़ी लड़की कहने लगी हम घर जा रही है ,मॉं को जाना है और वह चली गई ।
अगले दिन मैंने कहा—बिटिया तुम्हारे घर में कौन-कौन रहता है ।
तभी उन बच्चों की मॉं मेरे घर आईं ।पहली बार मिली थी कुछ शिष्टाचार में बातें हुई और वह चली गई ।
उनसे मिल कर मुझे बहुत अच्छा लगा ।एक दिन मैं उनके घर गई तो हमारी बातें हुई।
उनका बड़ा बेटा फ़ैक्ट्री में काम करता था,पंद्रह वर्ष की उम्र में इतना बड़ा बोझ उस पर।
तीन बच्चे पढ़ाई कर रहे थे सरकारी स्कूल में ।
मॉं सुबह और शाम को खाना बनाने जाती थीं ।
कभी-कभी शादी के घर में भी खाना बनाने चली जाती तो रात्रि में बच्चे हमारे घर आकर खेल लिया करते थे।
बच्चों को मैं कुछ खाने -पीने को देती तो भूख नहीं है कहकर घर चले जाते ।
एक दिन बच्चों की मॉं घर पर नहीं थी ।छोटी बच्ची बहुत रो रही थी ।मेरे घर तक उसकी आवाज़ आ रही थी ,रोने की आवाज़ बहुत तेज थी ।
मैं जल्दी से उठकर उसके घर गई और बिटिया को चुप कराया और रोने का कारण पूँछा—वह तो कुछ नहीं बोली सिसकियाँ लेती और रोने लगती ।
बड़ी बेटी ने कहा—मॉं ने जाने से पहले खाना बना दिया था।हम कहरहे हैं खाना खा लो तो यह नहीं खा रही ।मैंने प्यार से कहा—अच्छी बिटिया खाना खायेंगी।
मैंने बड़ी बिटिया से कहा खाना परोस लो मैं खाना खिलाती हूँ यह कहकर मैंने सब्ज़ी का बर्तन खोला ।
बर्तन खोलते ही मैंने देखा सब्ज़ी के नाम पर पतला रस आलू के सात आठ टुकड़े जिसमें पाँच प्राणी खाना खाने वाले थे।मैं वहाँ एक पल रुक न सकी।आँखों में आंसू लिए अपने घर आ गई।और सोचने लगी कितने संयमी है यह बच्चे,मेरे देने पर भी कभी कोई वस्तु नहीं ली,कितने स्वाभिमानी है यह नौनिहाल ।
बच्चों के पिता नहीं थे ।मॉं ही पूरी तरह उनकी परवरिश करते हुए संस्कार भी दे रहीं थीं ,धन्य है ऐसी नारी—धन्य है ऐसी मॉं।
मै शारदा को उनके पास ले गई,वही थीं पुरस्कार की हक़दार............
आशा सारस्वत