360 डिग्री वाला प्रेम - 33 Raj Gopal S Verma द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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360 डिग्री वाला प्रेम - 33

३३.

नाउम्मीदी

दिन बीत गया. शाम होते-होते आरिणी का बुखार अब हल्का लग रहा था. पर घर का वातावरण थोड़ा बोझिल था. आरव पूरे समय मौजूद था, लेकिन नीचे अपनी मम्मी के पास था या टी वी देखता रहा. उर्मिला जी भी देखने नहीं आई आरिणी को. उसे आरव की बहुत चिंता हो रही थी. सोचा कि अनायास काम के दबाव से क्रोध आया होगा, और क्रोध में हमारा विवेक हमें जिस रास्ते पर धकेलता है, उसी पर हम चल पड़ते हैं… बिना सोचे-समझे. पर कहीं यह बिगडती बीमारी का लक्षण तो नही ?

शाम को बाई आ गई थी, बर्तनों का कोई झंझट नहीं था. सब्जी काटने और किचन व्यवस्थित करने का काम भी वह ही संभाल लेती थी, इसलिए थोड़ा राहत थी. वह नीचे आकर सबके लिए चाय बनाने लगी. पापा भी अभी आ गये थे, उनको भी चाय सर्व करने की सोची उसने.

चाय बनाकर वह ड्राइंग रूम में पहुंची. मम्मी पहले ही फोन पर बात कर रही थी. आरव और पापा भी मौजूद थे, पर वह शांत बैठे थे. मां जी और आरव के तेवरों से लगता था कि दोपहर की बात से अभी क्रोध शांत नहीं हुआ है. दोनों की भृकुटी तनी हुई थी. पर बात किस से हो रही थी फोन पर. शायद आरिणी की मम्मी माधुरी थी.

 

“जैसी आपकी मर्जी… अब भला हमें क्या आपत्ति होगी. आपकी और उसकी ख़ुशी का ध्यान कैसे नहीं रखेंगे!”,

 

कहकर फोन रखा. उनके व्यवहार में कृत्रिमता और बेरुखी स्पष्ट झलक रही थी.

 

“कैसी हो अरु बेटा!”,

 

राजेश ने पूछा, पर उनकी निगाह से लगा कि वह भी औपचारिकता निभा रहे थे.

 

“जी.. बेहतर हूँ”,

 

कहकर आरिणी वर्तिका के शयन कक्ष की ओर निकल ली.

 

रात को आरव ने बताया कि मां का फोन था. अगर तुम जाना चाहो, तो जा सकती हो. जब तक मन करे!

 

“जब तक मन करे… मतलब?”,

 

आरिणी ने स्पष्ट पूछना चाहा.

 

“मतलब जब तुमको बेहतर लगे… तुम कुछ सीख सको, कि बड़ों से कैसे व्यवहार रखना है…”,

 

कहकर आरव फिर से क्रोधित होने की मुद्रा में आ गया था. पर अब क्रोध पर संयम रखने की सीमा टूटती नजर आ रही थी आरिणी की. उसने पूछा कि,

 

“इन सब बातों का क्या मतलब है. ऐसा कौन सा अपराध किया है मैंने… बीमारी में बेड रेस्ट करना क्या कुछ अनुचित है?”

 

“तुमको क्या यह नहीं पता कि मां की सेवा करना तुम्हारा फ़र्ज़ है… वह पूरे घर और मेहमानों को कब तक संभालती रहेंगी. उन्हें मदद नहीं करोगी तो घर में कैसे अपना होना सिद्ध करोगी तुम?”,

 

कहते कहते आरव फिर क्रोध से कांपने लगा था.

 

“मुझे वाकई कुछ समझ नहीं आ रही तुम्हारी थ्योरी… शायद मुझे ही साइकेट्रिक ट्रीटमेंट की जरूरत है..”,

 

और वाक्य पूरा भी नहीं हो पाया था कि आरव ने उसके बाल पकड कर सर को दीवार की ओर धकेल दिया. साइकेट्रिक ट्रीटमेंट वाली बात से उत्तेजित हो उठा था वह. अप्रत्याशित वार से आरिणी असंयत होकर टकराते-टकराते बची, पर उसके बाएं हाथ में एक लम्बी खरोंच आ ही गई. वह निढाल हो कर वहीं फर्श पर बैठ गई.

 

एक पल तो आरिणी को समझ ही नहीं आया… पर जब समझा तो उसकी आँखों से इतने आंसू बहे कि उसे स्वयं याद नहीं कि कभी वह इस तरह से रोई हो. वह रो रही थी… और बस रो रही थी. बीमारी के बाद दुर्बल शरीर में यूँ तो रोने की भी क्षमता नहीं बची थी, पर उसे आरव के इस व्यवहार से जो सदमा पहुंचा था वह अवर्णनीय था.

 

और आरव? वह इसे सामान्य मान रहा था. एक तो अक्षम्य हिंसक व्यवहार, उस पर कोई पश्चाताप नहीं… यह आरव का एक दूसरा रूप था, जिससे वह अभी तक अपरिचित थी. इससे पहले अकारण उर्मिला जी की बेरुखी वह भुगत ही चुकी थी. अब और साहस नहीं था उसमें.

 

आरिणी ने कॉल मिलाई. मां ने दो रिंग पर ही ऐसे अटेंड की, जैसे वह उसकी प्रतीक्षा में ही हो.

 

आरिणी कुछ बोल पाती, उससे पहले ही उसकी सिसकियों ने स्वयं को रुदन में बदल लिया. अनियंत्रित रुदन. वह अकेली भी थी, और न ही कोई उसे ढाढस बंधाने के लिए आस पास था. और यदि होता भी तो कोई जरूरी नहीं कि उसके साथ किसी की कोई सहानुभूति हो भी.

 

बहुत देर बाद, मां के लगातार समझाने पर वह इतनी संयत हो पाई कि अपनी व्यथा को मां से साझा कर सके. उसने पूछा भी,

 

“आप ही बताओ मां…, मेरी गलती क्या है? क्या मेरा बीमार पड़ना… या चुपचाप सहन करना!”.

 

मां का दिल भर आया था. पर वह बेटी को कोई ऐसा कदम उठाने के लिए भी नहीं कह सकती थी जिसके दूरगामी परिणाम अच्छे ना हों. उन्होंने उसे थोड़ी और प्रतीक्षा करने को कहा. तब तक वह समाधान ढूंढना चाहती थी.

 

उन्होंने उर्मिला के मुंह से उनका पक्ष सुनना चाहा. पर, उन्हें कोई खेद नहीं था. वह इसे एक सामान्य घटना मान रही थी, जिसका जिक्र भी आरिणी को अपनी मां से नहीं करना चाहिए था. बोली,

 

“हो सकता है कि झुंझलाहट में मेरे मुंह से कुछ निकल गया हो… पर मेरा आशय कोई गलत नहीं था. मुझ से भी ज्यादा काम नहीं होता, तो किसी न किसी पर गुस्सा निकल जाता है. वर्तिका और उसमें कोई भेद थोड़े ही है मेरे लिए.”

 

पर, यह भी सही था कि उर्मिला आरिणी से अपने असंयत व्यवहार को न्यायोचित ठहराने में असफल रही, लेकिन माधुरी रिश्तों की नजाकत को समझती थी इसलिए बात को सुलझाने के मूड में थी. सामाजिक स्थिति और पति की नौकरी तथा शैक्षिक योग्यता में वह भी समान रूप से उस स्तर से कम नहीं थी, जिसका प्रतिनिधित्व उर्मिला करती थी. पर, निश्चित रूप से सम्बन्धों की परख और सौम्यता उनके अंदर थोड़ा बेहतर थी. कठिन और विपरीत परिस्थितियों में भी विनम्रता और धैर्य कैसे बनाए रखा जाए, यह उनसे सीखा जा सकता था. फिलहाल उन्होंने इस विषय को विराम दिया और उर्मिला से विदा लेकर, विनय को कॉल की.

००००