४..
आरव… और परिवार
भारतीय रेल सेवा में डिप्टी ऑपरेशन मेनेजर के महत्त्वपूर्ण पद पर तैनात थे आरव के पिता राजेश प्रताप सिंह. उसी के नाते उनको लखनऊ की विशिष्ट कॉलोनी विक्रमादित्य मार्ग में एक बंगला मिला हुआ था. विशिष्ट इसलिए कि वर्तमान और पूर्व मुख्यमंत्रियों के बंगले उनके आस-पास ही थे, मुख्य सचिव का बंगला उनके घर से डेढ़ सौ मीटर दूर था, तो प्रदेश का राजभवन मात्र आधा किलोमीटर. चारों ओर आई ए एस और आई पी एस अधिकारियों के सरकारी आवास. लगभग आठ हज़ार वर्ग फीट के इस बंगले का डिजाइन और निर्माण यूँ तो ब्रिटिश काल और ओरिएण्टल आर्किटेक्चर का था, परन्तु उसके भूतल की हवादार संरचना और प्रथम तल के बेडरूम के मंग्लोरियन टाइल्स… छत का खपरैलनुमा डिजाइन, वह सब आज भी गगनचुम्बी इमारतों के जंगल में एक ठंडी हवा के झोंकों मानिंद दिखते थे. हरा-भरा पल्लवित लॉन और चमेली, पारिजात के श्वेत फूलों से महकता परिसर, वुडेन चाहरदीवारी पर बेतरतीब फैली बहुरंगी बिगनबेलिया की बेलें...कितना अद्भुत लगता था सब कुछ. और लॉन के एक कोने में बना छोटा-सा गज़ेबो जिसके नीचे सर्दी की छन कर आती धूप में बैठकर चाय पीने का आनंद कुछ अलग ही था, पर हो कब पाता था ऐसा. बस किसी रविवार की दोपहर को सब लोग अगर बैठ पायें तो कितना सुहाना लगता था वह दिन! सच में!
वर्तिका का कॉलेज घर के बिल्कुल नज़दीक था, अवध कॉलेज फॉर गर्ल्स, सो उसकी फ्रेंड्स के आने-जाने से घर गुलज़ार रहता. पर आरव का... एक तो कॉलेज दूर, दूसरे उसका स्वभाव कुछ शांत… वह खुद ही दोस्त नहीं बना पात़ा था. कोई पूरे टाइम स्टडीज और किताबों में खोया रहेगा तो कौन बनेगा उसका फ्रेंड! लेकिन आरव को कोई फर्क नहीं पड़ता था, बल्कि उसे अच्छा लगता था, बेतरतीब रहना, पढ़ना, और सिर्फ पढ़ना. फिर, उसके पेरेंट्स को गर्व भी होता था, जिस तरह की पढ़ाई से वह अपने टीचर्स का दिल जीतता था, और सभी प्रतियोगिताओं को आसानी से पार कर लेता, वह गौरव की बात लगती सबको.
हालांकि अभी उसे भी स्पष्ट नहीं था कि उसे क्या बनना है, पर यह जरूर तय था कि उसे मैकेनिक्स पर कोई शोध अवश्य करना है. ऐसी रिसर्च जिसे उसके नाम से जाना जाए. जब भी वह मूड और फुर्सत में होता, अपने पापा से इस सम्बन्ध में जरूर बात करता. फिलहाल वह कॉलेज के इस प्रोजेक्ट और सिनोप्सिस को लेकर उत्साहित था. उसे क्लू मिल चुका था. उसने दो बार नोयडा के जेपी रेसिंग ट्रैक पर इन गाड़ियों की रेस भी देखी थी, पर उससे अधिक रोमांच ऊबड़-खाबड़ रास्तों के लिए विशेष रूप से डिजाइन किये गए व्हीकल्स में था.
राजेश प्रताप कभी उसे निराश नहीं करते, एक तो मैकेनिक्स उनका भी प्रिय फील्ड था, दूसरे बेटे के सपने में वह अपने भी सपने पूरे होते देखना चाहते थे. आरव के लिए तो बस पढ़ना, सिर्फ पढ़ना, और चाय या कॉफ़ी ही सब कुछ था… ! अब भला यह भी कोई जिन्दगी हुई, वह तो हजरतगंज के कॉफ़ी कैफ़े डे में जाकर कॉफ़ी पीना भी समय की बर्बादी मानता था. इक्कीस-बाईस साल की उम्र में... यह तो कोई रोमांच हुआ ही नहीं न ! वर्तिका को तो फिर भी म्यूजिक और पार्टियाँ पसंद थी, कॉलेज की कल्चरल सेक्रेटरी भी थी लगातार दो साल से, पर उसके विपरीत आरव जी तो आइन्स्टीन बनने की राह पर चल पड़े थे. कई बार उसके पापा, माँ और वर्तिका मिलकर हँसते थे, उसके रूखे व्यवहार पर, पर मजाल है कि उसकी खिलखिलाहट सुन जाए. न जाने कैसे होंठों के पार हंसी रोकने का बेहतर अभ्यास था उसको. धीर गंभीर स्वभाव उसके अंग-प्रत्यंग में ढल चुका था.
लगभग ग्यारह बजे रात को आरव की आँखें खुली. आनन-फानन में भोजन की तैयारी हुई, पर आरव की चिंता प्रोजेक्ट की सिनोप्सिस को लेकर थी. उसके पास ही अधिकतर मटेरियल जो था. और वह स्वयं इस प्रोजेक्ट को लीड करना चाहता था. मुंह-हाथ धोकर उसने जल्दी-जल्दी खाना खाया और मां की सलाह के विपरीत जुट गया अपने मिशन में.
“आप नहीं समझोगी मां”,
मुस्कुराते हुए आरव ने कहा और अपने बैकपैक को टेबल पर बिखेर कर पेपर्स छांटने लगा.
“वो ठीक है बेटा, लेकिन लगता है तुम्हारी नींद पूरी नहीं हुई है. सेहत का ध्यान नहीं रखोगे तो पढ़ाई से कैसे तालमेल बिठा पाओगे ?”,
अपनी चिंता जाहिर की उर्मिला जी ने. पर वो सिर्फ एक मां की चिंता थी. चाहती तो वह भी थी कि आरव ही लीड करे और उसका प्रोजेक्ट अद्वितीय रहे.
“मेरी चिंता है न आपको ?”,
आँखों में झाँख कर आरव ने पूछा मां से, और बिना उत्तर की प्रतीक्षा किये बोला,
“तो एक काम कीजिये…. एक थरमस में दो-तीन कप बढ़िया कॉफ़ी ले आइये. ताकि जब भी नींद हावी हो तो मैं कॉफ़ी पी लूँ और आपको याद भी करूँ, इसी बहाने !”
मां से हँसे बिना नहीं रहा गया, बोली,
“कॉफ़ी तो बस एक ही कप मिलेगी...क्यूंकि रात देर तक जागना ‘अलाऊ’ ही नहीं तुम्हें...और हाँ, अगर ज्यादा ही जरूरत हो तो मुझे नींद से जगा देना फ्रेश बना दूँगी. पर कोशिश करना कि समय से सो सको. सवेरे कॉलेज भी करना होगा न पूरे दिन तुमको!”, लाड जताया उर्मिला ने.
टेबल काफी बड़ी थी जिसपर अपना बैकपैक से निकला मटेरियल फैलाया था आरव ने. एक तरफ कुछ किताबें भी रखी थी. काफी तैयारी थी, बस फाइनल टच के इनपुट्स देने थे. याद आया, काफी काम उसने आरिणी और देव को भी सौंपा था. आरव ने अपने मोबाइल को चेक किया देखने के लिए कि क्या कोई फाइल अपलोड की है उन लोगों ने उसके मतलब की…!
चार मिस्ड कॉल… जो उसके नींद में होने और फोन के म्यूट होने से मिस्ड हो गई थी…! चारों आरिणी की थी. फिर व्हाटसअप पर मैसेज...वो भी कुछ कम नहीं थे,
“व्हेयर आर यू आरव…??”,
“कॉल मी व्हेनेवर यू सी.. हे...सम रियली इम्पोर्टेन्ट..नीड तो शेयर अबाउट द प्रोजेक्ट”,
आरव ने मोबाइल की घडी में ही देखा, ११.४० पी एम. नहीं, यह कोई समय नहीं था उसको कॉल करने का. पर एक मैसेज तो भेजा जा सकता था.
“सॉरी, कुड नाट सी...वाज इन डीप स्लीप...टॉक टू यू इन द मार्निंग…” और भेज दिया आरव ने मैसेज आरिणी को.
कॉफ़ी भी आ गई थी अब तक. मां उसका बेड सहेजने लगी...पर आरव ने मना किया,
“रहने दो मां...फिर वैसा ही हो जाना है”,
बिना देखे ही उसने बोला. पर मां तो मां है ना, बोली,
“तो फिर करूंगी न...जब तक हूँ, मैं ही करूंगी !”
और निरुत्तर हो गया काम में खोया आरव भी, पहले एक टक देखा मां की आँखों में, फिर काम में इतना व्यस्त हुआ कि सही से सुन भी नहीं पाया, और न समझ पाया, मां की चिंता को!
आरव जुट गया था… आज यूँ भी ठण्ड कुछ ज्यादा ही थी लखनऊ में, या फिर इस घर में, जो काफी खुला था. रूम ब्लोअर की गर्माहट से वास्तविक रूम टेम्परेचर का कुछ आईडिया नहीं लग पा रहा था, पर बाहर निकलना हुआ था अभी एक बार, तो समझ में आया कि शायद आज मौसम का सबसे ठंडा दिन था.
सिनोप्सिस सही दिशा में जा रहा था. लैपटॉप पर कुल आठ पेज अभी तक लिखे थे आरव ने जो लगभग फाइनल शेप में थे. कुछ सपोरटिंग डॉक्यूमेंट लगाने थे, जो कॉलेज में जाकर फोटोस्टेट कराये जाने थे. लिस्ट ऑफ़ मटेरियल आरिणी को देनी थी. इस प्रकार दोपहर दो बजे तक की डेडलाइन पूरी होने में कोई संशय नहीं रह गया था. घड़ी में अभी दो नहीं बजे थे. सायं-सायं की आवाजों से लगता था कि घर क्या पूरा शहर सोया पड़ा है. चौकीदार की सीटी की आवाज भी शांत थी आज तो, जो अक्सर नीरवता भंग कर गूंजती हुई सुनाई पड जाती थी ऐसे समय में.
आरव ने एक अंगडाई ली और बिस्तर में सिमटने की तैयारी कर ली. पर उससे पहले ८.३० बजे का अलार्म लगाना नहीं भूला वह ! आज २४ जनवरी आरंभ हो गई थी. आज ही उसे सिनोप्सिस देना था. वह कोई रिस्क नहीं लेना चाहता था, इसलिए ऐसे जुटा था, जैसे उसका केवल अकेले का ही प्रोजेक्ट हो.
००००