360 डिग्री वाला प्रेम - 3 Raj Gopal S Verma द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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360 डिग्री वाला प्रेम - 3

३.

ऐसे ही बनती है अंतरंगता

अट्ठाइस जनवरी, यानि महीने का अंतिम सप्ताह, और भरपूर सर्दी. यह नवाबी शहर मई-जून की गर्मी में भरपूर गर्म और दिसम्बर से फरवरी की सर्दियों में बर्फ-सी गलन की सर्दी का अहसास दे ही जाता है.

घड़ी में सवेरे के लगभग ९.५५ बजे थे. लाँग कोट और कैप पहने भूमिका ने स्टैंड पर अपनी एक्टिवा खड़ी की और क्लासरूम के बाहर फैली गुनगुनी धूप के पास जाकर रुक गई. वहां देवेश और आरिणी भी थे. धूप थोड़ा हल्की थी, इसलिए मौसम में ठिठुरन भरी थी. देवेश क्लासरूम से दो स्टूल उठा लाया था, पर आरिणी के कहने पर वह दो और स्टूल ले आया. तभी आरव भी आ पहुंचा.

“आज भी लेट? पहला दिन है, और श्रीमान आ रहे हो पूरे १८ मिनट देरी से… !”,

आरिणी ने उसकी ओर देखते हुए शिकायत-उपेक्षा मिश्रित स्वर मे कहा, पर आरव का कोई उत्तर नहीं आया. वह आराम से अपना बैकपैक रख कर उसमें से नोट्स निकालने लगा. और भूमिका… उसने तो जैसे देखा ही नहीं कि वह भी है यहाँ पर, जवाब की बात तो दूर.

आरव...यानि शांत! आरव संस्कृत मूल का शब्द है... रव का अर्थ होता है ध्वनि और उसका विलोम यह, यानि शांतिप्रिय इंसान. हां, एक झलक ऐसा ही तो दिखता था आरव. स्वयं में खोया हुआ, डूबा हुआ अपनी ही गहराइयों में, कुछ यादों में शायद, कोलाहल से दूर! ऐसा नहीं है कि वह हमेशा गम्भीर ही रहता हो. खिलखिलाकर हंसता भी था, पर थोड़ा कंजूस था हंसने को लेकर !

 

“मैंने ये नोट्स तैयार किये हैं, रात भर पूरी रिसर्च करने के बाद… आप लोग एक निगाह इन पर भी डाल लो, तब तक मैं सबके लिए कॉफ़ी लाता हूँ",

 

आरव ने कहा, और बिना जवाब की प्रतीक्षा किये कैंटीन की ओर चल दिया. लेकिन थोडा आगे जाकर वह मुड़ा और जोर से बोला,

 

“किसी को कुछ और तो नहीं चाहिए न ?....समोसा?”,

 

और फिर बिना सुने ही छलांग लगा दी जल्दी पहुँचने के लिए.

 

“लीजिये, हम लोग अभी रेफरेन्सेस ही ढूंढ रहे हैं और जनाब ने आधा प्रोजेक्ट भी पूरा कर लिया",

 

यह भूमिका थी, जो थोडा चिढ़कर बोली.

 

“अरे, देखने तो दो...क्या पता बस गूगल से ज्यूँ का त्यों न चेप दिया हो श्रीमान जी ने",

 

हंसकर बोला देवेश !

 

… लगभग चालीस मिनट की बहस और फिर लैपटॉप पर आरिणी का सिनॉप्सिस तैयार करना. सबने अपने-अपने इनपुट दिए पर सबसे सक्रिय रही आरिणी और फिर भूमि. यूँ भी आजकल लड़कियां आगे हैं हर फील्ड में, उनके डोमेन से मैकेनिकल कैसे अछूता रह सकता है! आरव ने एडिटिंग के लिए अपनी दक्षता को अवश्य सुरक्षित रखा था, पर यह देखने की बात थी कि जो सिनॉप्सिस बनने जा रही थी, उसमें वाकई में एडिटिंग की कितनी गुंजाइश थी.

 

गूगल से जो मिल सकता था आरव ने पूरी रात वो सब छान मारा था, अब उसका इरादा लाइब्रेरी की कुछ पुरानी किताबों को खंगालने का भी था. लगभग एक घंटे की मेहनत के बाद कुछ किताबें मिली जिनमें कुछ अपेक्षित जानकारी थी जिनसे… प्रोजेक्ट को बेहतर करने की कुछ संभावनाएं दिखती थी. उनके कुछ पार्ट्स को फोटोकॉपी के लिए दिया उसने और फिर हाइलाइटर से निशान लगाने शुरू किये. उसे उम्मीद से ज्यादा ही मिल गया था यहाँ. गूगल की कमी लाइब्रेरी ने पूरी कर दी थी.

 

ठीक साढ़े तीन बजे थे. फिर से चारों को मिलना था. इस बार कैंटीन में मिलना तय हुआ था. लाइब्रेरी की घड़ी ने दोपहर के ३.३० का घंटा बजा दिया था पर अभी तक न तो आरव का काम पूरा हुआ था, न देव कैंटीन में पहुँच पाया था. आरिणी और भूमि दोनों दस मिनट पहले ही कॉमन रूम से कैंटीन मे आ गई थी.

 

हाँफते-दौड़ते हुए जब तक देव आया तब तक ३.४२ हो चुके थे. वे तीनों तो हॉस्टल में रहते ही थे, केवल आरव ही डे-स्कॉलर था. अब ये जो तीनों इकट्ठे हुए, सब खाली हाथ थे, कोई क्लू ही नहीं प्रोजेक्ट का, जैसे निठल्ले हों. जबकि वास्तविकता ऐसी नहीं थी. सबसे क्लियर फंडा रखती थी आरिणी. वो बात अलग थी कि सब्जेक्ट उसकी रुचि का नहीं था, फिर भी वह किसी रूखे विषय में भी जान फूंकने की क्षमता रखती थी. बाकी दोनों-- भूमि और देव को तो सहमत होना ही पड़ता था उसके तर्कों के सामने. बस, थोडा बहुत बहस जो होती थी वह सिर्फ आरव से-- वह भी इसलिए कि आरव के फन्डे… मैकेनिकल और ऑटोमोबाइल के कुछ ज्यादा ही क्लियर थे, इस बात को अब तक सातवाँ सेमेस्टर होते-होते स्टूडेंट्स के साथ-साथ टीचर्स भी समझ गए थे.

 

घड़ी में दोपहर ३.५२ का समय हो चुका था, जब आरव ने कैंटीन में ग्रुप पर निगाह डाली. अपना बैकपैक रख कर उसने पेपर्स निकाले और आरिणी के हाथ में थमा कर काउंटर की ओर चल दिया.

 

“लेट मी हैव ए कप ऑफ़ एस्प्रेसो फर्स्ट….”,

 

वह बोला.

 

“मी टू ब्रो !”,

 

यह देव था, बेचैन आत्मा. जबकि जानते सब थे कि आरव चार कप कॉफ़ी ही आर्डर करेगा.

 

“अब देखो… परफेक्ट ना ?”

 

आरव ने नोट्स में डूबी आरिणी से पूछा. पर आरिणी ने कोई जवाब नहीं दिया, हाँ. वह बीच-बीच में हरे रंग के हाइलाइटर से जरूर कुछ नोट्स को हाईलाइट कर रही थी. इस बीच देव ने सुझाव दिया कि उन लोगों को एक व्हाट्सअप ग्रुप बना कर लूप में रहना चाहिए ताकि हर हालत में कल प्रोजेक्ट का सिनोप्सिस तैयार हो सके !

 

“नहीं, तैयार नहीं, परफेक्ट बनाना है", आरिणी बोली. अब तक भूमि ने चारों को एक व्हाट्सअप ग्रुप में एड कर लिया था जिसकी सिर्फ वो एडमिन थी.

 

पांच बजने जा रहे थे, जब उन लोगों ने अपना पेपरवर्क समेटा और कैंटीन को अलविदा कहा. आखिरी चाय भी नहीं बची थी वहां, जिसकी तलब लगी थी आरव को. अभी उसे लगभग १८ किलोमीटर दूर, भीड़-भाड और ट्रैफिक के बीच से होते हुए घर पहुंचना था बाकी तीनों तो हॉस्टलर्स थे.

 

सीतापुर रोड से विक्रमादित्य मार्ग… अर्थात या तो अलीगंज, आई टी क्रासिंग और हजरतगंज क्रॉस करते हुए पहुँचो या फिर रिंग रोड के हैवी ट्रैफिक...बस, ट्रक और कारों के काफिलों से जूझते हुए! दोनों ही जुझारू रास्ते थे. और फिर कल था आखिरी दिन सिनोप्सिस ड्राफ्ट प्रेजेंटेशन का. इतना प्रेशर…एक कप चाय भी नहीं. देव को बोला भी उसने,

 

“अरे, एक कप चाय तो पिलाओ...हॉस्टलर होने का क्या फायदा तुम्हारा...टहलते हुए जाओगे और बस पड़ कर सोना ही तो है !”

 

पर देव तो... जैसे उसे कुछ सुनना ही न हो.

 

“भई, हमारा कैंटीन तो और भी जल्दी बंद होता है. मिले तो ठीक, न मिले तो और भी ठीक….और हॉस्टल में तो उम्मीद ही न करना!”

 

कहते हुए वह अपना ज्ञान देता हुआ निकल लिया.

 

आरव ने बैग सम्भाला, हेलमेट लगाया, और बाईक स्टार्ट की. अब उसे सिर्फ घर का रास्ता याद था. चाहता तो रास्ते में कुछ काम निपटा सकता था, परन्तु जैसे आज की सारी एनर्जी चुक गई थी उसकी. वह जल्दी से घर पहुँच कर फ्रेश होना चाहता था. आज वैसे भी हाईवे पर ट्रैफिक ज्यादा नहीं था, और मंगलवार होने के कारण मेन मार्किट बंद थे, जिससे जगह-जगह आड़े-तिरछे ट्रैफिक जाम का सामना नहीं करना पड़ा उसे. लगभग २८ मिनट में वह घर पहुँच चुका था.

 

“देर कर दी बेटा आज… चिंता होती है, फोन कर लिया कर",

 

मां ने गेट खोलते ही स्नेह जताते हुए कहा.

 

“कहाँ देर, आज तो कहो टाइम से आना हो गया. ट्रैफिक कम था. अब देर तो होगी ही, प्रोजेक्ट का काम है, आगे-पीछे रहेगा कुछ दिन, आपको भी समझना होगा. अगर ज्यादा ही देर होगी तो जरूर बता दूंगा आपको मॉम!”,

 

मुस्कुराते हुए, बिना हेलमेट उतारे ही बोला आरव.

 

“माँ, चाय मिलेगी न जल्दी...आपके हाथों की….!”,

 

आरव ने हेलमेट टेबल पर रखते हुए वाक्य पूरा ही नहीं किया था कि माँ बोली,

 

“अरे, चाय तो मिलेगी ही, आज तुम्हारी पसंद के पनीर पकोड़े भी तैयार हो रहे हैं… बस दस मिनट आरव!”

 

“क्या बात मां! आप भी कैसे जान लेती हो कि आज कुछ ज्यादा ही मन है आपके बेटे का चाय पकौडे खाने का... अमेजिंग!”,

 

माँ के गले में हाथ डालता हुआ बोला आरव और मां बस मुस्कुराकर चल दी किचेन की ओर!

 

“जब तक फ्रेश हो जाओ तुम ... चाहो तो बाथ ले लो. पांच मिनट में ही गीजर से गर्म हो जाएगा पानी. अच्छा लगेगा नहा कर तुमको. सवेरे नहीं नहा पाए थे न! तब तक चाय-पकोड़े भी तैयार हो जायेंगे!”,

 

मां ने कुछ स्नेह और कुछ आदेश के मिश्रित स्वर में बोला आरव को. और आरव बस ‘हम्म...देखता हूँ’, कहकर फर्स्ट फ्लोर पर अपने कमरे की तरफ चल दिया.

 

वर्तिका आरव की छोटी बहन थी. वह उससे तीन साल छोटी थी. उसने इसी वर्ष बी एस सी (फ़ूड टेक्नोलॉजी) में प्रवेश लिया था, स्थानीय गर्ल्स टेक्निकल कॉलेज में. दोनों की बहुत छनती थी, और जरूरत पड़ने पर इंजीनियरिंग ब्रांच में स्टडी के बावजूद आरव ही उसकी मदद करता था, और हर बार वह सही ही होता था. वह अपने भाई को ‘रियल हीरो' मानती थी.

 

आधा घंटा हो गया था आरव को गये. चाय और पकौड़े तैयार थे. वर्तिका ने किचेन से ही तीन बार आवाज लगाई भाई को, लेकिन जब उसके आने की कोई हलचल नहीं हुई तो वह स्वयं ऊपर कमरे में पहुंची. ओह, यह क्या… आरव तो बिना चेंज किये ही अपने बेड पर निढाल पडा था. आधा ब्लंकेट भी बेड से बाहर था. गनीमत थी कि उसने अभी भी स्वेटर और ट्राउजर पहनी हुई थी. वर्तिका को बहुत मासूम-सा लग रहा था अपना भाई इस समय. बेतरतीब बाल, हल्की सी दाढ़ी और आँखों के नीचे काले धब्बे उसकी पढ़ाई के प्रति लगन और समर्पण की कहानी बयां कर रहे थे.

 

टेबल पर रखा मोबाइल म्यूट होने के बावजूद बार-बार इनकमिंग कॉल्स की ब्लू लाइट और वाईब्रेशन से जीवंत होने का अहसास करा रहा था. ‘आरिणी…’, यही नाम था उस कॉल पर जिसे देख कर वर्तिका ठिठक गई. ‘भैया ने तो कभी नहीं बताया…’, उसने मन ही मन बुदबुदाया. कोशिश की उसने जगाने की, लेकिन आरव पर तो आज जैसे नींद बहुत हावी थी. उसने आँखें मल कर एक नज़र देखा, और करवट बदल कर फिर से ब्लंकेट अच्छे से लपेट कर सो गया. फोन भी तब तक शांत हो गया था.

 

वर्तिका समझ गई कि भाई को अभी नींद से उठाना मुमकिन नहीं. वह नीचे उतर आई. मां को बताया सब.

 

“ओह वर्तिका, देखो आरव ने अपनी मेडिसिन ली या नहीं, मैं भी भूल गई याद दिलाना, उसके डिस्पेंसर में देखो… या रुको, मैं ही देखती हूँ”, बोली मां.

 

उर्मिला देवी के चेहरे पर चिंता के भाव उभर आये थे. दोनों आरव के कमरे में पहुंचे. डिस्पेंसर टेबल पर ही था. देखा… हां आज फ्राइडे की मेडिसिन तो खाली थी ही, शनिवार की भी निकली थी. यानि आज उसने भूल से दोहरी डोज़ ले ली थी. अक्सर हो जाता था ऐसा. या तो छूट ही जायेगी या डबल डोज़.

 

फिर कॉल आ रही थी...आरिणी को शायद कोई जरूरी बात करनी थी आरव से. इस बार वर्तिका ने कॉल पिक अप कर ली,

 

“मैं, वर्तिका बोल रही हूँ….आरव की छोटी बहन…. भैया सो रहे हैं, बहुत थके हैं…”,

 

“ओह, नो प्रॉब्लम… विल कॉल लेटर…”,

 

कह कर कॉल डिसकनेक्ट कर दी आरिणी ने !

 

उर्मिला जी जानती थी कि आरव की नींद के पीछे कितने सालों से चल रहा उसका इलाज था और इसमें किसी का कोई दोष भी नहीं… सिर्फ आरव की स्वयं को परफेक्ट साबित करने की जिद्द... उसकी अनियमित दिनचर्या… पूरी-पूरी रात जागना और दिन में कम से कम सोना! पर किसे मालूम कि यह जिद्द शरीर की केमिस्ट्री के साथ क्या खेल करती है. उन्हें पता था कि अब जब तक दवा का असर रहेगा, तब तक वह यूँ ही सोता रहेगा. नहीं, किसी का कोई दोष नहीं इसमें, सोचा उर्मिला देवी ने! पर, न जाने क्यों उनकी आँखें छलछला आईं.

 

उर्मिला जानती थी कि आरव को अभी उठाना संभव नहीं था. पर वह यह भी जानती थी कि आरव भूखा है, और यह बात भला वह कैसे बर्दाश्त कर सकती थी कि उसका बेटा भूखा ही सो जाए. उन्होंने प्रयास किया उसे उठाने का. उसे प्यार से सहलाया… छोटे बच्चों की तरह. बालों में हाथ फिराया जैसे बच्चा अभी थोडा और सोने के मूड में हो, और मां को उसे के. जी. की क्लास में भेजने की जिद्द् हो. पर उसे नहीं उठना था, सो वह नहीं ही उठा.

००००