360 डिग्री वाला प्रेम - 1 Raj Gopal S Verma द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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360 डिग्री वाला प्रेम - 1

००००

कहते हैं प्रेम का आना आपके जीवन मे पूर्व निर्धारित होता है, भले ही वह विवाहोपरांत ही हो। ऐसा प्रेम जिसे आप पूरी जिंदगी शिद्दत से जी सकें! आप उस प्रेम में गहरे डूबते-उतरते रहें, और जिंदगी के सफर को खूबसूरती से पार करते चलें... अपने जीवन साथी के साथ स्वप्निल यात्रा का आनंद लेते रहें!

परन्तु, जब ऐसा नहीं हो पाता है, इन प्रेम सम्बंधों में थोड़ा भी विचलन होता है, तब वह प्रेम दुःस्वप्न बन कर जिंदगी के एक-एक लम्हे को जिस उलझन में डाल सकता है, वह अवर्णनीय होता है. बहुत से कारण हो सकते हैं, पर सर्वाधिक प्रभावित करता है जीवन साथी का रुख! इसके बावजूद इच्छाशक्ति और रिश्तों के निर्वहन में ईमानदारी हो, तो रास्ते भी निकल ही आते हैं!

जीवन चुनौतियों को जीने की कला है, उनको अपने पक्ष में ढालिये, और जीवन यात्रा पर बढ़ते चलिए, कुछ करने के जज्बे के साथ, क्योंकि समय किसी की प्रतीक्षा नहीं करता, और पीछे मुड़कर देखने पर उदासियां ही हावी होती हैं, रास्ते आगे ही मिलते हैं.

यही दर्शाने का प्रयास है यह उपन्यास.

००००

-राजगोपाल सिंह वर्मा

 

 

 

 

 

 

 

 

 

१.

एक शहर… एक तहजीब… कुछ स्मृतियाँ

हजरतगंज एक जगह का नाम भर नहीं है. यह एक तहजीब का नजारा है. लखनवी तहजीब जो नवाबी दौर और नव-धनाड्य वर्ग की आवाजाही से इस इलाके को रौशन रखता है, आज भी उसी विक्टोरियन-गोथिक किस्म की वास्तुकला के सहारे अपने गौरवशाली अतीत में झांकने की इच्छा जगाता है. यह बात अलग है कि १८५७ की क्रांति के बाद जब ब्रिटिश हुक्मरानों ने शहर का अधिग्रहण किया तो मुगल वास्तुकला शैली की इमारतों को जमींदोज कर लंदन की क्वीन स्ट्रीट के मॉडल के रूप में विकसित किया था. पर देश के आजाद होने के बाद भी हम लोगों ने उनके इस स्टाइल के साथ छेड़छाड़ नहीं की. उस बाजार की वह समरूपता आज भी अक्षुण्ण है जो कुछ बेहतरीन यादगार और थोड़ी नफरत के किस्सों से सराबोर है.

सन १८२७ में जब नवाब नसीरुद्दीन हैदर ने लखनऊ के हजरतगंज बाजार की नींव रखी तो यह अकल्पनीय ही रहा होगा कि अगली दो शताब्दियों में भी यह उत्तर प्रदेश की राजधानी की धडकन बन कर न जाने कितने किस्सों… इस बाजार के ‘लव लेन’ में मुस्कुराते- टहलते किशोर युग्लों के रोमांस… और कुछ उदासियों को हर रोज़ अपनी बांहों में समेट कर एक अंगडाई लेकर सोता होगा.

 

प्रथम विश्व युद्ध के बाद यानि नवम्बर १९१८ के उपरांत हजरतगंज में इंडियन काफी हाउस ने पैर पसारे थे, जो उस समय से आरम्भ होकर अभी भी बुद्धिजीवियों के समागम के केंद्र के रूप में अपनी जगाह बनाये हुये है. इसने भी न जाने कितनी हुकूमतें देखी, कितने परिवर्तनों का साक्षी रहा पर इसके चाहने सवालों को कॉफ़ी का जो मजा यहाँ मिलता है, प्यालों में वह तूफ़ान शायद कहीं और नहीं उठता होगा.

 

कॉफ़ी हाउस के पास में ही, आज जहाँ हजरतगंज चौराहे पर कैफ़े कॉफ़ी डे का आउटलेट है, वह कभी रामलाल साडी केंद्र हुआ करता था, जहाँ कद्रदानों के लिए साधारण सूती साड़ियों से लेकर बेहतरीन रेशमी साड़ियों और महिलाओं के परिधानों का खजाना मौजूद हुआ करता था. पर अब नये जमाने के इस कॉफ़ी हाउस-- सी सी डी ने देश के प्रमुख शहरों में इस तरह से पैर जमाए हैं कि यह स्टूडेंट, युवा वर्ग और तहजीब के कद्रदानों के लिए “मोस्ट हैपीनिंग प्लेस” का टैग लेकर अवतरित है. इसकी शाखाएं लखनऊ के इसी हजरतगंज चौराहे से शुरू होकर सिर्फ राजधानी में ही कुल चौदह जगहों पर फ़ैल गई हैं, पर सबका वातावरण वही है, अरोमा भी वही!

 

आज उस अरोमा से जुड़े खट्टे-मीठे पल वाचाल शिशु-से मुखरित हो उठे तो आरिणी को लगा कि उसकी जिन्दगी में भी कुछ भी कहाँ बदला है. वह अपलक बिलिंग काउंटर पर खड़े आरव को देख रही थी. चिंता के स्याह बादल जैसे बिन बरसे ही, उमड़-घुमड़ कर पल भर में छंट गए थे. निर्मल सुनहरी धूप आरिणी के चेहरे पर भी खिल उठी थी. आरव ने उसे मुड कर अपनी और देखता पाया तो वह उसके पास चला आया.

 

“आरिणी… कुछ नया ट्राई करें क्या? क्लासिक स्ट्राबेरी मिल्क… ख़ास कैफ़े डे का. और हेज़लनेट कैरट सेलिब्रेशन केक?”,

 

आरव ने मुस्कुरा कर कहा.

 

लेकिन आरणी आज कुछ नया कब चाहती थी. वह तो विगत स्मृतियों के आगोश में डूबे रहना चाह रही थी, सो कुछ शरारत से बोली,

 

“आर यू आस्किंग मी फॉर डेट मिस्टर हैंडसम?”

 

“ओह, यस…”,

 

आरव ने अदब से झुकते हुए कहा और दोनों ओर से खिलखिलाहटें गूंज उठी. लेकिन पल भर में ही आरिणी की आँखों में उभर आयी डबडबाहट भी आरव से छिप न सकी.

 

इंसान का मन और शरीर… उसका ताना-बाना स्वयं में इतनी गहनता समेटे है कि आप चाहे जितना संयम रखें, खुद की भावनाओं को नियंत्रित रखने के लिए जूझते रहें, समय आने पर वह बाँध टूट कर बहने को बेताब हो ही जाता है. ऐसी बाढ़ से निकला प्रयास अकसर बेहतर भावनाओं का ही उत्स होता है, इसमें तो कोई शक ही नहीं. आदम और हव्वा के समय से स्त्री-पुरुष की भावनाओं को समझने-न समझने का जो खेल चल रहा है, वह कभी खत्म ही नहीं होगा, यह भी तय है… चाहे कितने ही आन्दोलन हो जाएँ कितनी की आठ मार्च इतिहास में दर्ज हो जाएँ, स्त्री के स्वभाव में स्नेह, प्रेम और करुणा का अनुपात कहीं ज्यादा रहेगा ही. एक तरह से यह स्त्री मन को ईश्वर प्रदत्त वरदान भी है कि वह जब चाहे, जैसा चाहे महसूस कर सकती है, करा सकती है. वो कहते हैं न, ‘उसे रोटी चाहिए...पर गुलाब पर भी हक चाहिए.’ और आरिणी के मन का तटबंध इस पल दुर्बल पड़ गया था, क्योंकि आरव की आँखों में जो प्यार दिखता था, उसकी आँखें और स्पंदन उसे महसूस कर पा रहे थे.

 

“आरव, आज सब तुम्हारे मन का…”,

 

आंसुओं को दुपट्टे के छोर से पोंछते हुए उसने कहा.

 

“अहा... सोच लो. फिर न कहना रोज-रोज जानबूझकर केक खिलाते हो, अब जिम जाना पड़ेगा”,

 

आंखों को कुछ कृत्रिमता से तरेरता बोला आरव.

 

“नहीं, नहीं कहूंगी…. तुम्हें ही शर्म आएगी, बेडौल बीवी के साथ”,

 

वह हंसी.

 

“न, मुझे तो अभी भी आती है मैच स्टिक के साथ चलते….”,

 

आरव ने छेडा और आरिणी अपना झूठा गुस्सा दिखाती इससे पहले ही वह भाग कर फिर से बिलिंग काउंटर पर जा चिपका.

 

डाक्टर श्रीनिवासन की सकारात्मक बातों का असर था या सीसीडी का सुकून भरा वातावरण….. एकबारगी आरिणी को लगा कि आसमान उसकी मुट्ठी में आकर सिमट गया है. फिर से लगा कि यह वही आरव है, और वही कॉलेज के अल्हड दिन हैं, जब विधाता ने उन दोनों को मिलाने की साजिश की थी. सी सी डी की चुलबुली रौनक ने शायद दोनों के दिल और दिमाग को फिर से उसी समय पर ला खड़ा किया था, जब रोमांचक स्वप्नों का सिलसिला जन्म ले रहा था. एक नशा… एक सुरूर-- प्रेम का दोनों की आँखों में उतर आया था.

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