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360 डिग्री वाला प्रेम - 32

३२.

अनपेक्षित परिणति

आरिणी वापिस अपने कमरे में आ कर लेट गई. थकान और बढ़ गई थी. शायद बुखार भी चरम पर था. थर्मामीटर देखने की भी हिम्मत नहीं थी. इतने में ही आरव आया. न जाने क्या हुआ कि वह बहुत गुस्से में चिल्लाने लगा,

“तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई मेरी मां से ऐसे बात करने की… अब वो किचेन में गंदे बरतन साफ़ करेंगी और तुम आराम करोगी… तुम उन्हें हुकुम दो यह नहीं चलेगा”.

आरिणी का शरीर ज्वर से तप रहा था, मन भी ठीक नहीं था, ऊपर से आरव का यह आक्रोश असहनीय था. उसने उठकर बैठने की कोशिश की. बोली,

“बरतन साफ करने की हिम्मत नहीं थी मेरी… फिर भी गई थी मैं, पर उन्होंने ही मना किया मुझे.”

“अब तुम नहीं करोगी तो किसी को तो जिम्मेदारी उठानी पड़ेगी… पर तुम्हें माफ़ी मांगनी होगी उनसे. अगर उनकी इज्जत नहीं होगी तो यहाँ तो कोई जगह ही नहीं तुम्हारी…तुम उन्हें हुकुम नही दे सकती”,

आरव ने कहा तो आरिणी को धक्का लगा. इतनी सी बात के लिए ऐसी बड़ी बात कोई बोल सकता है, यह उसके लिए अविश्वसनीय था.

 

एक आख़िरी कोशिश की उसने. बोला, “मैंने कुछ भी ऐसा नहीं कहा जो अनुचित हो, जितनी सम्मानीय वह तुम्हारे लिए हैं, उससे कम मेरे लिए भी नहीं. इसलिए बेहतर है कि बात को नहीं बढाओ.”

 

पर आरव तो आज जैसे जिद्द पर अड़ा था. इतना क्रोधित और अनियंत्रित उसे पहले उसने कभी देखा नही था बात सम्भालते हुए उसने कहा,

 

“मैं आती हूँ… तुम चलो.”

 

“अभी चलो”,

 

आरव लगभग उसका हाथ पकड़ घसीटता-सा बोला.

 

आरिणी के लिए यह आरव नितांत अपरिचित था. बुखार का कष्ट तो था ही, पर क्षोभ से उसकी आँखें भर आई. किसी तरह उसने आंसुओं को नियंत्रित कर कहा,

 

“सॉरी मम्मी”.

 

“रहने दे… जब मन में सम्मान नहीं, तो दिखावा क्यों करना!”,

 

कहकर उन्होंने मुंह घुमा लिया. आरिणी अवाक रह गई. एक तो तेज़ बुखार, उस पर आरव और उसकी मम्मी का असंयत व्यवहार उसके लिए अकल्पनीय था. वह यह समझने में असमर्थ थी कि व्यक्ति इतना असंवेदी भी हो सकता है.

 

“मुझे घर जाना है… अभी ही… मैं हार गयी…. और नहीं लड़ सकती….”,

 

वह फूट-फूट कर वहीं जमीन पर बैठ कर रोने लगी.

 

इतना सुनना था कि आरव आपे से बाहर हो गया. चीख कर बोला,

 

“नहीं चाहिए मुझे तुम्हारा साथ… जाओ जहाँ जाना है, पर यहाँ तुम्हारे लिए कोई जगह नहीं. जिस दिन से आई हो, कोई न कोई बखेड़ा करती रहती हो.”

 

शोर सुन कर राजेश जी और वर्तिका भी आ गए. राजेश जी ने वर्तिका को इशारा किया. वह मुश्किल से आरिणी को उठाकर उसके कमरे में ले आई.

 

आरिणी की जो रुलाई फूटी, तो चुप होने का नाम ही नहीं लिया. आरव के व्यवहार से वह बुरी तरफ आहत थी. नीचे भी आरव के असंयत व्यवहार से उपजी आवाजें उसके कानों को भेद रही थी.

 

वह रोये जा रही थी. लगता था कि दिमाग ने काम करना बंद कर दिया था. उसको समझ ही नहीं आ रहा था कि उसकी क्या गलती है. आरिणी पुराने समय से जब भी तुलना करती, तब और भी जोरों से रुलाई आती. ऐसा उसने फिल्मों और टीवी धारावाहिकों में अवश्य यदा-कदा देखा था, पर वह सब झूठा लगता था उसे. सोचती थी कि यह सब बढ़ा-चढ़ा कर प्रस्तुत किया जाता होगा… ताकि दर्शकों की भावनाओं से खेला जा सके, लेकिन आज तो उसने जो देखा था, वह सत्य से भी कहीं आगे की बात थी.

 

इस बीच ही मां का फोन आ गया. वह रोते-रोते बात नहीं करना चाहती थी, इसलिए आरिणी ने कॉल पिक नहीं की. दो मिनट बाद ही फिर घंटी बजी. फिर भी उसने फोन नहीं उठाया. मां तो मां है… अगर कॉल उठा ले तो एक ही वाक्य से वह उसके बुखार की तीव्रता, उसके मन की दुविधा और हर उस भावना को समझ सकती है, जो उसकी सन्तान बताना नहीं चाहती. यानि शब्दों का मोहताज़ नहीं है एक मां का प्रेम. और वो मां चाहे कोई भी क्यों न हो-- निपट अनपढ़ या उच्च शिक्षा प्राप्त.

 

जब दो बार कॉल नहीं लगी तो तीसरी बार उन्होंने उर्मिला के नंबर पर कॉल की. उनको आरिणी के स्वास्थ की चिंता थी. कुछ और तो सोचने का कोई कारण भी नहीं था माधुरी के पास.

 

उर्मिला के औपचारिक व्यवहार से माधुरी को भी हैरानी अवश्य हुई, लेकिन उन्होंने कुछ ऐसा जाहिर नहीं होने दिया.

 

“भाभी… कैसी हैं अब आप?”.

 

...पर आरिणी कुछ बोलने की स्थिति में नहीं थी. इस समय बोलने का मतलब उसको सब बताना… जो वह चाहती नहीं थी. वह आँखें मूंदे रही. वर्तिका उसके पास  बैठ गई. उसके हाथ को लेकर सहलाना चाहती थी पर तुरंत बोली,

 

“अरे… हाथ तो कितना गर्म है… बुखार लगता है बढ़ गया है. मैं बर्फ लेकर आती हूँ, उस से आराम मिलेगा, माथे पर रखने से.”

 

और वह उठ कर जाने लगी. पर आरिणी ने उसका हाथ पकड़ कर रोक लिया. फिर से आंसुओं का सैलाब जो बहा, रुका ही नहीं. वर्तिका उसे दिलासा देती रही. वह समझ रही थी कि तेज़ बुखार की पीड़ा से उसके आंसुओं का बहाव अनियंत्रित हो गया है. जो वास्तविकता थी, उससे वर्तिका अभी अनभिज्ञ थी, इतना आरिणी भी समझ सकती थी.

 

आरिणी को हिम्मत बंधा कर वर्तिका नीचे चली आई. वह उसकी बर्फ से सिकाई करना चाहती थी. वर्तिका ने आइस क्यूब निकाले और एक टॉवेल में रख कर बांधा. अब वह आरिणी के पास आ गई थी.

 

मना करते हुए भी वर्तिका ने अरु के माथे पर बर्फ की सिकाई करनी शुरू कर दी. अब आरिणी उसे कैसे समझाये कि यह परेशानी बुखार की कम मुंह से निकले वाक्यों की अधिक है. सच है कि शरीर के घाव तो भर जाते हैं पर शब्दों के घाव कभी नहीं भरते. वे हमेशा और अधिक अनुपात में आपका रास्ता रोक कर खड़े हो जाते हैं. अगर आप उनको सामान्य अर्थ में समझना चाहो तो भी, समझने नहीं देते.

 

वर्तिका मन से सिकाई कर रही थी. तनाव थोड़ा कम लग रहा था, बुखार की ऊष्मता भी मंद हुई थी. अब फिर से कॉल आ गई मां की. आरिणी अधिक अनदेखा भी नहीं कर सकती थी, सो इस बार उठा ली.

 

“अरु बेटा… क्या हुआ? ठीक तो हो न? बुखार ज्यादा है क्या? इतनी डिप्रेस क्यों लग रही हो… वायरल ही तो है”,

 

मां का दिल तो समझ ही लेता है कि बेटी के मन में क्या उथल-पुथल चल रही है. शायद उन्होंने समझने में सफलता पाई थी कि यह अवसाद वायरल बीमारी से कुछ इतर है.

 

“नहीं मां… मैं ठीक हूँ, बुखार भी ठीक हो जाएगा, धीरे-धीरे…!”,

 

कहकर आरिणी ने संक्षिप्त बात से कॉल खत्म करनी चाही, लेकिन मां भला कैसे मान जाए. बोली,

 

“वायरल तो न जाने कितनी बार हुए होंगे तुझे… पर इतनी उदासी क्यूँ?... कुछ और तो बात नहीं न… सही-सही बता बेटा!”, मां ने चिंता दिखाई.

 

“अरे नहीं मां…, ऐसा कुछ नहीं. अभी मेरी सिकाई कर रही है वर्तिका… करती हूँ बात तुमसे”,

 

कहकर उसने कॉल खत्म की.

००००

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