३४.
रिश्तों का कुचक्र
आरिणी के चचेरे भाई डॉ विनय से माधुरी ने अनुरोध किया कि वह जाकर देखें कि समस्या क्या है. उसी के अनुरूप समझा जाए कि करना क्या है, ताकि रिश्तों पर भी आंच न आये और अरु भी प्रसन्न रहे. वह स्वयं एक स्थानीय स्वयंसेवी संस्था से जुड़ी थी जो अवसादग्रस्त लोगों को मुख्य धारा में लाने के नियमित कार्यक्रम संचालित करती थी. वह समझती थी कि यदि अरु एक बार अवसाद में डूब गई तो न जाने कब जाकर यह कुचक्र खत्म होगा. इसलिए समय रहते ही कार्यवाही की जानी जरूरी है.
डॉ विनय दोपहर को समय निकालकर अरिणी से मिलने पहुंचे. आज चौथा दिन था, और इस समय उसका बुखार उतर चुका था. उन्होंने ट्रीटमेंट के प्रिस्क्रिप्शन देखे और लिक्विड फ़ूड का सेवन करते रहने पर जोर दिया. आरव भी आ गया था. उस से भी बात की उन्होंने. वह कुछ बेचैन था, गलती तो की ही थी उसने. विनय को भी उसकी हरकत जानकर बुरा लगा था, पर वह बात को तूल देकर माहौल बिगाड़ना नहीं चाहते थे.
उन्होंने आरव का भी प्रिस्क्रिप्शन और मेडिसिन मंगाई. आरव उठ कर चला गया. उन्होंने आरिणी से पृष्ठभूमि समझनी चाही… पर वह कुछ बोल न पाई. उसकी आँखों से आंसू बहने लगे. उन्होंने हिम्मत से काम लेने को बोला. बस इतना जरूर कहा कि वह कुछ दिन के लिए घर जाना चाहती है… मां और पापा के पास.
विनय को भी लगा कि उसके लिए कुछ दिन का एक बदलाव बेहतर है. आरिणी को शनिवार को, यानि दो दिन बाद उन्होंने सहारनपुर ले जाने की बात की. उर्मिला आ गई थी, उनको भी समझा कर सहमत कराया.
आरव आ गया था. उन्होंने प्रिस्क्रिप्शन और मेडिसिन्स देखी. रिपोर्ट्स पर भी एक निगाह डाली. लगभग साढे चार साल की मेडिकल हिस्ट्री थी उसकी, यह पार्श्व में उल्लिखित था. अभी एक हफ्ता नहीं हुआ था उसे डॉ मलय को दिखाए. अर्थात दिनांक के हिसाब से देखें तो आज पांचवां ही दिन था. पर उसकी मेडिसिन्स तीन दिन ही इस्तेमाल हुई थी. इसका सीधा सा अर्थ था कि मेडिसिन लेने में लापरवाही हुई थी. उन्होंने आरव से पूछा भी, पर वह संतोषजनक उत्तर नहीं दे सका.
जब और गहराई में देखा तो विनय को पता चला कि सीडेटिव, अर्थात नींद की गोलियों की डोज़ समय से पहले ही समाप्त हो चुकी थी, जबकि उसका इस्तेमाल जरूरत पड़ने पर ही होना था.
उन्होंने उर्मिला से अलग से बात की. बोले,
“क्या आप जानते हैं कि आरव के लिए नियमित दवा लेना कितना जरूरी है. एक दिन की लापरवाही भी उसके रोग के लिए जटिलता उत्पन्न करने की क्षमता रखती है! मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है कि उसे कुछ हैलूसिनेशंस भी हो रहे हैं… मतलब जो वह है ही नहीं उसे वह सच समझ रहा है या देख सुन रहा है.”
“मुझे क्या पता. वह भला चंगा था. तुम लोग ही उसे न जाने क्या दवाईयां दे रहे हो कि और बीमार हो रहा है. यह शादी ही दुर्भाग्य साबित हुई. हाँ, लेता तो है वह… सारी ही दवाईयाँ! और अब तो आरिणी ही ध्यान रखती है उसका.”
आरिणी चुपचाप सुन रही थी. उसके पास कुछ कहने को नहीं था. डॉ विनय भी समझ रहे थे कि उर्मिला जी को कुछ भी समझाना व्यर्थ है.
आज शनिवार था. रात को ११ बजे गाडी थी सहारनपुर के लिए. विनय ९.३० बजे ही आ गए थे. आरिणी ने अपनी पैकिंग की हुई थी. थोड़ी देर बैठकर राजेश सिंह से बातचीत की उन्होंने. उनका कहना था कि वह मिस करेंगे आरिणी को, जितना जल्दी हो सके भेजें वापिस. वर्तिका अपनी भाभी के जाने से सबसे ज्यादा दुखी थी… यह उसकी आँखों में पढ़ा जा सकता था.
टैक्सी से आये थे विनय. राजेश जी बाहर तक आये थे लेकिन उर्मिला जी अपने कमरे में ही रही. आरिणी उर्मिला के पैर छूने कमरे में गयी. बोली,
“जा रही हूँ मम्मी जी.”
“हां. जाओ... जो आरव नहीं दे पा रहा वह वहाँ मिल जाए शायद.”
आरिणी जैसे जड़ हो गयी. यह सीधा-सीधा उसके चरित्र पर आक्रमण था.
वह संभल कर बोली,
“आप अपनी मानसिकता के अनुसार सोचने को स्वतंत्र हैं. यूँ भी किसी भी संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता.”
कड़वाहट अब चरम पर थी. उसने प्रत्युत्तर की प्रतीक्षा किए बिना ही बाहर निकलना उचित समझा. पर वर्तिका अचम्भित आँखों से उसे देखती रही इतनी कटुता अप्रत्याशित थी खुद आरिणी के लिए भी
उसने राजेश के पैर छुए, जो आरव के साथ ड्राइंग रूम में ही थे, यंत्रवत आशीर्वाद के लिए उनके हाथ आरिणी के सर की और बढ़ चले थे.
आरिणी गाड़ी में बैठ गई. गाड़ी विक्रमादित्य मार्ग से चारबाग रेलवे स्टेशन की ओर चल दी. इन दो दिनों में आरव और उर्मिला जी के व्यवहार ने आरिणी के मन की सभी कोमल भावनाओं को निर्ममता से मार डाला था. उसे लग रहा था जैसे वह किसी कारावास से मुक्ति पा गयी हो.
उसने एक गहरी सांस ली और बाहर देखा. न जाने कितने दिनों बाद आरिणी को आज लगा कि हवा कितनी अच्छी चल रही है, और चांदनी रात का प्रकाश जैसे सड़क पर लगे खंभों के सोडियम लैम्प्स की अपेक्षाकृत अधिक सौम्य हो चला हो. आखिर कृत्रिम और प्राकृतिक चीजों में अंतर तो होता ही है. चाहे जितना मुलम्मा चढा लो, पीतल की असलियत एक न एक दिन सामने आनी ही है. वह बात अलग है कि समय न जाने कितना लगेगा, उसने सोचा.
ट्रेन निर्धारित समय पर थी. कुली को बुलाकर उन्होंने अरु के दो सूटकेस और अपना एक ट्रेवल बैग थमा दिया. रास्ते में ट्रेन लेट हो गई थी. दिन के लगभग पौने बारह बजे सहारनपुर स्टेशन पर ट्रेन रुकी. वहीं ट्रेन खत्म होती थी. विनय के मना करने पर भी आरिणी के पापा स्टेशन, आये थे. बेटी को जल्द से जल्द मिल मानो उसका सब दुःख अपनी अंजुली में समेट लेना चाहते हों. इकलौती बेटी थी उनकी. खूब नाजों में पाला था. कहीं न कहीं अफ़सोस था उन्हें भी कि उर्मिला जी की बातो में आ कर जल्दबाजी की शादी में उन्होंने. समय और लोग कैसे बदल जाते हैं, उन्होंने सोचा. तब तो ऐसा प्रतीत होता था जैसे आरिणी एक ससुराल नहीं बस दूसरे मायके जा रही है.
स्टेशन से घर आने तक माधुरी तीन बार कॉल कर चुकी थी.
“अभी कहाँ पहुंचे..?
पूछा उन्होंने तो आरिणी ने कहा,
“गेट तो खोलो और देखो.”
और माधुरी बच्ची बन कर अरु से लिपट गई. बाहर ही!
“आई हूं मम्मी, कुछ दिन रहूंगी. अब जब मन करे गले मिल सकती हो”,
आरिणी ने कहा तो माधुरी की नम आंखों और उदास चेहरे के भावों पर अब उसके मुस्कुराते भाव हावी होते दिख रहे थे.
माधुरी जल्दी से तीन कप चाय बनाकर ले आई. बातें चली तो विनय ने कहा कि घर का नकारात्मक माहोल आरव की सेहत पर हावी हो रहा है. यह किसी के लिए अच्छा संकेत नहीं है.
“माहौल बिगाड़ भी तो उसकी प्रिय मम्मी ही रही हैं”, बोली आरिणी.
आरिणी के मन में अभी भी कडवाहट भरी थी. आरव के हाथ उठाने से वह बहुत आहत थी.
“आरिणी, तुम समझ नहीं रही. आरव के व्यक्तित्व पर बीमारी हावी हो रही है. इतनी कडवाहट नही लाओ मन में. ही नीड्स योर सपोर्ट”,
विनय ने समझाना चाहा.
“एंड व्हाट अबाउट मी. अपना बीमार लड़का मेरे पल्ले बाँध वह चाहते हैं में उसे भी संभालूँ… बर्तन भी साफ़ करूं… मार भी खाऊँ… और मुस्कुराऊं भी…”,
आरिणी किसी तरह सुनने को राजी नहीं थी. अपने अब के जीवन में उसे माता-पिता, सम्बन्धियों और अध्यापक सभी से असीम स्नेह मिला था. यह बात उसे दंश दे रही थी कि आरव ने हाथ उठाया उस पर वह भी अपनी मम्मी की बातो में आकर!
“बेटा, आखिरी मिनट तक, हर पल तक रिश्ता निभाने की कोशिश करना, और यह मैं इसलिए नहीं कह रहा कि अब तुम शादी के बंधन में बंधी हो और यह घर पराया हो गया है तुम्हारे लिए. यह घर और हम सब सदा तुम्हारा संबल रहेंगे लेकिन मैं अपनी बेटी को हारते हुए नहीं देख सकता, उसमें संवेदनाओं को मरते नहीं देख सकता… उन इंसानों के दर्द को भी महसूस करो जो अनजाने में ही इन जटिलताओं से परेशान होंगे. चाहे वह तुम्हारा पति… तुम्हारे सास-श्वसुर या हम लोग ही क्यों न हों. पर, इतना निश्चित रूप से कहूंगा कि आत्म-सम्मान बनाये रखना और अपनी निगाह में कभी स्वयं को गिरने नहीं देना. ईश्वर तुम्हारी हर पल रक्षा लेगा.बोले आरिणी के पिता.
अरु नीचे निगाह किये सुनती रही अपने पिता की बातें. अभिनव आगे बोले.
“हम लोग हैं न हर समय तुम्हारे साथ. हमारा जो है वह सब तुम्हारा ही तो है. सुख और दुःख सब अस्थाई होते हैं, पर हम लोग तो हमेशा तुम्हें सुखी देखना चाहते हैं.”
आरिणी की आँखें फिर से नम हो आई. पर पिता यह नहीं चाहते थे. इसलिए बोले कि उन्हें देर न हो जाए ऑफिस के लिए, सो तैयारी कर लें निकलने की. वह लंच में आये थे. माधुरी किचेन में थी और आरिणी और विनय के भोजन की तैयारी कर रही थी. आरिणी भी उठकर मम्मी की मदद करने किचेन में पहुँच गई थी.
विनय उसी रात लौट गए थे.
थोड़ा बेहतर लगा आरिणी को. सुकूं भी मिला. लगातार चार साल की होस्टल और क्लास रूम की जिन्दगी. उसके तुरंत बाद शादी जैसी बड़ी जिम्मेदारी… जिसके लिए शायद वह अभी तैयार नहीं थी. पर, कोशिश तो पूरी की उसने निभाने की.
सुबह-शाम मम्मी से बातें करती. फिर कहीं आते-जाते समय कब बीत जाता था, पता ही नहीं चला. आरव के फोन आते थे, पर वह भी सब औपचारिकता-सी लगती थी, हाँ, वर्तिका का स्नेह अवश्य कॉल में भी महसूस होता था. वह भी मिस करती थी उसे. सही भी है कि मन से किया गया स्नेह किसी भी तरह आप भांप ही जाते हो, उसके लिए आपको कुछ साबित करने की आवश्यकता नहीं पड़ती.
उर्मिला जी की भी कॉल आती, लेकिन वह सीमित बातचीत ही करती. आरिणी को तो उनका व्यवहार समझ ही नहीं आया. कभी बहुत स्नेहिल और कभी बहुत क्रोधित. वह भी बिना किसी कारण के. उस दिन हाल-चाल पूछ कर फरमान सुना दिया कि,
“अब तीन-चार दिन में आ जाओ, तीन हफ्ते हो गये हैं मैके गये, कुछ मन यहाँ भी डालो.”
आरिणी को बुरा लगा. क्रोध भी आया. परन्तु उसने अपने मन को समझाकर रखा. सम्बन्ध बिगाड़ने के लिए किसी को अवसर देना बहुत आसान है, पर उन रिश्तों को सहेजना उतना ही मुश्किल. आरिणी ने सिर्फ इतना ही कहा-
“बात करूंगी मम्मी-पापा से…”
इतना सुनते ही वह तो बिफर गई. बोली,
“ऐसा कहीं होता है भला. कुछ पता भी तो हो कि कब तक रुकना है तुमको वहां. या अब सब तुमको अपनी मर्ज़ी से करना है.”
“ऐसा नहीं है, आप मम्मी-पापा से बात कर लीजिये… जैसा कहेंगे, मान लूंगी!”,
बात को विराम देने के लिए आरिणी ने कहा.
लेकिन शायद उर्मिला जी तो क्रोध में भरी बैठी थी, बोली,
“तब ठीक है… जब तुम्हारी मर्जी होगी आना. देखती हूँ कब मन होगा तुम्हारा, और कब तक तुम अपने मैके में बैठी रह सकोगी. अभी दुनिया का तजुर्बा नहीं है तुम्हें ना…!”
और फोन डिसकनेक्ट हो गया. वे शायद बात को खत्म करने की बजाय बढाने के मूड में थी.
वर्तिका के फोन से पता चला की उसे देखने लड़के वाले आने वाले है, तभी उर्मिला बहू की उपस्थिति चाह रही थी, आरिणी ने सोचा.
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