३५.
विचलन
अप्रत्याशित चीजें विचलित करती हैं, पर जब कदम-दर-कदम आप समझ सकते हो कि क्या होने जा रहा है… तो आप स्वयं संवेदना के स्तर पर भाव शून्य हो जाते हो. यही कुछ आरिणी के साथ हो रहा था. वह अब समझ गई थी कि चाहे जितना प्रेम दिखाओ, जितने समर्पण से रहो, वे हर बात में कोई न कोई कमी निकाल कर मूड खराब करने का रास्ता ढूंढ ही लेती हैं. वे उन कुछ लोगों में से लगी उसे, जो अपने हाथों से अपनी दुनिया में कांटे बिछा देते हैं. न उन्हें पता चल पाता है, और न ही पता चलने पर कोई अफ़सोस होता है. जब समझ में आता है तो इतनी देर हो चुकी होती है कि न तो समय आपका साथ देता है, और न ही कोई अफ़सोस किसी काम आ पाता है.
माधुरी भी दूर से थोड़ा समझ रही थी, पर उन्होंने बेटी-सास के संवाद में कोई हस्तक्षेप करना उचित नहीं समझा. वह प्यार से अरु को ही समझाने लगी. अरु शांत होकर सुनती रही. अंत में बोली,
“आप लोग जैसा कहोगे मैं वैसा करूंगी, पर मेरी गलती बताना आप. और क्या करूं ऐसा कि मुझे थोड़ी जमीन मिले उस घर में ही. वाकई बहुत मुश्किल है, नए घर में अपनी जगह बनाना.”
माधुरी उन में से थी जो अंत समय तक युद्धविराम के पक्ष में रहते हैं. हालांकि अरु को इतना दुखी उसने कभी नहीं देखा था. उसके अवसाद को देखकर माधुरी का विश्वास भी डगमग-सा हो चला था, लेकिन वह आसानी से हिम्मत न हारने वालों में से थी. उन्होंने फिर समझाया,
“देख बेटा… दुनिया में जितने इंसान हैं न, सब अलग-अलग प्रकृति के हैं. घर में ही देखो… यहाँ तक कि सगे भाई-बहन भी इतनी अलग प्रकृति के होते हैं कि आप समझ ही नहीं सकते. वे तो एक ही माता-पिता की संतान होते हैं, फिर ऐसा कैसे होता है कि एक सात्विक और दूसरा पाशविक वृत्ति का हो. लेकिन यहाँ फिर भी ऐसा नहीं है… प्रारम्भिक दिक्कते हैं. मेरा विश्वास कहता है कि सब ठीक होगा. समय सब ठीक कर देता है. और हाँ. अभी जब तक तुम्हें अच्छा लगे, यहीं रुको.”
“देखो… हो जाए सब ठीक. कौन चाहता है टेंशन..”,
कहकर अरु मुस्कुराई. लगता था कि उसका विश्वास भी मां की बातों में स्वर्णिम कल के स्वप्न बुन रहा था.
समय तो समय होता है. पंख लगे होते हैं उसके. आरिणी ने अभी तक सकारात्मक सोच रखी हुई थी, पर अभी भी कोई संकेत ऐसा नहीं मिल सका था कि आरव या उसकी मम्मी के मन में अपने व्यवहार के लिए कुछ पश्चाताप हो. वह दुविधा में थी और अनिर्णय में भी कि समय ने उसे जिस दोराहे पर ला खड़ा किया है, वह उस से किस ओर का रास्ता ले. फिलहाल समय पर भी भरोसा बना था उसका. शायद उसके घाव भर जाएँ जल्दी ही, और जैसी जिन्दगी की उसे चाहना है, वह उसे मिल जाए.
आज होंडा कार कंपनी के जनरल मेनेजर एच आर की कॉल आई थी. वह आरिणी को याद दिलाना चाहते थे कि सितम्बर के अंतिम कार्यदिवस तक ज्वाइन करने की छूट का लाभ उठा सकती है वह. उसके बाद नीति के अनुसार दो वर्ष तक वह कंपनी की किसी भी विंग में कार्य करने के लिए ‘डेबार’ हो जायेगी.
आरिणी ने कलेंडर पर निगाह डाली. आज २४ सितम्बर हो चुकी थी. समय के पंख लगे थे, पर उसकी जिन्दगी जैसे थम सी गई थी. जीवन की डायरी अपनी नई इबारत लिखने के लिए पन्ने आगे बढ़ा रही थी, पर न जाने क्यों आरिणी डायरी के पिछले पन्नों के मोह से बंधी थी. क्या यह वाकई मोह था या उसके मन की दुविधा. या दोनों. पर कुछ तो निर्णय लेना ही था उसे.
आज २७ तारीख आ चुकी थी, और एक कॉल ने आरिणी का काम… उसके अनिर्णय की स्थिति को दिशा दे ही दी. और यह कॉल किसकी थी. ये थे श्रीमान आरव सिंह. आरिणी के पति, जो पहले उनके सहपाठी हुआ करते थे जिसके परिवार ने और उसने स्वयं पहल की थी इस रिश्ते के लिए. जो बात हुई वह यूँ थी:
आरव: कैसी हो?
आरिणी: बेहतर हूँ. तुम कैसे हो?
आरव: मैं भी ठीक हूँ. तुम्हें मिस करते हैं सब लोग. कब तक आना होगा तुम्हारा?
आरिणी: देखती हूँ. अभी कई साल बाद इतना समय मिल पाया है मम्मी-पापा के पास सो सोचा कि थोड़ा और आराम दे लूँ खुद को.
आरव: वो तो ठीक है, पर अब अकेलीे तो हो नहीं तुम. एक परिवार और जुड़ा है तुम्हारे साथ. मम्मी की नहीं मेरी तो परवाह होनी चाहिए न तुम्हें.
आरिणी: ऐसी कोई बात नहीं. मम्मी और तुम सब मेरे लिए उतने ही सम्माननीय हो. अनजाने में कुछ हुआ हो तो क्षमा चाहती हूँ. पर फिलहाल मैं सोचती हूँ कि अपने जॉब ऑफर पर भी कुछ ध्यान दिया जाए.
आरव: जॉब ऑफर की पड़ी है तुम्हें और यहाँ सब लोग तनाव में हैं.… पर, अगर तुम्हें किसी की सुननी ही नहीं, तो फिर जो मर्जी हो वो करो. इससे नुक्सान तुम्हारा ही होगा!
आरिणी: नुक्सान…..!
आरिणी कुछ कह पाती इससे पहले ही कॉल डिस्कनेक्ट कर दी आरव ने. आरिणी को दुःख हुआ कि आरव समझते हुए भी नहीं समझ पा रहा है, या समझना ही नहीं चाहता है. आरिणी को लगा कि अब उसके आत्म मंथन का समय आ गया है.
आज उसने पापा से बात की. मम्मी भी वहीं थी. उसने अपनी भावनाओं को एक कोने में समेट लिया था. अब कुछ निर्णय करने का समय था. कल अंतिम दिन था होंडा कंपनी में ज्वाइन करने का. उसने पापा को तैयार किया कि वह उसके साथ ग्रेटर नॉएडा जाकर ज्वाइनिंग की औपचारिकतायें पूरी कराएँ. पापा तैयार हो गये.
होंडा ने उसे एक बेहतर पैकेज, ऑफिसर्स हॉस्टल में रहने तथा मेस की सुविधा दी थी. अब उसके जीवन का एक अलग ही अध्याय शुरू होने जा रहा था. पहला दिन सब कुछ समझने और परिचय में लग गया. अगले दो दिन वीकेंड की छुट्टियाँ थी. उसने अपने अपार्टमेंट को सज्जित किया. निकट के मार्केट जगत फार्म से रोजमर्रा की चीजों और बेडशीट्स और कर्टन्स आदि की व्यवस्था की. पापा को उसने जाने दिया था. एक नये बदलाव से वैसे भी अच्छा लग रहा था. खूबसूरत परिसर, स्टाइलिश रहन-सहन और बेहतर कार्य संस्कृति… बिलकुल ऐसा जिसकी उसने कल्पना की थी.
ऐसा नहीं था कि वह जॉब करने की अपनी इच्छा या निर्णय को किसी मुद्दे में बदलना चाहती थी. वह तो लगभग तैयार हो गई थी ऑफर को ‘फारगो’ करने के लिए, लेकिन परिस्थितियों पर किसका जोर चलता है. अगर सब ठीक होता तो जिंदगी यूँ ही चलती रहती. तब शायद वह भी उसी जिन्दगी में अपने कुछ अधकचरे-से सपनों के साथ जी रही होती.
सेटल होने के बाद आरव को समझाने की कोशिश की, लेकिन वह तो जैसे न मानने के लिए जिद्द पकडे बैठा हो. उल्टे ऐसा व्यवहार किया उसने कि जैसे आरिणी ने कोई अपराध किया हो वहां ज्वाइन कर. वह फोन पर ही चीखने लगा. बोला,
“अब बचा क्या फिर तुम्हारे-मेरे बीच में. जब तुम मेरी मां को खुश नहीं रख सकती… मेरा साथ नहीं दे सकती, तो ठीक है सब!”
समस्या यह भी थी कि आरव कभी तर्क के साथ बात ही नहीं करता था. जब भी बात हुई या तो भावनात्मक स्तर पर अथवा क्रोध पर खत्म होती थी. यह कुछ अलग किस्म का व्यवहार था. उस आरव से अलग जिसको कॉलेज में जाना था. चिंता इस बात की थी कि अब ऐसे व्यवहार में कुछ सामान्य होने की गुंजाइश शायद नहीं दिखती.
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