"माँ, आप कितने साल तक चाय के कप को अधूरा छोड़ देंगे?"
"तुम जानती होना बेटी, अब मैं उनके साथ ही पूरी चाय पी पाऊँगी।"
वैभवी हँस पड़ी और मुझे अपनी बाँहों में लेते हुए कहा,
"ओहो श्रीमती सुनीता विराज सक्सेना! तो मेरी दुल्हन अपने दूल्हे का बेसब्री से इंतजार कर रही है! आखिरकार अरमानो की खिड़कियां खुल गई ह ..!" मैं अपनी ही बेटी से शर्मा गई।
अधिक कमाने और परिवार को एक अच्छा जीवन देने का जुनून, मेरे पति विराज को विदेश ले गया। लेकिन कानूनी दस्तावेजों के बिना और कानूनी प्रवासन नीतियों के उल्लंघन के लिए, उन्हें दस साल के लिए विदेश में हिरासत में रखा गया था। शादी के पांच साल बाद और चार साल की वैभवी के साथ विराज हमें छोड़ कर चले गए। किसे पता था कि हमें एक-दूसरे के बिना एक दशक जीना होगा और अकेले जीवन के समुद्र जैसे संघर्ष का सामना करना होगा?
मैं अपनी शाम की चाय पी रही थी, जब मुझे यह बुरी खबर मिली। मैं उस समय की चिल्लाहट, आँसू और दुःख से भरे अपने दिल को कभी नहीं भुला पाऊँगी।
विराज के बिना जीवन किसी भँवर से कम न था। पिछले दस वर्षों में, उन्हें वापस लाने का हर प्रयास बेकार रहा। बचत बहुत पहले खत्म हो गई थी और फिर संघर्ष का सिलसिला शुरू हुआ। मुझे नोकरी करनी पड़ी। रिश्तेदारों, दोस्तों और पड़ोसियों ने हमारी काफी मदद की। विराज के बिना, उनकी मदद के बिना, एक सुरक्षित अस्तित्व असंभव था।
आखिरकार भगवान के आशीर्वाद से, अधिकारियों ने हम पर दया की और विराज को घर लौटने की अनुमति दे दी।
आज वैभवी पंद्रह साल की है। दस साल में वह दुःख के समय में मेरी सबसे अच्छी दोस्त बन गई हैं।
"मम्मी, आपको डर नहीं लगता?"
उसके सवाल ने मुझे उलझन में डाल दिया।
"वैभवी, डर किस बात का?"
"दस साल बहोत लंबा समय होता है। क्या अगर पिताजी बदल गए हों? क्या अगर वह हमारे साथ नहीं रह पाएं? अगर वे हमें पसंद न करें, तो क्या होगा?"
मेने उसके सर पर हाथ रखा और मुस्कुराई।
"वैभवी, विराज तेरे पिता, मेरे पति हैं। उन्होंने भी हमें, हम जितना ही याद किया होगा। शायद एडजस्ट करने में कुछ समय लग सकता है, लेकिन अंत में हम एक परिवार हैं।"
मेरी बात सच निकली। विराज ने हम दोनों को एक साथ गले लगाया और एक बच्चे की तरह रो पड़े। उन्होंने वैभवी को बहुत चूमा और आँसू पोंछते हुए कहा,
"मुझे माफ करना मेरी गुड़िया। मैं तुम्हें बड़ा होते हुए नहीं देख सका। लेकिन अब मैं कहीं नहीं जाऊंगा। मेरी दुनिया सिर्फ तुम दोनो हो।"
वैभवी अपने पिता के गले लगी और उसके सारे डर गायब हो गए।
"सुनीता, मैं बोहोत शर्मिंदा हुँ। इन दस सालों में, तुमने और वैभवी ने क्या कुछ नही सहा होगा।"
"हा विराज, मुश्किलें तो आई, लेकिन, अब तुम वापिस आगए हो, अब मेरे मन को पुरनूर शांति मिली है।"
उस शाम और उसके बाद हर दिन, चाय के पूरे कप के साथ, हम पिछले दस वर्षों के बारेमें लंबी बातें करते हैं। बहोत कुछ कहना और सुनना बाकी जो हैं।
*शमीम मर्चन्ट, मुंबई।*
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