"चाचाजी, नेहा के लिए, शादी के गहने मेरी तरफ से।"
"लेकिन बेटा, ये तो बहुत ज़्यादा है। तुम इतना बोझ अपने सिर पर मत लो, मैं कुछ न कुछ बन्दोबस्त कर लूंगा।"
परन्तु, गनेश ने अपने चाचाजी की एक न सुनी और फिरसे ज़बरजस्ती करते हुए कहा,
"लेकिन, वेकिन कुछ नही चाचाजी। नेहा मेरी भी तो छोटी बहन है। मेरा इमिटेशन आभूषण का व्यापार है तो क्या हुआ। मैं बहुत सारे अच्छे सुनार और हीरों के व्यापारी को जनता हु, बढ़िया दाम पर अच्छी चीज़ ले आऊंगा अपनी बहन के लिए। आप शादी की बाकी की तैयारियां करो, अब गहनों की जिम्मेदारी मेरी।"
रामलाल के सिर से मानो सौ टन का भारी वज़न किसी ने हटा दिया हो। सरकारी नौकरी, मध्यम वर्ग और तीन बेटियों का बाप। अगर गहने गनेश की तरफ से होंगे, तो एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी का बोझ उसके सिर से हट जाएगा।
"जीते रहो बेटा, सदा खुश रहो।"
एक महीने बाद, सादगी से, पर अच्छी तरह बेटी की शादी की और उसे बिदा कर दिया। नेहा का ससुराल भी मध्यम वर्ग का था। उसके पति विलास की अपनी छोटी सी कपड़ो की दुकान थी। अपने मातापिता के साथ छोटे से किराये के घर में रहता था। मन के साफ और सच्चे लोग थे। नेहा भी एक सरकारी स्कूल में अध्यापिका थी।
छः महीने बाद, एक शाम, विलास बड़ी उत्सुकता के साथ घर आया और नेहा से कहा,
"नेहा, पड़ोस में एक नई सोसाइटी बन रही है। अगर हम अपने लिए वहाँ एक मकान बुक करवाए, तो कैसा रहेगा?"
नेहा यह सुन कर बड़ी खुश हुई।
"क्या सच में! पर कैसे? हमारे पास इतने पैसे कहाँ हैं?"
विलास ने उसके कन्धों पर हाथ रक्खा और धीरे से कहा,
"अगर तुम मेरा साथ दो, तो ये हो सकता है।"
"मैं तो हमेशा आपके साथ हूँ। पर ये होगा कैसे?"
विलास को एक मिनिट के लिए जिजक महसूस हुई।
"नेहा, अगर तुम्हें एतराज़ न हो, तो हम तुम्हारे गहने गिरवी रख कर डाउन पेमेंट कर सकते है। मासिक किस्त मैं भरूँगा, और धीरे धीरे तुम्हारे गहने भी छुड़वा दूंगा, मैं वचन देता हूँ।"
नेहा ने विलास का हाथ अपने हाथ मे लिया और प्यार से बोली,
"इसमें एतराज़ कैसा? आप जो भी कर रहें हैं, वह हम सबके लिए हैं। मुझे आप पर पूरा भरोसा हैं। और विलास, मासिक किस्त भी हम दोनों मिल कर भरेंगे।"
"थैंक यू नेहा। तो कल चल कर नई सोसाइटी देख लेते है।"
नई सोसाइटी चारों को बेहद पसंद आई। मातापिता भी बहुत खुश हुए। अगले दिन, पति पत्नी, गहने ले कर एक सुनार की दुकान पर गए। दुकानदार बहुत देर तक जांचपड़ताल करता रहा। फिर उसने विलास की ओर देख कर पूछा,
"ये गहने आपने कहाँ से बनवाए?"
"क्यों, क्या हुआ?"
"ये गहनों की रसीद है आपके पास?"
विलास और नेहा, दोनों घबरा गए।
"बात क्या है भाई साहब?"
"माफ करना, पर ये गहने नकली है। गिरवी तो दूर की बात, इनकी कीमत कंकर पथ्थर के बराबर है। आप भले मानुस लग रहें है, वरना किसी ओर ने यह हरकत की होती, तो मैं उसे अंदर करवा देता।"
नेहा और विलास को एक झटका लगा, उन्होंने दुकानदार का शुक्रियादा किया, और चुपचाप घर चले आए। नेहा के आँसू थमने का नाम ही नहीं ले रहे थे। वह बहुत शर्मिंदा हुई। विलास ने उसे दिलासा देते हुए कहा,
"इसमें तुम्हारी कोई गलती नहीं है। माँ बापूजी को मैं संभाल लूंगा, लेकिन तुम इस बारे में अपने पिताजी को ज़रूर बताना। पता तो चले, के गनेश ने तुम्हारे साथ ऐसा क्यों किया।"
दो दिन बाद, इतवार की शाम घँटी बजी। दरवाज़े के उस पार गनेश खड़ा था। कोई कुछ कहे, उससे पहले ही गनेश ने अपने हाथ जोड़े और सिर शर्म से जुका लिया।
"प्लीज़, मुझे अंदर आने दो। मैं जानता हूं, के मैं तुम्हारा गुनहगार हूँ।"
नेहा गुस्से से आग बबूला हो रही थी। विलास ने उसे शांत रहने को कहा और गनेश को अंदर आमन्त्रित किया।
"तुमने मेरे साथ अच्छा नहीं किया गनेश। मैं, या मेरे बाबा तुम्हारे पास उपहार मांगने नहीं आए थे। फिर तुमने हमें इतना बड़ा धोका क्यों दिया? जवाब दो!"
विलास ने नेहा का हाथ पकड़ते हुए उसे बिठाया।
"नेहा, गनेश खुद चल कर हमारे पास आया है। उसे अपनी सफाई देने का एक मौका तो दो।"
गनेश ने धीरे से बोलना शुरू किया।
"थैंक यू विलास। मैं सचमें तुम्हें असली गहने देने वाला था। ऑडर दे दिया था, और पेमेंट भी कर चुका था। लेकिन आखरी वख्त में, मेरे पार्टनर के साथ मेरा झगड़ा हो गया और उसे एक बड़ी रकम चुकाने के चक्कर में, मुझे तुम्हारे गहने बेचने पड़े, फिर मेरे पास समय और पैसे, दोनों नहीं थे।"
कुछ देर के लिए, सब चुप हो गए। फिर गनेश ने अपनी बेग में से दो बड़े ज़ेवर के डब्बे निकाल कर टेबल पर रक्खे, और नेहा की ओर देखते हुए कहा,
"मुझे माफ़ करना बहना, मैं पहले न आ सका। ये रहे तुम्हारे गहने।"
गहने कबूल करें या नहीं, इस बात पर बहुत बहस हुई। लेकिन फिर विलास ने कहा,
"नेहा, अब गुस्सा थूक दो। गनेश की मजबूरी समझो और उसकी सच्चाई की कदर करो।"
दोनों भाई बहन गले मिले, और आगे चल कर नेहा और विलास नई सोसाइटी में अपना खुद का घर खरीद पाए।
शमीम मर्चन्ट, मुंबई
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