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एक बिनती


"एक बिनती है आपसे। माँ को इस बारे में पता न चले।"
यक़ीन नहीं हो रहा था, की मैं अपने चाचाजी के सामने, मजबूर होकर, मिन्नते कर रही थी। वह मेरी मदद ज़रूर कर रहे थे, पर सिर्फ और सिर्फ अपने मतलब के लिए। लेकिन इसके अलावा मेरे पास और कोई चारा नहीं था। माँ की बीमारी के आगे मैं पूरी तरह से बेबस और लाचार थी।

मेरी गुज़ारिश सुन कर, वह हंस पड़े।
"मैं चाहे चुप रहूँ, पर विनीता, जब ये मकान खाली करना पड़ेगा, तब तुम उनसे क्या कहोगी? तब क्या उन्हें पता नहीं चलेगा? क्या वह तुमसे सवाल नहीं पूछेंगी?"

उनकी बातें सुनकर मैं स्तंभित रह गई।
"चाचाजी! मैंने आप के पास मकान गिरवी रखा हैं, बेचा नहीं हैं आपको। जैसे ही माँ ठीक हो कर अस्पताल से घर वापस आ जाएगी, में आपकी एक एक पाई चुका दूंगी।"
मेरा मज़ाक उड़ाते हुए, वह दुबारा हंस पड़े।
"और वो भी एक साल के अंदर! ऐसा नहीं होगा। अध्यापक की नोकरी में तुम जो कमाती हो, मुझे नहीं लगता, इतने कम समय में, तुम मेरी इतनी बड़ी रकम वापस कर पाओगी।"
आसपास नज़र घुमाते हुए, चाचाजी गर्व से बोले,
"यह मकान तो मेरा हो गया समजो।"

उदासी ने मुझे घेर लिया और मेरा दिल मेरे सीने में सिमट कर रह गया। कड़वी ही सही, पर उनकी बात सच थी। पैसे लेते वख्त, ये सवाल मेरे मन में आया था, की मैं उसे वापस कैसे करूँगी? जब मैंने उनके साथ चारों ओर देखा तो मेरी आंखों में आंसू आ गए। हमारे छोटे से परिवार के लिए, पिताजी एक ही पूँजी छोड़ कर गए थे, यह मकान, जिसे हम तीनों ने मिल कर, बड़े चाव से घर बनाया था। पर पिताजी के जाने के बाद माँ बिखर सी गई। वह पिताजी से इतना प्यार करती थी, मानो जैसे उनके बगैर माँ को जीना आता ही न हो। पिताजी के जाने का ग़म और उनकी जुदाई ने इस तरह उन्हें जकड़ लिया, की आखिरकार माँ ने बिस्तर पकड़ लिया।

मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए, चाचाजी अपनी योजना सुनाने के लिए, मुझे वर्तमान में ले आए।
"विनीता अगर तुम चाहती हो कि मैं तुम्हारी बिनती मानु और भाभीजी को कुछ पता न चले, तो तुम्हें मेरी एक शर्त माननी होगी।"
"वो क्या?"
पता नहीं वह मुझसे क्या मांगने वाले थे।

"मेरे बेटे विशाल से शादी करलो।"
मेरी आँखें खुली की खुली रह गई। दिल को एक ज़ोर का धक्का लगा, रेत के ढेर की तरह ज़िन्दगी बिखरती हुई नज़र आई। मेरे और राजेश के प्यार का क्या होगा?!? माँ के ठीक होते ही, मैं उन्हें बताने वाली थी। लेकिन अब? और विशाल, बड़े बाप की बिगड़ी हुई औलाद!!

रुके हुए आंसू छलक आए। मैंने उनके सामने हाथ जोड़े और रोते हुए, एक नई बिनती की।
"प्लीज़ चाचाजी, ऐसा ज़ुल्म मत कीजिए। ये मुझसे नहीं होगा।"
अगर राजेश मेरी सहायता कर सकते, तो चाचाजी के आगे आज मुझे हाथ फैलाने नहीं पड़ते। लेकिन वह भी मुश्किल से अपने घर का गुजारा कर रहे थे।

"सोच लो। जब तुम मेरे पैसे देने में नाकाम रहोगी, और यह घर मेरा हो जाएगा, तब भाभी को कितना बुरा लगेगा? तुम विशाल से शादी करलो। उसके बदले में, मैं तुम्हें लोन के पैसे माफ कर दूंगा और यह राज़ हम दोनों के बीच दफन रहेगा।"

आंसू थमने का नाम ही नहीं ले रहे थे। साँस गले मे अटक गई और दिल बहूत रो रहा था। राजेश के साथ बिताए हुए सारे खूबसूरत लम्हे, आंखों के सामने गुज़रने लगे। ज़िन्दगी मुझसे ये किस किस्म का इम्तिहान ले रही थी?

मैंने सिर जुकाते हुए हामी भरली। माँ से ज्यादा ज़रूरी कुछ भी नहीं था। एक बिनती के बदले में, सारी ज़िन्दगी, मैं यह सज़ा सहने को तैयार हो गई।

शमीम मर्चन्ट, मुंबई
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