संपादकीय
स्वतंत्र कुमार सक्सेना की कहानियाँ को पढ़ते हुये
वेदराम प्रजापति ‘मनमस्त’
कहानी स्मृति की पोटली होती है| जो कुछ घट चुका है उसमें से काम की बातें छाँटने का सिलसिला कहानीकार के मन में निरंतर चलता रहता है| सार-तत्व को ग्रहण कर और थोथे को उड़ाते हुए सजग कहानीकार अपनी स्मृतियों को अद्यतन करता रहता है, प्रासंगिक बनाता रहता है|
स्वतंत्र ने समाज को अपने तरीके से समझा है | वे अपने आसपास पसरे यथार्थ को अपनी कहानियों के लिए चुनते हैं| समाज व्यवस्था, राज व्यवस्था और अर्थव्यवस्था की विद्रूपताओं को सामने लाने में स्वतंत्र सन्नद्ध होते हैं| राम प्रसाद, किशन और दिलीप के चरित्र हमारे लिए जाने-पहचाने हैं | ये चरित्र शासनतंत्र से असंतुष्ट हैं और संघर्षशील हैं| उन्हें पता है कि लड़ाई बड़ी कठिन है| एक तरफ पूरी सत्ता है और दूसरी तरफ एकल व्यक्ति |
अपने कथाकार की सीमाओं की खुद ही पहचान करते हुए स्वतंत्र लेखनकार्य में निरंतर लगे रहें, हमारी यही कामना है|
संपादक
कैसी-कैसी पगडंडियां
स्वतंत्र कुमार सक्सेना
गरीबी एक क्रूर शिक्षक की तरह है, जो सिखाती तो है पर जितना सिखाती है उससे जयादा पिटाई करती है, पाठ अच्छी तरह याद करने पर शाबासी कम मिलती है पर जरा सी भूल पर चांटे थप्पड़ जयादा, कुछ ऐसी ही बात अपने सुन्नू के साथ भी थी। कारीगर राम सिंह का इकलौता बेटा लिहाजा बिगड़ना स्वाभाविक था। बापू ने स्कूल भेजा पर मास्टर पढ़ाता कम पर पिटाई अधिक करता, बापू ने बहुत समझाया-‘ मैं ऐसा ई रह गयो, तू चार अच्छर पढ़ लेते तो आदमी बन जातो, मास्टर की मार कौ बुरो नईं मान्त।‘ पर यह बात सुन्नू को जब समझ आई तब स्कूल छोड़े बरसों बीत चुके थे।
अब सुन्नू मटर गश्ती करने लगे। कुछ दिन अखाड़े का शौक किया पर रोज- रोज सुबह-सुंबह उठना मुसीबत लगी, जब तक पहुंचते अखाड़ा बंद हो जाता। लच्छू उस्ताद उखड़ गये उनकी आदत थी अपने शिष्यों से गाली देकर बात करने की सुन्नू ने लाल आंखें की तो गाल पर एक कसके झापड़ पड़ा और हमेशा के लिये अखाड़ा बन्द हो गया।
फिल्में देख कर हीरो बनने का शौक चर्राया बाल संवारे आईने में अपने को कई कोणों से देखा, दोस्तों में गाने गाए, नाचे, सबने चने के झाड़ पर चढ़ा दिया, पहु्ंच गए लाला नकटू राम की नौटंकी में उन्होंने उनका गाना सुना चारों तरफ घूम फिर कर गहरी निगाह से देखा फिर पूंछा अभी तो हमारा नचैया लौंडा दूसरी कम्पनी में चला गया है उसकी जगह खाली है उतसाह में हां कह दी।
मेकअप कर लहंगा पहन, पहुंच गए स्टेज पर कमर मटकाने, दर्शकों के अश्लील इशारे व फब्तियां झेलते-झेलते जब ऊब गए तो लाला ने उनका प्रमोशन कर दिया अब वे जोकर बन गए थे। वे हीरो बनना चाहते थे सुल्ताना डाकू का रोल करना चाहते थे लाला उन्हें लैला का रोल देना चाहता था लिहाजा वे नौटंकी से बाहर हो गए।
इसी समय दादा साथ छोड़ गए उन्हें बिना बताए ही अचानक दुनिया से चले गए ।
शाम को अच्छी खासी शंकर चाचा के साथ जो उनके गहरे दोस्त थे दारू पी रात को पेट में दर्द के साथ उल्टी होने लगी अस्पताल ले जाते समय रास्ते में ही विदा हो गए। घर में कुछ खास था नहीं जो था भी वह शान से तेरहवीं करने में खर्च हो गया। रिश्तेदारों का दबाव था बिरादरी में नाक का सवाल था।
दोस्तों ने वही किया जो करना था आखिर कौन किसको कब तक झेलता फिर दोस्त कर ही क्या सकते थे लिहाजा कन्नी काटने लगे। सुन्नू आखिर कब तक ऐंठते जब पेट की आंतें ही ऐंठने लगी तो वे ढीले पड़ गए,
ऐसे में उन्हें हवलदार हाकिम सिंह तारनहार लगे वे उनकी नौटंकी के नियमित दर्शक थे। रसिक व रंगीले थे वे उन्हें गाना सुनाते स्वयं हुकुम सिंह तबला बजाते और उन्हें भोजन मिल जाता कभी कभी उनकी मालिश भी करना पड़ती उनको मालिश करते देख दीवान साहिब सिंह ने भी उन्हें उनकी मालिश का आदेश दिया वे उनकी भी मालिश करते। भोजन के साथ मिली गालियों उपेक्षा ने उन्हें विनम्र व चतुर बना दिया था।
ऐसे में होम गार्ड की भर्ती खुली और उन्हें भी डंडा व वर्दी नसीब हुई। अब वे अपन को दीवान से कम न समझते। और उस दिन तो उनकी किस्मत ही खुल गई जब उनकी ड्यूटी एस.पी. साहब के बंगले पर लग गई। मुफ्त में बढि़या भोजन सहृदय बाई साहब की कृपा उन्हें लगा स्वर्ग मिल गया।
चोरी के आरोप में पकड़े गए सल्लू व पन्ना को साहब ने उनकी गवाही व उनके मां बाप को साहब के चेम्बर में उनके द्वारा मिलवाने पर उन्होंने साहब के पैर पकड़ लिये जाने पर साहब द्वारा उन्हें छोड़ने का आदेश देने से उनके मोहल्ले में प्रभाव में कई गुना वृद्धि हो गई।
प्रेम लाल किराने वाले भी उनका हाल चाल पूंछने लगे व उधारी का सामान आसानी से देने लगे। पर आखिर स्वर्ग में हमेशा रहना तो सबके नसीब में होता नहीं, साहब का तबादला हो गया वे फिर थाने अटैच हो गए।
एक दिन वे दीवान जी के साथ रात को गश्त पर थे। कि शराब पीकर एक रिक्शे वाले की पिटाई करने वाले को धर दबोचा।
दाखिल हवालात किया।
सुबह पता लगा वह एम.एल.ए. साहब का दूर का भतीजा लगता था थानेदार साहब को माफी मांगना पड़ी उसे छोड़ा । पर सुन्नू जी अड़ गए एक शराबी को पकड़ा ठीक किया, काहे की माफी? इधर एम.एल.ए. साहब बहुत नाराज थे अत: उनका डंडा वर्दी रखवा लिया गया।
दीवान जी का तबादला हो गया। सुन्नू कुछ दिन तनतनाए घूमते रहे होश आने पर थाने के चक्कर काटे पर कुछ न हुआ, बंगला ड्यूटी के दौरान उन्होंने ड्राइवर रामस्वरूप के शार्गिदी करके ड्राइवरी सीख ली थी और उसने ही लाइसेंस बनवा दिया था। वही इस समय काम आई सेठ सांवल दास के यहां ड्रावरी करने लगे।
सेठ अकसर घूमने ग्वालियर जाया करते थे वहीं एक सुंदर सी मेम साब कार में बैठतीं, एक दिन सेठ ने उन्हें घर जाने का हुक्म दिया सेठानी को लेकर ग्वालियर जाना था। । वे सेठानी को लेकर ग्वालियर जा रहे थे कि रास्ते में पूंछा – ‘तो घर चलना है, कम्पू पर ?
‘सेठानी गरम हो गई- ‘हमें बसंत बिहार जाना है।‘
सुन्नू –‘ सेठ जी तो कम्पू जाते हैं इसलिए पूंछा।‘
सेठानी चुप हो गई पर चेहरा तमतमाता रहा, अगले दिन सेठ ने उन्हें जबाव दे दिया।
इतने सारे धन्धे करने के बाद अब वे बहुत अनुभवी हो गये थे। जब वे वर्दी डाटे घूमते थे तभी उनके मामा ने एक बूढ़े को पटा कर उनकी शादी करवा दी थी, उन्हें बाद में पता चला शादी के खर्चे के नाम से कुछ रकम भी ऐंठ ली थी।
ड्राइवरी तक भी कुछ ठीक रहा पर अब उनके पत्नी से मतभेद बढ़ गए थे। वे कहते-‘प्यार बहुत बड़ी बात है।‘
वह कहती-‘ सूखौ लाड़ मेई मौसी करें।‘
उन्होनें फिल्मों के उदाहरण दिए, लैला-मजनूं की नौटंकी के शेर पढ़े, वे ढोला गाते।
वह कहती- ‘मामा ने आज रसगुल्ले भिजवाए थे’
वे लैला के प्रेम व समर्पण की चर्चा करते, वह मामी की साड़ी की सुन्दरता के गुण गाती उसकी कीमत का अनुमान लगाती वे डाकू सुल्ताना की बहादुरी के सीन करते, वह कहती- ‘ललुआ काल मोटर साईकिल पै आओ तो।‘
और एक दिन पड़ौसियों ने देखा सुन्नू पत्नी के बाल पकड़े थे वह उन्हें लगातार गालियां दे रही थी। ऐसी पत्नी जो प्यार का मतलब ही नहीं समझती उससे कितने दिन निभती, वह घर से निकल गई या सुन्नू ने उसे निकाल दिया।
उन्हें पत्नी के जाते ही घर सूना लगने लगा, गई बार पांव ससुराल को जाने की ओर मचल उठते, वहां से भी इशारे हुए विदा करालें पर उनकी ऐंठ उन्हें रोक लेती, मैं अब नहीं जाऊंगा वे खुद छोड़ जाएं।
उन्हें बड़ी उम्मीद थी रात को किवाड़ खड़कते तो नींद खुल जाती एकाध बार वे किवाड़ खोल कर बाहर निकल आए पर कोई नहीं आया। अब उन्हें दुनिया से ही वैराग्य हो गया वे भजन गाने लगे।
उनका गला सुरीला तो था ही उस पर नौटंकी का रियाज मित्रों की सलाह से उन्होंने एक भजन मंडली बना ली, देवी जागरण रतजगा करने लगे, बाल बढ़ा, तिलक लगा पीले धोती कुर्ता पहन रामनामी दुपट्टा डाल वे आलाप लेते नई फिल्मों की धुनों पर भजन गाते तो समां बंध जाता काम चल निकला था वे भाव विभोर हो जाते झूमने श्रोता भी झूमने लगते।
ऐसी ही एक भजन संध्या पर किसी गांव में एक बूढ़ा उन्हें ध्यान से देख रहा था, कार्यक्रम के बाद उनके करीब आया धीमे से पूंछा- ‘तुम ई सरमन लाल हो ?’
सुन्नू बोले- ‘हां दादा। मैं ई सरमन हों, मो ई एईं सुन्नू सोऊ कहत। ‘ वे वृद्ध एक तलाक शुदा बेटी के पिता थे उन्होंने पूंछा-‘काए। तुम घर बसान चाहत?’
अंधा क्या चाहे दो आंखें उनका सारा शरीर पुलकित हो उठा, आंखों में सितारे झिलमिलाने लगे कुछ देर तो कुछ जबाव देते ही नहीं बना, फिर संभल कर बोले- ‘मैं कछू जादा न कमात धमात, मिजाजऊ को तनक तेज हो आप समझ लेऊ।‘
बाबा बोले- ‘घर बस जायैगौ तो मिजाज ऊ ठंडौ पर जावैगौ, और कमावे की है तो कछू तुम कमावोगे कछू वो कमावेगी हमऊ कौन से लखपती हैं मजूर हैं वा की छोर छुट्टी हो गई मोंड़ी मोंड़ा नाय छरी है राजी हो ओ तो विदा करा लेउ।‘
और उनका उजड़ा घर फिर बस गया अब उनके आलाप और मधुर हो गए। वे ज्यादा आयोजनों में हिस्सा लेने लगे पर पूर्ण शक्ति व समर्पण से के बावजूद उस काम में सीमित ग्रामीण क्षेत्र में इतनी आमदनी न थी, मात्र त्यौहारों में मांग बढ़ जाती शेष समय खाली रहते उसे पूर्ण कालिक पेशा बनाना संभव न था वे तनाव में रहने लगे।
पत्नी उन्हें ढांढस बंधाती पर बात बन नहीं रही थी। ऐसे में एक रात पत्नी बोली- ‘रामरती मील में धान फटकवे जात तुम कहो तो मैऊ चली जाए करौं? ‘
वे कुछ देर सोचते रहे, उनका मन विचलित हो उठा परिस्थितियों की विकटता के आगे क्या कहते रूक कर बोले- ‘दो-चार दिना में कछू काम ढूंढ लओंगो नेक ठैर जाउ।‘
पत्नी बोली- ‘दो-चार दिना मैं काम कर लऊं तुमाओ काम लग जाएगौं तई छोड़ दऊंगी।‘
वे हां तो न कह सके पर उनका मौन ही स्वीकृति मान लिया गया और अगली सुबह रामरती बुलाने आ पहुंची—‘ओ करैरा वारी। चल रईं का?’ पत्नी बाहर से सर पर से पानी का कलश उतारते हुए बोली –‘हां जिज्जी में चल रई।‘
वे जाती हुई पत्नी को मौन देख्ते रहे उन्हें लगा जैसे उनकी शक्ति निकली जा रही हो वे बड़ी देर तक उसकी पीठ देखते रहे। एकदिन उनका रिक्शा चालक मित्र श्याम आया वे गप्पें करते रहे उसी में काम की चर्चा चल निकली।
श्याम-‘अरे भैया। नेता जी सुन्दर लाल कें चलें वे स्याद कछू काम लगवा देवें।‘
सुन्नू-‘बिन सें तो मेरि यऊ पैचान है, तुम संगें चलियो।‘
नेता जी अपनी बैठक में बैठे तम्बाकू घिस रहे थे जबसे पिछला इलेक्शन हारे थे भीड़ कुछ कम हो गई थी जीतने वालों की बैठक को सुशोभित कर रही थी।
सुन्नू-‘नेता जी। आज कल कछू काम धंधौ नहीं चल रहो, जे श्याम बोले नेता जी पै चलें स्याद कछू बताहें सो चले आए।‘
नेता जी-‘ आज कल तो मेरा भी काम कुछ ढीला चल रहा है, भ्रष्ट लोगों की सरकार बन गई है, कहीं कोई सुनवाई नहीं है, फिर भी कुछ पुराने अच्छे अफसर हैं भले लोग हैं मैं तुम्हारी बात करूंगा।‘
चारा फेंका जा चुका था मछली फंस गई। नेता जी को एक सहायक की आवश्यकता थी जो उनका बैग लेकर उनके सााि चल सके उनका पिछला सहायक साथ छोड़़ गया था आखिर कब तक आश्वासनों के सहारे जीता।
सुन्नू दूसरे दिन सुबह ही सज धज कर नेता जी की बैठक में पहुंच गए विनम्रता से प्रणाम किया नेता जी की कई बार तम्बाकू घिसी आगंतुकों को पानी पिलाते रहे मात्र दो कप चाय में रात के दस बजे तक टंगे रहे मानसिक व शारीरिक रूप से बेहद थक गए।
अगले दिन नेता जी ने पहुंचते ही कहा- ‘जीप में बैठो।‘
पानी की बोतल, तम्बाकू का डिब्बा, बैग व अन्य बहुत सारे सामान के साथ जीप में पीछे बैठे हिचकोले खाते रहे साथ में अन्य सारे लोग चढ़ते उतरते रहे दो तीन गांव जाना पड़़ा नेता जी लम्बी बैठकें करते कभी अफसरों के दफतर जाते, इसी तरह तीन माह गुजर गए।
एक बार फिर उनका दाम्पत्य जीवन खतरों से घिर गया था। पत्नी अभिसार की भंगिमा ओढ़ती वे थकान से चूर होते वह प्यार की भाषा बोलती वे पैसे की। वह परिवार में नये मेहमान के आने की चर्चा छेड़ती वे नई नौकरी के अवसर का सपना देखते।
वे आशंका से भर उठे, देवी मां को नारियल चढ़ाया, पीर बाबा के मजार पर हाजिरी दी, हनुमान जी को चोला चढ़ाया, मानता की आखिर देवता उन पर पसीजे।
एक विद्यालय में उनकी पानी पिलाने वाले की दैनिक आधार पर नौकरी लग गई। विद्यालय में झाड़ू लगाना प्रिंसिपल साहब का सामान लाना ले जाना, शिक्षकों व बच्चों को पानी पिलाना यही ड्यूटी थी।
जब शान्त बैठते तो उन्हें डंडा फटकारता वर्दी डाटे बांका सिपाही याद आता जिसे देख कर सब्जी वाले ठेले वाले रिक्शे वाले सलाम ठोकते थे मोहल्ले के नौजवान नर्मी से पेश आते यहां तो बच्चे भी खास तवज्जो नहीं देते।
एक दिन ऐसे ही एकान्त में बैठे गुनगुना रहे थे कि पास से निकलने वाले शिक्षक को उनका स्वर मधुर लगा वे सुनाने की फरमाइश करने लगे बात फैल गई धीरे-धीरे सभी शिक्षकगण फुरसत के क्षणों में उनका गायन सुनते वे फिल्मी गाने गजल कव्वाली भजन गीत सुनाते समां बांध देते। प्रिंसिपल साहब हिन्दी में एम.ए. थे विद्यालय के प्रिंसिपल थे अत: उनका साहित्यकार होने का दावा बनता था इस लिहाज से कस्बे के महाकवि थे।
एक बार प्रिंसिपल साहब नगर के कवि सम्मेलन में आमंत्रित थे सुन्नू उनकी सेवा में थे। काव्य पाठ के बीच में ही सुन्नू के प्रशंसकों ने शोर मचाया लिहाजा वे भी काव्य पाठ हेतु आमंत्रित किये गए।
कुछ हृदय की पीड़ा कुछ गले की मधुरता ग्रामीण कस्बाई श्रोताओं को उनकी हल्की फुल्की रचनाएं ऊपर से मधुर स्वरों में गाए जाने से बहुत भाई उन्हें मंच पर बार बार रोका गया श्रोताओं की फरमाईश पर दो बार बुलाया गया।
प्रिंसिपल साहब की गरिष्ठ साहित्यिक रचनाओं को पदानुरूप ठंडी रही। वे उखड़ गए सुननू उनकी आंखों में गड़ गए। उनकी नौकरी खतरे में पड़ गई उन पर डांट फटकार पड़ने लगी काम में मीन मेख बढ़ गया। नौकरी अस्थायी तो थी ही जल्दी ही उनको दरवाजा दिखा दिया गया वे समझ भी न सके दृश्य परिवर्तन क्यों हुआ? वे दो तीन दिन तो गुमसुम से रहे फिर एक दिन साहस करके पत्नी से बोले –‘काल सेठ सें बात कर लियों मैं भी मील में चलोंगो पल्लेदारी तो देओगो?’
धान मिल में धान समेटना फैलाना ट्रक से बोरे उतारना उनके लिए बड़ा ही कठिन मेहनत भरा काम था ऊपर से सेठ एक मिनिट भी बैठने न देता उस पर से सेठ व उसके सुपरवाइजरों द्वारा महिला मजदूरिनों से चुहल करना उन्हें बहुत अखर रहा था।
-‘अरे बाई तनक जल्दी जल्दी हाथ चलाओ ऊंघ रहीं रात के सोई नहीं का?’
-‘ अरे सेठ। तुम तो दारू मटक के चैन से सोए हो ओ गे।
रात को उन्होंने पत्नी से इसकी चर्चा की तो वह भड़क गई-‘अरे जां काम करत विते हंसने बोलने परत सबै साधने परतो, तुम मोय बाजे पालकी मंगा देउ मैं सोऊ रानी गनें रउं हाड़ घोर के जैसे तैसे तो जिंदगी चला रई इनहें मैं ऐसी वैसी लगन लगी।‘ वह जोर जोर से रोने लगी, वे भी भड़क गए करीब दो तीन घंटे तक कलह होता रहा उस रात भी बड़ी देर से नींद आई।
पत्नी सुबह भी रोश से भरी थी –‘आज मैं नहीं जा रई काम पै चाहे जो होय।‘
इतने में पड़ोसी लखना आया-‘ भौजी। आज पटेल कें धान चभोरने चल रईं?’
पत्नी ने उनकी ओर आंख उठा कर देखा।
लखना बोला- ‘मील से जादां मजूरी मिलहै। मेन्त (मेहनत) को काम है’
-‘लाला। चलौगी कै जनें हैं?’
-‘सब मिला के अपन दस बारह जनें हैं।‘
वे दिन भर खेत में धान रोपने में लगे रहे। पानी कीचड़ भरे खेत में कमर झुकाए उनका अनुभव नया था, उन्होंने कनखियों से देखा पत्नी कुशलता से जल्दी जल्दी रोपनी लगा रही थी। ऐसे में ही किसी ने लोक गीत की धुन छेड़ दी।
बारी के भौंरा हो
सबके कंठ खुल गए पर वे न गा सके। गीत ने श्रम का कष्ट कुछ कम कर दिया था। शाम को सब पटेल साहब के चारों ओर इकट्ठे हो गए। मजदूरी बांटते बांटते पटेल साहब बोले पैसा कम पड़ गओ बाकी काल लै लियो। सारे लोग सन्न रह गए चेहरे लटक गए। पत्नी लम्बा घूंघट खींचे भीड़ के बीच से बोली—‘पटेल दादा काल कहूं और मजूरी करेंगे कै तुमाई देहरी पै पइसन की बाट हेरेंगे। तुम मजूरी देओगे तब आटौ लाऐंगे तब पेटन में जायैगो। जे खेरी वारी कौ मौड़़ा धरौ है देओगे तब वौ डाक्टर पै जावैगी।
पटेल-‘अब मैं कौन से मंगाऊ?’
पत्नी- ‘जा फटफट धरी है सो लखन लाला खों पहुंचा देउ, जीजी खों लिख देउ।‘
वे पत्नी के साहस व प्रत्यूत्पन्न मति से चमत्कृत हो गये। मजदूरी ले कर लौट रही सारी टोली करैरा वारी की ओर कृतज्ञता से देख रही थी कि वे सभ्य लोग नहीं थे कोई आडंबर पूर्ण शब्द वाकय विन्यास उनके पास नहीं थे। आखिर खेरी वारी ने चुप्पी तोड़ी-‘ तुमने बड़ी कर्रयाई करी करैरा वारी। नईं तो मजूरी न मिलती।‘
लखना बोला-‘भौजी न बोलती तो बिना मजूरी के रह जाते पटेल न जाने कब तक टल्ले देतौ।‘
पत्नी (करैरा वारी)-‘ अरे जीजी। कैसो जमानो आ ग ओ खून सुखाओ और मजूरी ऐसे देत ई मानो भीख दै रए होंऐं।‘
घर आकर वे पत्नी से बोले-‘ आज तो दिन भर करया नैहरो रओ।‘
पत्नी बोली-‘ नेहरो तो रओ पै काऊ की थराई विनती में नईं नैहरो रओ मेन्त (मेहनत) में नेहरों रओ।‘
वे इन शब्दों से चमत्कृत हो उठे पहली बार उन्हें जी हुजूरी नहीं करना पड़ी। मौन पत्नी की ओर देखते रहे। उनका शरीर सारा का सारा थकान से चूर था अंग अंग पीड़ा का अनुभव कर रहा था पर मन प्रसन्न था।
सवित्री सेवा आश्रम तहसील रोड़
डबरा (जिला-ग्वालियर) मध्यप्रदेश
9617392373
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