एक दुनिया अजनबी - 34 Pranava Bharti द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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एक दुनिया अजनबी - 34

एक दुनिया अजनबी

34-

इसी मृदुला को ढूँढ़ते हुए प्रखर उस स्थान पर पहुँचा था जहाँ उसके फ़रिश्तों ने भी कभी जाने की कल्पना न की होगी | कितना चिढ़ता था वह मृदुला से किन्तु जब ज़रूरत पड़ी तो ऐसे स्थान पर भी पहुँचा ही न ! आदमी बड़ा स्वार्थी होता है, शायद बिना स्वार्थ के दुनिया चलती भी नहीं !

कल्पना कहाँ होती है? वास्तविकता की कठोर धरती कहाँ-कहाँ खींचकर ले जाती है मनुष्य को ! समय के बहाव के अनुसार आदमी को बहना ही पड़ता है | कोई चारा ही जो नहीं |

"कभी-कभी लगता है अगर ब्रह्मा जिनके हम केवल नाम से परिचित हैं, वो यदि धरती का भार यानि जन्म देने का भार मनुष्य के हाथों में दे दें तो मनुष्य कैसे लोगों को जन्म दे ? क्या मनुष्य इस धरती पर इतनी रंग-बिरंगी चीज़ों को जन्म दे सकेगा ? अटक न जाएगा कहीं ? ब्रह्मा से एक बार मुलाकात हो तो कितने प्रश्न पूछने हैं उनसे, ख़ासकर अपनी इस जाति के बारे में जिसे उसने त्रिशंकु की तरह लटकाकर पैदा किया है ! "

वो ऐसा चित्रकार है जिसने फूल के साथ काँटों को, अँधेरे के साथ उजालों को, बुराई के साथ अच्छाई को ---यानि सभी चीज़ों में दो पहलू रखे हैं | ब्रह्मा ने इस कम्युनिटी को भी तो ऐसे ही जन्म दिया जैसे और सब जन्म लेते हैं| इनके भीतर भी अच्छाई-बुराई दोनों हैं फिर शरीर के केवल एक छोटे से हिस्से के बदलाव से संवेदनाएं कैसे समाप्त हो सकती हैं ? इस छोटे से शारीरिक भाग की कमी के कारण उनको हेय दृष्टि से क्यों देखा जाना चाहिए ? वैसे ही दुनिया में जनसंख्या की कहाँ कमी है ----और सबकी भाँति उनकी शिराओं में भी तो रक्त ही प्रवाहित होता है, पानी नहीं |

भावनाएँ व संवेदनाएँ तो पशु-पक्षी के भीतर भी होती हैं |वो भी अपनी बोली में इन सबको महसूस करते हैं | कैसे अपने बच्चों के लिए घर बनाते हैं ? खाना बटोरकर ले जाते हैं | बस, उनकी बोली हम ही तो समझ नहीं पाते, महसूस तो कर पाते हैं --उनके कूदने-फुदकने से, उनके रोने -चहकने से !

आजकल पशु-पक्षियों की बोली समझने के लिए खूब शोध किए गए हैं | शोधकर्ताओं ने बहुत से पशु-पक्षियों की बोली समझनी शुरू कर दी है, उनकी पीड़ा समझकर उसका उपचार किया जाता है, फिर इन्हें क्यों नहीं समझ पाते हम ? | ठीक है, आम जन इससे परिचित नहीं किन्तु पीड़ा और प्रसन्नता दोनों ही हम प्रत्येक प्राणी में देखते हैं| मनुष्य की यह जाति पशु-पक्षियों से भी बद्तर हो गई क्या ?

प्रखर के दिमाग़ में बहुत सी ऊट-पटाँग बातें आने लगतीं | जिस कम्युनिटी को वह कभी हेय दृष्टि से देखता था, उसके प्रति अब नमन होने के लिए समय ने उसका सर झुका दिया था |

यही तो समझाया था उसके मित्र ने ;

"स्त्री का अपमान करने के एवज में यदि किन्नर के पाँव पकड़ लोगे तो क्षमा मिल जाएगी |" यह अपराध-बोध से छूटने का बढ़िया बहाना था | पहले करो फिर पैर पकड़ लो | लेकिन यह एक कोशिश भर थी जो फलीभूत नहीं हो सकी |

क्षमा करने वाले के मन का स्वीकार्य भी तो आवश्यक है, हम केवल क्षमा माँग सकते हैं, अब सामने वाला करे न करे, उस पर निर्भर ! ऐसे ही जैसे ईश्वर की पूजा-अर्चना कर सकते हैं किन्तु निर्णय तो उसको हमारे कर्म के अनुसार करना होगा |

यूँ तो औरों जैसा ही वह भी स्वार्थी ही था न ! वह अपने कष्ट को दूर करने के लिए ही तो गया था, न कि किसीकी पीड़ा हरने या किसी से सहानुभूति जताने ! इसीलिए तो गया था वह वहाँ जहाँ मृदुला तो नहीं उसकी बेटी मिली थी | बहुत संस्कारयुक्त, पारदर्शी, स्मार्ट, शिक्षित !

उसे ऎसी लड़की को ऐसे स्थान पर देखकर आश्चर्य हुआ था, अब भी जिम में उसे देखकर वह आश्चर्य से भर उठा | और समय का बहाव देखिए, उसी लड़की से उसकी मित्रता हो गई थी| वह सुनीला और निवि परस्पर क्रमश:पारदर्शी मित्रता के बँधन में बँधते जा रहे थे |

सुनीला व निवि उससे काफ़ी छोटी थी फिर भी उनके विचार एक-दूसरे से बहुत मिलते थे, वे तीनों खुलकर सभी समस्याओं पर चर्चा करते |प्रखर को बार-बार पिता की याद आती, वे मज़ाक में अपनी पत्नी से कहते थे ;

"लड़कियाँ जल्दी बूढ़ी होने लगती हैं इसीलिए मैंने अपने से काफ़ी छोटी उम्र की लड़की से शादी की है ----"

विभा के चिढ़ने पर वे कहते ;

" क्यों यह सही नहीं है क्या कि लड़कियाँ जल्दी होशियार हो जाती हैं, मैच्योर हो जाती हैं| " फिर खिलखिला पड़ते |

उन्हें अपनी पत्नी को इस प्रकार छेड़ने में बहुत आनंद मिलता था| जब तक विभा उन्हें पलटकर कोई उत्तर न दे, वे इसी प्रकार की हरकतें करते ही रहते थे |

पता नहीं क्यों प्रखर अपने पिता की उन बातों को याद करने लगा है जिन पर वह चिढ़ जाता था | इस उम्र में उसे काफ़ी छोटी उम्र की मित्र मिली थीं जो उसकी संवेदनाओं से जुड़ने लगी थीं |

तीनों मित्र अब लगभग रोज़ ही मिलने लगे, प्रखर का एकाकीपन कुछ दूर होने लगा और उन लड़कियों को भी प्रखर में बहुत सी अच्छाइयाँ व पारदर्शिता दिखाई देती, वे प्रखर के साथ अच्छा समय व्यतीत करने लगीं थीं |

"तुम्हें ऐसे वातावरण में अजीब नहीं लगता सुनीला ? "बातों बातों में कॉफ़ी का सिप लेते हुए प्रखर के दिमाग़ में से अचानक सवाल फूटा |

"क्यों ? क्यों लगेगा अजीब ? " सुनीला उसकी बात से भड़क उठी थी |

"नहीं, मेरा मतलब था ----"

प्रखर शर्मिंदगी के साथ अटक भी रहा था | शायद उसका मतलब कुछ भी न हो किन्तु सुनीला को उसका पूछना भी अच्छा नहीं लगा था |

" मैं जानती हूँ ----प्रखर, आप भी तो इसी समाज का हिस्सा हैं ---" उसने व्यंग्य से कहा, प्रखर और भी सहम गया |बड़ी मुश्किल से तो नए और उसे समझने वाले मित्र मिले थे|

"इनका जन्म भी तो ऐसे ही होता है जैसे हर प्राणी का फिर समाज में इनका मज़ाक क्यों बनाया जाता है ? "

"नहीं, ऐसा नहीं है ----हम सब अलग वातावरण में रहने के आदी हैं इसलिए कुछ प्रश्न मन में उठने स्वाभाविक हैं | तुम तो नाराज़ हो जाती हो ----" प्रखर ने सहमते हुए कह ही तो दिया |

"ऐसा ही है प्रखर, हम अपने आपको महान दिखाने के लिए शब्दों के आवरण ओढ़ लेते हैं --"

"वैसे तो तुम ठीक कह रही हो -----"

यह वही प्रखर था जो हर बात में फाड़ खाने को आता था, समय बहुत बड़ा कलाकार है, किसीको भी अपने अनुसार रँग में रँग दे !