एक दुनिया अजनबी - 32 Pranava Bharti द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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एक दुनिया अजनबी - 32

एक दुनिया अजनबी

32-

सब सहम गए थे, मृदुला बिलकुल भी अपने पिता के पक्ष में नहीं थी | उन्हें देखकर वह पगला गई थी जैसे | उसकी माँ बेचारी का रो-रोकर बुरा हाल था | उसकी इतनी प्यारी बच्ची उसके सामने थी जो उसे स्वीकार नहीं कर रही थी |

"आपकी कोई गलती नहीं है माँ ---"मृदुला ने अपनी जन्मदात्री के आँसू पोंछे |
"आप मज़बूर थीं, मैं समझती हूँ --आप जन्मदात्री हैं, भाग्यदात्री नहीं | लेकिन आप ही सोचिए , क्या मुझे हर समय यह याद नहीं रहेगा कि मुझे कूड़ा समझकर अस्पताल में ही छोड़ दिया गया था और मेरे मरने की खबर पूरी जात-बिरादरी में फैला दी गई थी | माँ, जैसे मैं पहले नहीं थी, समझ लीजिए , वैसे ही मैं अब भी नहीं हूँ ---यहाँ मेरी लक्ष्मी माँ हैं, और ये सब बहनें और कितनी और माँ हैं जिन्होंने मुझे फूलों सा पाला है | मैं इन सबको छोड़कर नहीं जा सकती ---"उसका फ़ैसला पत्थर की लकीर था |

बहुत समझाया गया मृदुला को, उसे नहीं समझना था, वह नहीं समझी | कितना बड़ा खेल खेला था ज़िंदगी ने उसके साथ ! उसके भाग्य में पिता के सुख में पलना होता तो वह पहले ही न एक साधारण बच्ची बनकर जन्मी होती --या पिता ने उसे जैसी वह थी, वैसा ही उसे स्वीकार किया होता |

प्रकृति के चमत्कार को नमस्कार था |

"दीदी ! फिर मेरे असली वाले माँ-बाप रोते-पीटते वापिस चले गए --मैं नहीं मना सकी अपने मन को उनके साथ जाने के लिए |" वह सुबक-सुबककर रो रही थी | विभा और शर्मा जी की आँखों से निरंतर आँसू बह रहे थे |

विभा उठकर फिर से सबके लिए ठंडा शर्बत ले आई |

"फिर तुम कभी गईं या नहीं अपने घर ? "शर्मा जी ने पूछा |

"नहीं भैया, मैं तो नहीं गई पर सब भाई-बहन और माँ मेरे पास आते रहते हैं --कभी-कभी --"

"पिता नहीं आते ? "

"उन्हें देखकर मेरे मन में कुछ उबलने लगता है |"मैं नहीं सहन कर पाती उन्हें |मैं किसी भी परिस्थिति में अपना वास्तविक जीवन नहीं छिपाऊँगी और उनमें इतना साहस नहीं है कि वो बिरादरी के सामने मुझे उस रूप में स्वीकारें जिसमें मैं हूँ|जिन लोगों के साथ मैं रह रही हूँ, मैं उन्हें नहीं छोड़ सकती |"

"कुछ पढ़ा भी है तुमने ? "

"जी दीदी, मुझे दसवीं तक पढ़ाने एक अध्यापक आते थे| "

"दसवीं पास की क्या? "

"नहीं दीदी, पास तो नहीं की पर उन्होंने मुझे अंग्रेजी, हिंदी और मैथ्स में बहुत कुछ सिखा दिया, अब यहाँ का सब हिसाब-किताब मैं सँभालती हूँ | "

विभा और उसके पति के मन में मृदुला के प्रति एक अपनत्व की प्रगाढ़ भावना भर गई थी |

"एक बात और दीदी --जब बताना ही है तो पूरी बात खुलकर बता दूँ न ? "

दोनों पति, पत्नी ने एक-दूसरे की ओर देखा और प्रश्नवाचक दृष्टि मृदुला पर गड़ा दी |

"बोलो न ---" विभा ने प्यार से पूछा |
"अब अपनी बेटी को पढ़ा रही हूँ मैं ---" उसने कुछ संकोच करते हुए बताया |

"बेटी ? " दोनों के मुख से एकसाथ निकला |

"दीदी ! मेरे एक बेटी है, बड़ी प्यारी, बारहवीं में पढ़ रही है ---"

"अरे ! वो कैसे ---मतलब किसकी ? "