एक दुनिया अजनबी - 27 Pranava Bharti द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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एक दुनिया अजनबी - 27

एक दुनिया अजनबी

27-

विभा को याद आया, कैसे इनके आने पर कभी-कभी बच्चों को डाँटकर भगा दिया जाता था यानि लोग इन्हें पसंद नहीं करते फिर भी अपने घर में आने देते हैं, उस दिन गुप्ता दादी जी के पोते को बारी-बारी से गोदी में लेकर भी ये नाच रहे थे, फिर इन्होंने बच्चे और उसकी मम्मी के सिर पर हाथ फिराकर आशीर्वाद भी दिया और कितने सारे पैसे और कई साड़ियाँ देकर वापिस भेजा गया था उन्हें, सब गुप्ता जी के घर का गुणगान करते वापिस लौटे थे | विभा न बहुत छोटी थी, न ही बहुत बड़ी किन्तु उसे एक अजीब प्रकार की जिज्ञासा ज़रूर होने लगी थी |

अब तक उसके साथ की और लड़कियों ने भी आना शुरू कर दिया था | वह चुप होकर अपने घुँघरू बाँधने लगी | गुरु जी की दृष्टि उस दिन नृत्य सिखाते समय जाने क्या कहती रही थी जिसे वह अच्छी तरह समझ पा रही थी लेकिन मन में बादल से उमड़ते-घुमड़ते रहे | कौन साफ़ कर पाएगा इन बादलों की सियाही ?

उम्र का एक ऐसे दौर में से विभा गुज़र रही थी जिसमें बहुत कुछ नया था, उत्सुकता भरा था, जानने की इच्छा रहते हुए भी कोई बताने वाला नहीं था | ऊपर से गुरु जी ने एक और गुत्थी उसके सामने रख दी थी |

दरसल वेदकुमारी ने बाक़ायदा गुरु जी से कत्थक की शिक्षा लेनी शुरू कर दी थी, अब उसे कई माह हो गए थे लेकिन आज पहली बार विभा के सामने यह बात खुली थी इसीलिए गुरु जी चिंताग्रस्त हो गए थे |

आजकल विभा को पुरानी बातें बहुत याद आने लगी हैं | बीच की बातें जैसे वह भूलने ही लगी है | अपने बच्चों की बचपन की घटनाओं से अधिक अपने बालपन की बातों में खोने लगी है |आजकल विभा को कभी भी वेदकुमारी याद आ जाती थी, न जाने क्यों ?

आज पड़ौस के घर में इनका नाच-गाना देखकर विभा को बरसों पुरानी उस किन्नर की याद अचानक हो आई जो उसे रेलगाड़ी में मिली थी और बिंदास बैठी कम्पार्टमेंट की सीढ़ियों में अपनी लंबी-लंबी टाँगें लहराकर गा रही थी ;

'डमडम डिगा डिगा, मौसम भीगा-भीगा

बिन पिए मैं तो गिरा, मैं तो गिरा, मैं तो गिरा

हाय अल्ला ! सूरत आपकी सुभानअल्ला !"

'अभी तक यह गाना ज़िंदा है? 'विभा के मन में प्रश्न उठा जो मुस्कुराहट में तब्दील हो गया|

मेरठ में उसके बालपन में उनकी ही सड़क पर आगे एक घर था जिसमें एक प्रतिष्ठित परिवार था, उसीमें एक लड़का था, उसका नाम तो याद नहीं आ रहा था विभा को लेकिन वह जैसे ही विभा को देखता, यही गाना गाने लगता | खिसिया जाती थी विभा ! शायद कोई और गाता तो वह मन में ख़ुश भी होती लेकिन यह निकम्मा सा लड़का उसे बिलकुल पसंद नहीं था | अच्छे-ख़ासे प्रतिष्ठित परिवार का लड़का बस हर समय आवारागर्दी करता रहता | उसकी बड़ी बहन शीला जीजी अपने कॉलेज में उसे नृत्य के लिए ले जातीं | उन्हीं दिनों उसने अपने गुरुजी से सीखा था ;

"मोहे पनघट पे नंदलाल छेड़ गयो रे,

मोरी नाज़ुक कलैया मरोर गया रे ---"

उस समय 'जल बिन मछली, नृत्य मछली'का संध्या का गाना बहुत चला था;

‘ऐसे तड़पूँ के जैसे जल बिन मछली’

शीला जीजी पीछे ही तो पड़ गईं थीं;

"विभु इन दोनों पर डाँस करना है तुझे, देख लेना, अच्छा करना, मेरी नाक का सवाल है |"

उनकी नाक का सवाल होता था और उनके भाई के दिल का ! भला कहाँ कोई मेल बैठता था ? फिर भी शीला जीजी के कॉलेज में उसने गुरु जी से ट्रेनिंग लेकर कई बार नृत्य किया था, उसे हर बार सराहना मिलती और शीला जीजी की नाक कटने से बच जाती |

इस यादों से जुड़े पुराने गीतों को सुनकर विभा को ट्रेन, स्टेशन, और न जाने क्या-क्या याद आ गया | ढोलक की थाप पर कुछ किन्नर ठुमक रहे थे |