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हुँकार

कहानी

हुँकार

-आर. एन. सुनगरया

नये-नये कारोबार को स्‍थापित करना, वह भी अच्‍छे स्‍तर पर, जिससे कि बाजार में उसको मान्‍यता मिले एवं गणमान्‍य, जाने-माने क्रियाशील प्रतिष्‍ठ व्‍यापारी आकर्षित हों, जड़ने की इच्‍छा रखें। अपने व्‍यापारिक समूह में शामिल करने का प्रयास करने का प्रयास करें अथवा अपने वर्ग में आमन्त्रित करें। हर तरह से सहयोग के आश्‍वासन सहित, का कि प्रतिस्‍पर्धा करें।

व्‍यापार का नाम-काम चल निकला तेजी से प्रगतिपथ पर दौड़ते हुये, कीर्तिमान छूने लगा। ये देखकर भाई की बैचेनी बढ़ने लगी। मेरी पूछपरख और बढ़ जायेगी, प्रसन्‍नता में चखर चॉंद लग जायेंगे। इस चका-चौंध में भाई का स्‍वभूवर्चस्‍व धूमिल जा जायेगा। वह तड़प उठा। उसकी छाती पर सॉंप लोटने लगा।

उसने अपनी विद्यवन्‍सकारी तिकड़म एवं साजिश की व्‍युरचना प्रारम्‍भ कर दी। इसी सोच को क्रियान्वित करने के लिये, उसके कुछ कमजोर पहलुओं की तलाश की। अपनापन व मददगार के आश्‍वालों के कालप्निक दृश्‍य दिखाकर, अपनी कुटिल नीति का आगाज गुप्‍त रूप में लिया।

‘’अच्‍छा जम गया, धन्‍धा! बडि़या काम चल रहा है।’’ तारीफ का पुट ‘’सूझ-बूझ व परिश्रम का नतीजा है।‘’ मैंने हर्ष व्‍यक्‍त किया।

‘’कुछ पूँजी और डालकर काम बढ़ाने की भरपूर गुंजाईश है!‘’ उसने जाल फैलाया। मैं समझा नहीं।

‘’देखेंगे बाद में!’’ उसे तत्‍काल टालने का प्रयास किया।

‘’फिलहाल समय अनुकूल है।‘’ उसने पाँसा फेंका, ‘’अभी आवक अच्‍छी है।‘’ उसने विश्‍वास दिलाने मंशा से कहा।

‘’वैसे स्‍कोप तो बहुत हैं।‘’ उसके प्रस्‍ताव पर मेरा झुकाव हुआ।

‘’तो फिर देर काहे की!’’ उसने तुरन्‍त लपक लिया, अवसर, ‘’अनयूज पड़े हैं, कुछ पैसे।‘’ चेहरे पर मनोरथ पूर्ण होने की चमक, ‘’लगाओ धन्‍धे में, बढ़ाओ कारोबार!’’ अपना आफर ठोंकते हुये, ‘’ऐसे ही तो होती है तरक्‍की।‘’

नीति-नियत पर विचार किये वगैर, केवल रक्‍त के रिश्‍ते के वशीभूत होकर सोचा, मैंने भी तो उसके लिये काफी-कुछ किया है। ऑंखें बन्‍द करके। चलता है, आदान-प्रदान परिवार में। कूद पड़ा अन्‍धें कुये में।

अल्‍पनिवेश के पश्‍चात समग्र यूनिट पर दखलन्‍दाजी बढ़ने लगी। वह कमजोर कड़ी की ताक में, इधर-उधर झॉंकने लगा। कुछ-कुछ खोज-खबर में व्‍याकुल रहने लगा। ताकि मजबूत एवं दृढ़ किले में सेन्‍धमारी कर सके और उसे तहस-नहस करने का कारनामा अंजाम देना सलभ हो जाये। अपना विजय ध्‍वज उँचा उठने लगे।

मैं अपनी प्रकृति व प्रवृति के अनुकूल रिश्‍तों, वह भी सगे सम्‍बन्‍धों के इर्द-गिर्द ही मण्‍डराता रहा। भाई-भाई को नुकसान नहीं पहुँचा सकता! इस सिद्धान्‍त के आधार पर, विश्‍वास करके सोचता रहा कि इतना नहीं गिरा है दीन-ईमान! भाई आखिर भाई होता है। परन्‍तु वह अपनी स्‍वार्थपूर्ण साजिश के माध्‍यम से, स्‍ट्रांग यूनिट को घुन की तरह चाटने लगा। मेरे कर्णधारों के कन्‍धों पर अश्‍त्र रखकर।

कार्यस्‍थल पर मेरी अनोपस्थिति में भाई का प्रवेश, वगैर पूर्व सूचना के किसी कुटिल कार्य योजना का संकेत हो सकता है। अपनी कड़ी दृष्टि से यूनिट का अवलोकन व ऑंकलन करते हुये ‘’कैसा काम चल रहा है; भतीजे?’’ चौंधियाई ऑंखें।

‘’ताबड़-तोड़ स्‍पीड में आडर-पर-आडर, फुर्सत नहीं, पल भर! ‘’प्रसन्‍नतापूर्वक।

‘’पापा?’’

‘’उन्‍हीं का मैजेजमेन्‍ट है, आर्डर लाना, रेडी जॉब सप्‍लाई, व बिलिंग। इत्‍यादि-इत्‍यादि।‘’

‘’तुम्‍हें क्‍या मिलता है?’’ दरार की मंशा से दागा प्रश्‍न।

‘’मुझे क्‍या! सब कुछ मेरा ही तो है। मुझे सेटल करने के लिये ही तो.......।‘’

‘’मेरे भोले भतीजे, फिर भी....।‘’ तुरन्‍त कॉंटा फेंका, ‘’तुम्‍हारा अपना बैंक बैलेन्‍स / बेलेन्‍स.....?’’

‘’आवश्‍यक तो नहीं।‘’

‘’भविष्‍य कौन जानता है!’’ उसने अपनी फितरत दिखा ही दी, ‘’कुछ तो बना के रखो.....।‘’ आगे सहानुभूति दिखाई, समय आने पर किसके सहारे स्‍टेण्‍ड होओगे।‘’ फूट डालने का दाव, शंका के बीज डाले दिमाग में।‘’ बड़ी चतुराई से।

‘’मशीनें किसके नाम पर हैं?’’

‘’सब कुछ पापा के ही नाम पर हैं। वे ही हैं, सारी जिम्‍मेदारी और दायित्‍व उठाने वाले।‘’

‘’हॉं तो।‘’ आँखें मिलाकर, ‘’तुम्‍हारे हाथ तो खाली हैं ना।‘’ हाथ का अँगूठा हिलाकर, ‘’ठन-ठन गोपाल।‘’

यह सिलसिला समय-बे-समय चलता रहा। भाई मेरे विरूद्ध बेटों के दिल-दिमाग के ज़हर भरता रहा। वाक्‍यचटुता के कौशल से वह अपने-आपको सबसे बड़ा हितैसी और पक्षधर की छबि बनाने में कामयाव होता रहा। बेटे तर्कहीन, दुनियादारी से अनभिग्‍य थे। इसका उसने भरपूर अपने पक्ष में लाभ उठाया। उन्‍हें विश्‍वास दिला एवं शुभचिन्‍तक है। वे सुनहरे सपने देखने लगे, आत्‍मनिर्भर बनकर।

परिणाम स्‍वरूप बेटे अपना मानदेय स्‍वयं निर्धारित करके उसे वैध-अवैध तरीकों द्वारा वसूलने लगे। ऑंखें बचाकर। सम्‍पूर्ण मर्यादायें एवं अटूट सम्‍बन्‍धों को पूर्णत: अनदेखा करके। विश्‍वासघात का दुष्‍प्रभाव आर्थिक पहलू पर पड़ना अवश्‍यभावी था। व्‍यवसाय में आर्थिक पक्ष सर्वोच्‍य अहमियत रखता है। इसके ह्रास से कारोबार में घुन लगना शुरू हो जाता है, उपर से साबुत-अन्‍दर से खोखला।

कठिन परिश्रम द्वारा निर्मित छवि में बहुत ही तीव्रता से गिरावट होने लगती है। मुट्ठी में बन्‍द रेत की तरह। पँजि की टूटन को रोकने हेतु जिम्‍मेदार व्‍यक्ति अनेकों तात्‍कालिक प्रयास करता है। जैसे उधार लेना बैंकोंअथवा शाहुकारों के चन्‍गुल में फंसना यानि ब्‍याज का फंदा अपने गले में डालना। प्रापर्टी बेचना, इत्‍यादि-इत्‍यादि जुगत करता है। वास्‍तव में इन सब अस्‍थाई उपचारों द्वारा उबरने के बजाय और उलझ जाता है। फिर वही होता है। जमा-जमाया व्‍यापार बिखर जाता है। जिन लोगों ने उसको कुतरा था वे अपना हित स्‍वरक्षित करके किनारा कर लेते हैं। सम्‍पूर्ण कारनामों लापरवाहियों एवं त्रुटियों का ठीकरा संस्‍थापक के सर पर फोड़कर, अपना पल्‍ला झाड़कर दूर जा खड़े होते हैं। दूध के धुले की तरह। दलदल में फंसा देखकर भी सहानुभूति नहीं, पलभर में पीठ फेर लेते हैं।

इसका दुष्‍प्रभाव-व्‍यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक इत्‍यादि प्रत्‍येक स्‍तर पर दिखाई देने लगता है। इन सम्‍पूर्ण परिस्थितियों को पूर्ववत् बनाये रखना सम्‍भव नहीं हो पाता। सुसभ्‍यतापूर्वक स्‍थापित प्रतिष्‍ठा पर ऑंच आना प्रारम्‍भ हो जाता है। जो अमूल्‍य क्षति है। इसे बचाये रखने हेतु सारे प्रयास असफल होने लगे। जो लोग सम्‍मान व आदर की दृष्टि से पेश आते थे। वे किनारा करने लगे बचकर निकलने लगे। शायद उन्‍हें आभास हो गया हो कि ये कहीं अपनी दुर्दशा में हमें ना लपेट लें। श्रेष्‍ठ आचरण, प्रतिष्ठित छबि, मृदु बोलचाल, बात-व्‍यवहार सबकुछ अवोन्‍नति की भेंट चढ़ने लगी। आत्‍मविश्‍वास भी डिगने लगा। शर्मिन्‍दगी सी महसूस होने लगी। लोगों से मिलने-जुलने में कतराने लगा। किसी अज्ञात भय से मन विचलित प्रतीत होने, रास्‍ता ढूँढ़ने में उर्जा कम पड़ने लगी। किससे क्‍या विचार-विमर्श करके, कुछ सूझ नहीं रह।

कोशिशें तो करना अत्‍यावश्‍यक है। जो तुरन्‍त ही शुरू कर देनी चाहए।

अन्‍तत: कार्यप्रणाली को बदलकर आर्थिक स्थिति के सुधार हेतु उत्‍पादन प्रारम्‍भ किया। लेकिन व नाकाफी ही सावित हुआ। उँट के मुँह में जीरा।

मैंने औलाद के रूख की टोह ली ‘’पूर्ण आत्‍मविश्‍वास और आत्‍मशक्ति से पुन: कमर कसकर उत्‍पादन में परिश्रम करते हैं, रात-दिन तो अवश्‍य ही हमारी मेहनत रंग लायेगी। हम पुन: उठ खड़े होगे। मनुष्‍य ठोकर खाकर ही सम्‍हलता है। तब हमें कोई ताकत डिगा नहीं पायेगी!’’ मैंने हिम्‍मत देने के लिये हॅूकार भरी।

♥♥♥ इति ♥♥♥

संक्षिप्‍त परिचय

1-नाम:- रामनारयण सुनगरया

2- जन्‍म:– 01/ 08/ 1956.

3-शिक्षा – अभियॉंत्रिकी स्‍नातक

4-साहित्यिक शिक्षा:– 1. लेखक प्रशिक्षण महाविद्यालय सहारनपुर से

साहित्‍यालंकार की उपाधि।

2. कहानी लेखन प्रशिक्षण महाविद्यालय अम्‍बाला छावनी से

5-प्रकाशन:-- 1. अखिल भारतीय पत्र-पत्रिकाओं में कहानी लेख इत्‍यादि समय-

समय पर प्रकाशित एवं चर्चित।

2. साहित्यिक पत्रिका ‘’भिलाई प्रकाशन’’ का पॉंच साल तक सफल

सम्‍पादन एवं प्रकाशन अखिल भारतीय स्‍तर पर सराहना मिली

6- प्रकाशनाधीन:-- विभिन्‍न विषयक कृति ।

7- सम्‍प्रति--- स्‍वनिवृत्त्‍िा के पश्‍चात् ऑफसेट प्रिन्टिंग प्रेस का संचालन एवं

स्‍वतंत्र लेखन।

8- सम्‍पर्क :- 6ए/1/8 भिलाई, जिला-दुर्ग (छ. ग.) मो./ व्‍हाट्सएप्‍प नं.- 91318-94197

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