आलेख
छात्र-छात्राओं द्वारा आत्मघाती कदम उठाने के कारण तथा रोकने (समाधान) के उपाय।
वेदराम प्रजापति ‘मनमस्त’
यह विषय, वर्तमान परिवेश का भयावह संवाद लेकर, नई दिशा की खोज की अपेक्षा रखता है यह एक ऐसी आवाज है जो हमारे चारों तरफ पसरे बदरंग को ऑंकती है। हमारे सामने संक्रमण का दौर, जो राष्ट्र की अस्मिता पर प्रश्न चिन्ह खडा करता है, भयानक आक्रान्ता के वेश में खडा हैं। इस भयावी दौर को रोकने के लिए-लगता है कोई महाशून्य से हमें आवाज दे रहा है, निदान खोजने को। हम हैं जो ऑंख, कान बंद किए, बापू के बंदरों की तरह चुप-चाप बैठे है। भयानक जन त्रासदी सामने खडी है। प्रतिदिन अनगिनत आत्मघाती कदम-छात्र-छात्राओं द्वारा उठाए जा रहें है। इस गहरे कुहा में गहरा संताप व्याप्त है। यह जन संताप सामूहिक भय लिए पसरा है। जन-जीवन उचित समाधानों के संवादों के लिए अपेक्षाएं मांग रहा है।
इतना सबकुछ होने के बाद भी प्रदेश के संवेदनहीन मानव मौत की तकिया बना कर सो रहंे है निश्चिंतता से। चिंतन, चेतना मदहोश हैं युवा प्रतिरोध की दिशाएं अविवेकोन्मुखी है। वर्तमान सामाजिक वितंडावाद ने युवा प्रतिरोध के अनेक द्वार खोल दिए है। युवाशक्ति को नियंत्रण करने और दिशा देने का काम पारिवारिक, सामाजिक और राष्ट्रीय परिवेश करता है, जो गहरी नींदों में बे-खबर सोता सा दिखाई दे रहा है। अन्तराष्ट्रीय परिवेश भी इस ओर से ऑंखे फेरें बैठा है। जिस ओर, जैसे समय में आज का युवा खडा है, उस ओर यहॉं, ढांढस और दिशा कम, तिरस्कार अधिक मिल रहा है। पारिवारिकता, वैयक्तिकता में सिमिटी जा रही है। रिश्तों के अभाव में मरूस्थल की युवा यात्रा बडी कठोरता और आक्रोश से भरी हुई है। वस्तुवादिता पर आधारित प्रतिस्पर्धा से उभरे पारिवारिक कलह के बीच से निकला युवा दुनियॉं को हिकारत की नजर से देखता है। दुनियॉं उसके लिए निहायत संवेदना शून्य और खाली हाथों वाली अनुभव होती हैं। उसका प्रतिरोध सामाजिक वर्तमान मान्यताओं और धारणाओं को अमान्य करने का रूख अपनाता है, तब इस त्रासदी में आत्मघाती कदमों का उठना स्वाभाविक हो जाता है।
युवा प्रतिरोध की मुख्य दिशा सामाजिक ढॉंचे को गिराना नहीं, बल्कि नींव आधारित मूल्यों पर, नव-निर्माण करना है, लेकिन इन मूल्यों के शिक्षण और संस्कारों से आज का युवा वर्ग वंचित है। क्योंकि परिवार पाठशाला और समाज स्तर पर उसे न परम्परा-बोध कराया जाता है और न हीं इतिहास दृष्टि दी जाती है। वस्तुवादिता की अंधी सुरंग में उसका बचपन ढकेल दिया जाता है। तथा परम्परा का विरोध ही, आधुनिक होना है उसे बताया जाता है। विडम्वना यह है कि, साहित्य,कला,शिक्षा आदि सभी क्षेत्रों में परम्परा का विरोध ही एक फैशन सा हो गया है। इसके परिणाम युवावर्ग के सपने तो है,लेकिन उनमें रंग नहीं है। रंगो का आधार नहीं है। युवा वर्ग नव निर्माण तो करना चाहतें हैं किन्तु उन्हें यह स्पष्ट ज्ञात नहीं है, कि समाज निर्माण की नई सामग्री कौन सी हो जो पिछली सामग्री से भिन्न हो। इसी भटकाव पर ये दिशा भ्रमित होकर,न जाने क्या से क्या कर डालते है जो आज के इस परिवेश को त्रासदी की जंजीरों में जकडते देखा जा रहा है।
आज का समाज दो धाराणाओं में चलते दिखाई दे रहा है। प्रथम महानगरीय बोध में मदांध तथा सांस्कृतिकता से बहुत दूर तथा दुसरा वर्ग है कस्वाई्र और ग्रामीण, जो सॉंस्कृतिकता से परिपूर्ण। प्रथम वर्ग के युवा की स्थिति त्रिशंकु जैसी है, उसके पास न तो भारतीय जमीन है न ही विदेशी। न तो अपनी भाषा की संस्कृति है और न विदेशी भाषा की पूर्णता। उन्हे न अपना काल बोध है और न ही विदेशी काल गणना आधारित पूर्ण जीवन विधि। अपूर्ण इसलिए, कि वे विदेशी काल बोध में जीते है। उनके प्रतिरोध की दिशा प्रत्येक भारतीय संदर्भो को खारिज करना है। उनके पास न तो भारतीय संदर्भों की वैज्ञानिक और तर्क संगत व्याख्या की दृष्टि है और न ही इन संदर्भो से जुडकर पुनर्मूल्यांकन की क्षमता। कारण यह है कि उनकी परिवेशगत, अंधी सभ्यता ने उन्हे अतीत से काटना,परम्परा का विरोध करना तो सिखाया, लेकिन अपनी ही जमीन पर नए औजारों से नई राह बनाने का कौशल पैदॅंा नही किया। इस तरह महानगरीय युवा,दिशा हीन है। परम्परा ठहरा पानी नही है, वह बहता जल है। आज का युवा अतीत का विरोध, संस्कृति का विरोध,पुराने का विरोध,यहॉं तक कि समाज, परिवार, और एक स्तर पर,अपने ही स्तर पर जिन्दगी का विरोध भी करता है। इसी ऊहा-पोह में उसके कदम अपनी राह पर लडखडाते जाते है और अन्तोगत्बा आत्मघाती कदम उठा ही लेते है।
युवाओं का एक वर्ग अपनी राहों से भटका हुआ है। वह सोचता है कि यह जमीन,संस्कृति,समाज परिवार, हमारे लायक नहीं है,इससे तो अच्छा है इन सबसे बहुत दूर चले जाना। विवेकशून्य होकर कदम गलत राह की ओर बरबस ही मुड जाते है जो आज की भयावह स्थिति है। क्योंकि वे, यह नही जानते कि क्या करने जा रहे है। इस वितंडावाद में ही युवाओं की जीवन नौका पानी की अपेक्षा रेत में ही फंॅस जाती है। बस उनका नाम हवा के झौकों में, रेत पर लिखे नाम की तरह मिट जाता है। वही अतीत और इतिहास का विरोध करने वाला, अतीत का हो जाता है। युवा प्रतिरोध की ये दिशाएं अनिश्चित, अनिर्णीत तथा असकारात्मक है। इसके लिए हमारे शिक्षा शास्त्रीयों द्वारा छात्र वर्ग को हमारी जमीन,हमारा गॉंव,हमारा देश, हमारी सोच, हमारा विकास आदि का सिद्धांत सामान्य तरीके से छात्रों के नवचेतना मन की धरती पर सभी संदर्भो का विज्ञान आधारित ज्ञान-विज्ञान की नीति की निरंतर व्याख्या दी जानी चाहिए। किन्तु यह सब कुछ नही होना ही आज की विषम समस्या है। इस ओर ध्यान की अपेक्षा होती है।
आज के समय में एक ऐसा विक्षोभ और असंतोष छात्र वर्ग में पैदॅंा हुआ है जो हर वस्तु को संदेह की नजर से देखता है। यह पीढी अर्न्तराष्ट्रीय बनने का दिवा स्वप्न देखती है। इसी वर्ग ने आत्मा की महत्ता पर प्रश्न चिन्ह लगाया है। युवा पीढी की शिक्षा में से नैतिकता को निकाल कर पदार्थ आधारित भौतिक विकास को स्थापित किया है। नैतिक शिक्षा, शिक्षण पुस्तकों से बाहर कर दी है। जो इस अव्यवस्था की साक्षी है।
इस स्थिति में एक ऐसी विश्व सभ्यता की फॉंक पैदा हो गई है जो युवा छात्र पीढी को विज्ञान और धर्म में दूरी बढाती रही है। युवा पीढी विज्ञान की शिक्षा प्राप्त कर विदेशों की ओर उडने हेतु लालायित है। क्योंकि भारत की जमीन पर उसे विकास के पर्याप्त अवसर नही है। वह भारत में संतुष्ट नही है। क्योंकि अपने देश में धर्म अछूत हो गया है। नैतिकता की बात जीभ पर रखा अंगारा हो गर्इ्र है। परिणाम में भविष्य शून्य है। आक्रोशित युवा छात्र पीढी, सडको और पान की दुकान पर खडी गरिया रही है, अपने आपको, अपने समाज को। कुछ युवा नशे में अपना दर्शन मृत्यु खोज रहे है। कुछ प्रतिरोध करते करते थकान की सुस्त चटटान पर सुस्ता रहे है। जिस शिक्षा पर छात्र पीढी का भविष्य टिका है वह अधूरी सी लगी। यह शिक्षा बेरोजगार की संख्या तो बढाती है किन्तु सात्विक नागरिक पैदॅंा नहीं करती है।
एक नया अध्याय और अधिक भयावह है जो युवाओं का इस्तेमाल राजनीति के स्वार्थो को लेकर किया जाता है। युवाओं की क्षमता को गलत मोर्चे पर लगाकर शोषण किया जाता है। उनके आक्रोश का उपयोग कई गैर सामाजिक कार्य सम्पन्न करने में किया जाता है जैसे शिक्षाकाल में युवाशक्ति,राजनीति से दूर रखी जावे तो ज्यादा ठीक होगा। आज का युवा हरकाम शोर्टकट के जरिये, शीघ्र करना चाहता है। न होने की स्थिती उसे विचिलित बना देती है। इससे उसमें प्रतिरोधकता का भाव पैदा होता है। यह भयावह बात नहीं कि देश के चौराहों पर युवा छात्र जीवन जलता,मरता रहा और शासन के कान पर जूॅं तक नही रैंगी। अनेक छात्र छात्राओं के आत्मघाती कदमों पर शासन का शील,संतोष जहॉं का तहॉं रहा, क्या अफसोस की बात नहीं है। आज के इस दौर में शिक्षा, नैतिकता,राजनीति के साथ दूर संचार का माध्यम भी इसका एक पहलू नही है जो अश्लील वातावरण को प्रस्तुत कर छात्र जीवन से क्या खिलवाड नही कर रहा है। शासन की शिक्षा नीति भी इसमें समानता की भागीदार भी है।
मौबाईल, लैपटॉप आदि के माध्यम से भी इस दिशा को बल मिल रहा है। इस ओर भी शासन का छात्र हितैषी कदम होना चाहिए। छात्रों के विषय सिलेवश में भी संशोधन की अपेक्षा है। शिक्षण की दुकानों और दुकानदारों पर भी शासन की समान नीति दृष्टि होना चाहिए। यदि इस व्यवस्था के हित में, कारगार कदम नहीं उठाए गए तो भविष्य की दिशा और दशा क्या होगी? समय ही इसका सापेक्ष होगा।
इस विषय पर अज्ञेय जी कहते हे कि-
‘‘अस्मिता के संकट में, नकार की अनेक मुद्राओं को भी प्रेरित किया है।’’
इस संदर्भ में द्विवेदी जी भी कहते है कि-
‘‘जो कहता है कि मैं नए मूल्यों को खोज रहा हॅू, वह वस्तुतः कहना यह चाहता है कि मैं यह सोच रहा हॅू कि मनुष्य नई परिस्थितियों में सहजप्रबल गति से कैसे जी सकता है।’’
अन्ततः यही कहना है कि युवा छात्रों के जीवन की धारा सही दिशा में ले जाने के लिए, माता पिता की पाठशाला से चलकर शिक्षा,समाज, राष्ट्र आदि की अहम भूमिकाऐं है जो उसे सही दिशाबोध दे सके। उसके जीवन की राहों को सही मोड दिया जाये। उसके प्रतिरोध की दिशा अपनी अस्मिता के रक्षण, मानव मूल्यों के संबर्धन एंव राष्ट्रहित के परिवर्धन की ही होनी चाहिए। युवा छात्र पीढी में समझ की कमी नही है बल्कि उन्हे सही शिक्षा देने की कमी है। जिसकी शासन से अपेक्षा की जाती है। जय हिन्द! शुभमस्तु!!
वेदराम प्रजापति ‘मनमस्त’
गायत्री शक्ति पीठ रोड गुप्ता पुरा
डबरा जिला. ग्वालियर म.प्र.
मो. 9981284867