आठवी शताव्दी के उत्तरार्ध का आइना महाकवि भवभूति साहित्य
आठवी शताब्दी के उत्तरार्ध में महाकवि भवभूति का साहित्य उनकी कृतियों के माध्यम से भारत वर्ष के मध्य भाग के समाज का राजनैतिक एवं सामाजिक परिवेश का स्पष्ट आइना प्रस्तुत करता है। इस तरह उनकी कृतियाँ उस समय की धरोहर के रूप में हमारे सामने आती हैं। इनको पढ़कर हमारे आज के परिवेश का आइना भी स्पष्ट दिखाई देता है।
सबसे पहले हम यह तय करें कि उनकी रचनायें किस क्रम से लिखीं गई हैं। मेरी दृष्टि में उनका परिवार श्रीराम की परम्परा को मानने वाला रहा है। जिसका प्रभाव उनके जीवन में देखने को मिल रहा है। शुरू-शुरू में अपने पूर्वजों से आदमी जो साीखता है उसे ही अपने पूर्वजों की धरोहर के रूप में लेखन में सामने ले आता है। इसलिये महावीर चरितम् उनकी पहली कृति होनी चाहिए। यह उनके बचपन के परिवेश का परिणाम भी हो सकता है।
दूसरी बात यह है कि जब कोई रचनाकार लिखना शुरू करता है तो उसमें अपना पर्याप्त परिचय देता है। इस क्रम में महावीर चरितम् में उन्होंने अपना सबसे अधिक परिचय दिया है। अतः यह उनकी पहली कृति होनी चाहिए। इसके बाद इससे कम परिचय मालती माधवम् में और सबसे संछिप्त परिचय उत्तर राम चरितम् मे पाया जाता है।
अब हम रचनाकार के परिवेश की बात करें तो वह जिस परिवेश में जीता है। वह जो अपने समाज में देखता है ,उसी से उसका लेखन शुरू होता है। मालती माधवम् में श्रृगार रस की प्रमुखता के साथ- साथ उस काल की प्रमुख परम्परायें, रीति रिवाज तथा विशेषतायें उसमें द्रष्टि गोचर हो रहीं हैं। यों मालती माधवम् का क्रम ही पहले पायदान पर आता है उसके वाद महावीर चरितम् एवं उत्तर राम चरितम् अन्तिम पाय दान पर सुशोभित हो रहा है।
महावीर चरितम् को प्रारम्भ करते समय भी उन्होंने परम्पराओं का निर्वाह नहीं किया है। उसका प्रारम्भ श्री राम के जन्म से नहीं वल्कि धनुष यज्ञ से किया है। किन्तु इसका समापन परम्पराओं के मोह में पड़कर सीता की अग्नि परीक्षा से करा देते हैं। बाद में वे इस कार्य पर वे पश्चाताप करते हैं और इसके प्रायचित स्वरूप उत्तर राम चरितम का लेखन करते हैं। मुझे तो ल्रगता है कि उन्होंने उत्तर रामचरितम् का लेखन ही इस घटना कें प्रायश्चित स्वरूप ही किया है। महारवीर चरितम् के आधार पर बनाये गये चित्रों कें माध्यम से ही उसका प्रारम्भ होता है। इसके समापन में उनकी सीता धरती में नहीं समाती वल्कि मिलन होता है। इस तरह उस समय की नारी को उन्होंने अग्नि परीक्षा से बचाने का प्रयास किया है और नारी को सम्मानपूर्वक जीने की राह दिखाई है। उस समय वे परम्पराओं के मोह में न पड़कर, एक नई क्रान्तिकारी सोच को प्रस्तुत करते हैं।
वे परम्पराओं के मोह में पड़कर शम्बूक का वध तो करा देते हैं किन्तु ऐसा करते समय उनके श्रीराम का हाथ काँपता है। उस समय वे सीता की अग्नि परीक्षा वाले प्रसंग पर पश्चाताप करते दिखाई देते हैं।
अब हम उस समय के परिवेश की बात करें तो आज की तरह लेखक जो कथनी-करनी में फर्क देखता है, वह बात उसे रास नहीं आती तो वह उसी परिवेश पर कलम चलाना शुरू कर देता है। इस हेतु हमें इसके कथ्य पर दृष्टि डालने की आवश्यकता है।
अब हम उसके कथ्य को ध्यान में रखकर इस बात की पड़ताल करें, कैैसा था उस समय का परिवेश ?
महाकवि भवभूति की अपनी प्रगति में बौद्ध योगिनियों का सहयोग रहा है। उस समय के सामाजिक एवं राजनैतिक परिवेश का यह मालतीमाधवम् नाटक उन्हीं के सहयोग से लिखा जा सका है इसका प्रदर्शन भी उन्हीं के सहयोग से किया गया था। उन्हें मातेश्वरी कामन्दकी का चरित्र बहुत रुचिकर लगा है। इसी कारण भवभूति ने मंचन के समय इसका सफलता पूर्वक अभिनय स्वयम् ही किया है। इसका स्पष्ट संकेत तो नाटक के प्रारम्भ में ही दिया जा चुका है। इसका अर्थ है उस समय में महाकवि भवभूति ने साम्प्रदायिक सदभाव की भावना को समाज में प्रस्तुत करने का सहासिक कार्य किया है। ऐसा कार्य उस समय में बहुत ही कम साहित्यकार कर पाये होंगे। उनकी यह बात उस समय के मनीषियों को रास नहीं आई। इसी कारण वे महाकवि कालीदास से बहुत पीछे रह गये। लोगों ने जितनी चर्चा महाकवि कालीदास की की है उतनी महाकवि भवभूति की नहीं।
उस समय में वारांगना संस्कृति समाज में समाहित थी। माधव के कथन में-सुनिये वह सुन्दरी जब हथिनी पर सवार हो रही थी उसी समय उसकी सखी समूह से एक वारागंना उपस्थित होती है। जानते हैं वह कौन है। मैं उस स्वामिकन्या की धाय की पुत्री विश्वास पात्र लवंगिका नाम वाली है।(मालती माधवम् पृष्ठ क्रमांक 52,53 एवं इस वात की चर्चा पृष्ठ क्रमांक 64 पर भी की गई है)
इस समय सुन्दरी मालती की परिचारिका वैश्याओं के कपोलों पर विद्यमान.........। इस तरह इसमें वैश्याओं का चरित्र चित्रण उकेरा है। वे उस समय में राजपरिवार से सम्बन्धित लोगों के यहाँ परिचारिका के रूप में प्र वेश पा जातीं थीं। इसका अर्थ है वे सम्मान जनक जीवन यापन करतीं थीं। लोग उन पर विश्वास करके उन्हें परिचारिका जैसे कार्य पर स्थान देते थे। आज की तरह वे देह व्यापार में लिप्त रह कर जीवन यापन नहीं करतीं थीं।
अब हम कृति में समाहित तंत्र साधना की बात करें। तंत्र साधना दो प्रकार की होती है। एक तामस प्रवृति की साधना जिसमें वलिप्रथा के द्वारा एवं श्मशान में की गई साधना के द्वारा कुछ सिद्धियाँ प्राप्त की जाती हैं जिससे संसार के प्राणियों में भय उत्पन्न करके अपना वर्चस्व प्रदर्शित करने के लिये किया जाता है। इससे वे लोगों में भय उत्पन्न करके अपना वर्चस्व स्थापित करना एवं धन ऐठना हैं। ऐसे अनेक प्रसंग मालती माधवम् में आये हैं। दूसरी सात्विक प्रवृति की साधना है जो लोगों के चिन्तन को उद्दीप्त करती है।
आज इन तंत्र साधनाओं को दो भागों में बाँट सकते हैं। एक नकारात्म सोचवाली दूसरी सकारात्मक सोचवाली। कपालकुण्डला का सोच नकारात्मक है। जो बलि देकर कुछ प्राप्त करना चाहती है जबकि सौदामिनी का सोच सकारात्म है। वे आकाशमार्ग से गमन कर वहाँ पहुँचती है जहाँ मालती की बलि दी जानी है, वहाँ पहुँचकर वह मालती को बचा लेती है।
जब माधव कामन्दकी के आश्वासन को निस्सार समझने लगे। उन्हें वामाचार के अनुसार श्मशान में पिशाचों को मांस विक्रय में अपनी आशा पूरी होने की संभावना प्रतीत होने लगी। ऐसी स्थिति में श्मशान में की जाने वाली तंत्र साधना की ओर माधव अग्रसर होता है।
नाटक की इस घटना से लोग समझ जायेंगे कि माधव जैसे नायक भी अपने लक्ष्य की पूर्ति के लिये वामाचार के रास्ते चले जाते थे फिर जन सामान्य की स्थिति तो इससें निकृष्ट रही होगी।
भयंकर वेशवाली कापालिक कपालकुण्डला अपने गुरु अघेारघंट की सफलता के लिये, किये जाने वाले बलिपात्र के अन्वेषण के लिये आकाश मार्ग से भ्रमण करने लगी। उस समय उसने श्मशान में एक हाथ में तलवार और दूसरे हाथ में नरमांस लिये हुये माधव को देखा।
कापालिक के आकाश मार्ग से संचरण वाली बात सभी को आश्चर्य में डाल देगी। सामाजिक परिवेश पर लिखे गये नाटक में ऐसी बातों का समावेश अस्वाभाविक सा लगेगा, लेकिन आप लोगों को यह तो जानना ही चाहिए कि योग में बड़ी शक्ति निहित है। यहाँ योग का दुरुपयोग किया जा रहा है, इससे ये लोग पथ भ्रष्ट होकर पतन के मुख में समा जायेंगे। यहाँ प्रबुद्ध जनों को समझाने इतने ही संकेत पर्याप्त हैं।
अर्धरात्रि के समय करालादेवी के मंदिर के पास वाले श्मशान में माधव नरमांस बेचने के लिये पर्यटन कर रहा है। उसे उस समय रह-रह कर मालती की याद आ रही थी। उसे अपनी इच्छा र्पूिर्त करने के लिये कोई उपाय नहीं सूझ रहा था। इसी समय उसे भयंकर आकृति वाले रक्त और मांस का अपयोग करते अगणित पिशाच और श्रृगाल दिखाई पड़े। सारे श्मशान में संचरण करने पर भी डर के मारे कोई भी पिशाच माधव के हाथ में स्थित महामांस को खरीदने को प्रस्तुत नहीं हुये। इसी समय किसी का करुण रोदन सुनाई पड़ा। वह स्वर करालादेवी के मंदिर से आता हुआ और कुछ परिचित सा प्रतीत होने लगा।
इसी समय मालती बंधी हुई देवपूजन में तत्पर ,कपालकुण्डला और अघोरघण्ट माधव को रास्तें में जाते हुये दिखे। पूजा समाप्ति के बाद स्तुति पाठ करके जब कापालिक अघोरघण्ट मालती पर खड़ग प्रहार के लिये तत्पर हुआ, उसी समय इस वीभत्स कार्य को रोकने के लिये माधव बीच में कूद पड़ा। मालती ने जीवन बचाने के लिये उससे कातर भाव में प्रार्थना की। कपालकुण्डला ने अपने गुरु को माधव का परिचय दिया। कुपित कापालिक एवं माधव में कहा-सुनी होने लगी और दोनों लड़ने लगे। माधव ने अघोरघण्ट का वध कर दिया।
समाज में इस प्रकार के कार्यों में नरबलि की परम्परा चली आ रही थी। यहाँ भवभूति ने नारी बलि की बात को प्रस्तुत करके नाटक में गहरी करुणा का भाव भरने का प्रयास किया है। इस बात की ओर भी संकेत किया गया है कि नारी बलि जैसा घृणित कार्य भी ये कापालिक लोग करने लगे थे। माधव के द्वारा अघोरघण्ट के वध से कापालिकों की अस्तित्वहीन शक्ति की ओर संकेत दिया गया है।
यहाँ योगिनी सौदामिनी का यह कथन-‘अरे, इस तरह से उड़ी हूँ कि जैसे सम्पूर्ण पर्वत, नगर, नदी इनका समूह नेत्रों से देख रही हूँ! पीछे देखकर वाह् वाह्!’
योगिनी कामन्दकी की पूर्व शिष्या सौदामिनी थी। जो मंत्र सिद्धी के लिये श्रीपर्वत पर आयी थी। सौदामिनी ही अपनी अद्भुत शक्ति से उसकी रक्षा कर सकी। सौदामिनी ने कपालकुण्डला से झिड़ककर मालती को बचा लिया। उसे अपनी कुटी में रखकर वकुलमाला उन्हें दे दी।
यह नगर योगी-योगिनियों का रहा है। योग में अपार शक्ति है। योग से प्राप्त शक्तियों का हम यदि सदुपयोग कर सकें तो वह कल्याण का पथ होगा। महाकवि भवभूति ने इस कृति के माध्यम् हमें योग की ओर प्रेरित करने करा प्रयास किया है। जिसके सहारे आदमी अपने जीवन के लक्ष्य को पा सकता है। एकाग्रता के लिये इससे श्रेष्ठ कोई उपाय हो ही नहीं सकता। संकल्प-विकल्प रहित भी आदमी योग के द्वारा हो सकता है।
मालतीमाधवम् में सिन्ध नदी और पारा नदी के संगम पर मालती को स्नान करते हुये प्रस्तुत किया जाना, नाटक में इन सभी नदियों का वर्णन, स्वर्णबिन्दु, श्रीपर्वत का वर्णन इत्यादि से सिद्ध होता है कि यह नाटक यहीं मंचन किया गया होगा। यदि धूमेश्वर मंदिर को कालप्रियनाथ का मंदिर माना जाये तो यह नाट्यमंच मेला स्थल मंदिर से अधिक दूर भी नहीं है और मेले से हटकर पार्वती नदी के पार बना हुआ है। जिससे शांति के वातावरण में इस पर मंचन किया जा सके।
इस क्षेत्र में नटों के आधार पर गाँवों के नाम मिलते हैं। जैसे खेड़ी नटवा, इस क्षेत्र में नटों का बाहुल्य था। भवभूति ने स्वयं मालतीमाधवम् नाटक में कामन्दकी का अभिनय किया है। नटों के साथ उनके मित्रता के संबंध थे, उन्होंने इसका अभिनय ही नहीं किया बल्कि नटों को इसके अभिनय का ज्ञान भी दिया था। उन्हें पढ़ाया लिखाया भी था। अतः भवभूति अकेले नाटक लेखक ही नहीं बल्कि अभिनेता और निर्देशक सभी कुछ रहे होंगे। मालतीमाधवम् नाटक इसी पात्र कामन्दकी के इर्द-गिर्द ही घूमता रहता है। आज इस स्तर के बिरले ही निर्देशक हैं, जो स्वयं नाटक लिखे पात्र बनकर स्वयं अभिनय करें, साथ-साथ निर्देशन का कार्य भी कुशलतापूर्वक सम्पन्न करे। यह तो भवभूति जैसे विद्धान-मनीषी द्वारा सहज ही सम्भव है।
यहीं मालती माधवम् में मालती के स्नान करने का दृश्य वर्णित है। अब हम उस स्थान पर आप सभी का ध्यान केन्द्रित करना चाहेंगे, जहाँ सिंध और पारा नदी का संगम है। यहीं पद्मावती का ध्वस्त किला बना हुआ है। किले से सिन्धु नदी तक पक्की सीढ़ियाँ बनी हैं। जिन पर लोग बैठकर स्नान करते होंग। इस माध्यम से उस समय के राजसी वैभव के दर्शन किये जा सकते हैं।
यहाँ से 3-4 कि.मी. की दूरी पर एक स्वर्ण बिन्दु है। यह स्थान सिन्ध और महुअर नदी के संगम पर स्थित है। एक चबूतरे पर शिवलिंग मिला है। मालतीमाधवम् नाटक के इस स्वर्ण बिन्दु पर शिवलिंग का वर्णन है। चबूतरा तो पत्थर और चूने का बना है, ईटें पद्मावती से मिलती-जुलती हैं। यहाँ का शिवलिंग बहुत प्राचीन प्रतीत होता है। इस चबूतरे के नीचे एक माँ-बेटे की मूर्तियों के निचले हिस्से मिले हैं। स्त्री की पायल को देखकर अनुमान लगाया जा सकता है कि यह गुप्तकाल के समय की बात रही होगी (पद्मावती-पृ. 52)।
पद्मावती में भीतर-बाहर आने-जाने का मुख्य मार्ग वर्तमान में स्थित भितरवार बस्ती से था, जो आज भी अपने वैभव की कहानी स्वयं कहता सा लगता है। इस क्षेत्र का निवासी होने के नाते मेरा उपन्यास‘महाकवि भवभूति’इसी गहन सोच का परिणाम है। यहाँ की नैसर्गिक सुन्दरता, ऐतिहासिक-तथ्य तथा साहित्य का संगम इस स्थान को पर्यटन स्थल के रूप में विकसित करने की अन्नत सम्भावनायें हैं।
मालती माधवम् में भवभूति ने सामाजिक व राजनैतिक परिवेश का आज की तरह खुला चित्रण अंकित करता है। अकेला माधव अनेकों सिपाहियों को मारकर भगा देता है,वहाँ के महाराज छत पर खड़े-खड़े यह देखते रहते हैं। जब माधव जीत जाता है तो उसकी वीरता देखकर वहाँ के महाराज उसे अभयदान प्रदान कर देते हैं। इस कथा के द्वारा भवभूति ने उस समय के राजनैतिक परिवेश के वारे में क्या नहीं कह दिया? उस समय के राजा ने इस को अवश्य देखा होगा। सोचें- राजनैतिक अव्यवस्था के ऐसे नर्तन का वर्णन करना किसी साधारण से व्यक्तित्व के बस की बात नहीं है। उस समय के राज परिवार की कमियों को रेखाकिंत करने के लिये ही ऐसे दृश्यों की संकल्पना की गई होगी।
नरवलि की परम्परा, वामाचार के रास्ते, तांत्रिकों की मनमानी उस समय की राजनैतिक अव्यवस्था को उजागर करने के लिये पर्याप्त है। आज की तरह उस समय भी आत्महत्याओं का चलन एवं कमजोर वर्ग के प्राणियों की हत्या उस समय के वामाचारियों द्वारा साधारणसी बात थी। उस समय राजतंत्र का प्रभाव नगण्य दिखार्इ्र देता है। यों भवभूति के मालती माधवम् में व्यवस्था की शल्य क्रिया करने का प्रयास किया है।
उनकी उसी कृति में नन्दन नामक पात्र मालती के साथ विवाह करने के लिये, राजा की खुशामद करके उन्हें अपने पक्ष में कर लेता है। लगता है-उस समय राज परिवार का कार्य अपने चाटुकारों की शादी व्याह कराने तक सीमित रह गया था। उस समय की सामाजिक व्यवस्था का इससे अच्छा आलेख कोई दूसरा नहीं हो सकता।
अन्त में इतना ही कहना चाहूँगा कि आठवी शताब्दी में महाकवि भवभूति एक क्रान्तिदृष्टा साहित्यकार थे। आज नये सिरे से उनका मूल्याँकन करने की आवश्यकता है तभी हम उनके साथ न्याय कर पायेंगे। 00000
12 एकांकी-’मालती माघवम्
पात्र परिचय:
पुरुष पात्र
1. भवभूति - मालती माघवम् के कृतिकार, प्रमुख सूत्रधार
2. सूत्रधार- एक नट
3. माधव - विदर्भराज के मंत्री, देवरात के पुत्र, नायक
4. मकरंद- माधव का मित्र
5. कलहंस- माधव का भृत्य
6 सूत्रधार- एक नट
.स्त्रीपात्र
1 मालती - पद्मवती के राजा के मंत्री भूरिवसु की पुत्री, नायिका
2. मदयंतिका- पद्मावती के मंत्री नंदन की बहिन
3. कामन्दकी - बौद्ध सन्यासिनी योगिनी
4. सौदामिनी - कामन्दकी की पूर्व शिष्या
5. कपालकुण्डला-अघोरघण्ट की शिष्या, कापालिकी(वामाचारणी)
6. बुद्धरक्षिता - बौद्ध सन्यासिनी योगिनी कामन्दकी की सखी
7. लवंगिका - मालती की धाय की पुत्री, सखी