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मानस के राम (रामकथा) - 44





मानस के राम

भाग 44




कुंभकर्ण की मृत्यु से रावण का आहत होना

कुंभकर्ण की मृत्यु से वानर सेना में फिर से उत्साह की लहर दौड़ गई। लेकिन विभीषण अपने बड़े भाई की मृत्यु पर दुखी हो रहे थे। राम ने उनके पास जाकर कहा,
"मैं आपके दुख को समझता हूंँ महाराज विभीषण। किंतु आप इस प्रकार शोक ना करें। आपके भाई कुंभकर्ण ने अपने अग्रज लंकापति रावण के लिए अपने प्राणों का बलिदान दिया है। वह एक वीर योद्धा था। किंतु जो अधर्म के मार्ग पर चलता है उसकी ऐसी ही गति होती है। अपने भाई रावण के कुकर्मों को जानने के पश्चात भी कुंभकर्ण उसके लिए आया था। यह जानते हुए भी कि रावण की तरफ से युद्ध करना धर्म का मार्ग नहीं है उसने अपने भाई के लिए युद्ध किया। यह उसका अपना चुनाव था। अतः आप स्वयं को दोष ना दें।"
राम द्वारा समझाए जाने पर विभीषण का दुख कम हुआ।

कुंभकर्ण जैसे शक्तिशाली और विशालकाय योद्धा का मारा जाना लंका वासियों के लिए अत्यंत आश्चर्य का विषय था। कुंभकर्ण के वध का समाचार सुनकर समस्त लंका वासियों में दुख और भय की लहर दौड़ गई। उनमें अपनी सुरक्षा को लेकर एक बार फिर असुरक्षा की भावना व्याप्त हो गई।

रावण को जब अपने भाई कुंभकर्ण के वध का समाचार मिला तो वह स्तब्ध रह गया। कुछ क्षणों तक तो उसे इस बात पर यकीन ही नहीं हो रहा था कि अपनी शक्ति के लिए प्रसिद्ध उसका भाई कुंभकर्ण वास्तव में मारा गया है। जब रावण को इस बात का विश्वास हुआ तो उसका मन अथाह दुख के सागर में डूब गया।
कुंभकर्ण से रावण को बहुत अधिक आशा थी। उसके युद्धभूमि में जाने के पश्चात उसे यकीन हो गया था कि अब शत्रु की हार होनी निश्चित है। परंतु उसके वध ने उसके आत्मबल को तोड़ दिया था। अब उसके में भी अब राक्षस जाति की सुरक्षा को लेकर भय की भावना व्याप्त हो गई थी। उसे लग रहा था कि जो कुंभकर्ण जैसे शक्तिशाली योद्धा को मार सकता है वह उसके समस्त कुल का नाश कर देगा।
रावण ने दुखी होकर कहा,
"मेरे अनुज कुंभकर्ण का जाना ऐसा है जैसे किसी ने मेरी एक भुजा काट दी है। मैं स्वयं को बहुत निर्बल और असहाय महसूस कर रहा हूँ। ऐसा प्रतीत हो रहा है जैसे कि अब राक्षस जाति के विनाश का समय निकट आ गया है।"
रावण को इस तरह दुखी और हताश देखकर दरबार में उपस्थित सभी लोग चिंतित हो गए थे। इंद्रजीत अपने पिता के इस स्थिति को देखकर बहुत परेशान था। अपने त्रिलोक विजई पिता के आत्मबल को वह इस प्रकार टूटते हुए नहीं देख सकता था। वह अपने स्थान से उठा और बोला,
"हे महाराज आपको इंद्र का वज्र, महादेव का त्रिशूल और विष्णु का सुदर्शन चक्र भी नहीं हरा सका। फिर लंकापति रावण आज इस प्रकार की बातें क्यों कर रहे हैं। शत्रु के साथ युद्ध में इस प्रकार हार जीत लगी रहती है। किसी एक योद्धा के वीरगति को प्राप्त हो जाने से युद्ध समाप्त नहीं हो जाता है। उन्होंने काका श्री कुंभकर्ण का वध किया है। किंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि उन्होंने लंका पर विजय प्राप्त कर ली है। अभी आपका पुत्र इंद्रजीत शेष है। उसके रहते आप इस प्रकार निराशा पूर्ण बातें क्यों कर रहे हैं।"
इंद्रजीत की बात से बल पाकर अतिकाय आगे आकर बोला,
"पिताजी भ्राता इंद्रजीत सर्वथा उचित बात ही कर रहे हैं। मैं भी आपका पुत्र हूँ। आप जानते हैं कि बल में मैं किसी से कम नहीं हूंँ। आप मुझे आज्ञा दीजिए। मैं रणभूमि में जाकर उन दोनों भाइयों को सबक सिखाऊँगा।"
अतिकाय की बात सुनकर इंद्रजीत ने कहा,
"मैं आयु में तुमसे बड़ा हूंँ। मेरे रहते हुए तुम्हारा युद्ध भूमि में जाना उचित नहीं है।"
इंद्रजीत की बात सुनकर अतिकाय ने कहा,
"भ्राता श्री क्षमा चाहता हूंँ किंतु शौर्य का आयु से कोई लेना देना नहीं होता। पराक्रम व्यक्ति के भीतर होता है। अतः मेरा अनुरोध है कि आप मुझे युद्ध भूमि में जाने दें।"
वहाँ उपस्थित रावण के एक और पुत्र देवांतक ने कहा,
"पिताश्री शक्ति में मैं भी किसी से कम नहीं हूँ। मेरा भी मन उन दोनों भाइयों से प्रतिशोध लेने का है। मुझे भी युद्धभूमि में जाने की आज्ञा दीजिए।"
इस पर रावण के दो और पुत्रों नरांतक और त्रिसिरा ने भी युद्धभूमि में जाने की अपनी इच्छा प्रकट की। सेनापति अकंपन ने कहा,
"महाराज आपके चारों पुत्र अतिकाय, देवांतक, नरांतक और त्रिसिरा महाबलशाली हैं। इनके अंदर वह क्षमता है कि यह चारों शत्रु सेना को धूल चटा कर युद्ध का निर्णय कर सकते हैं। अतः आप इन्हें युद्धभूमि में जाने की आज्ञा प्रदान कीजिए।"
सारी बातें सुनकर रावण के हृदय में छाई निराशा की बदली छट चुकी थी। उसने कहा,
"तुम लोगों ने मेरे अंदर एक नई ऊर्जा का संचार किया है। तुम लोग जाओ और अपनी शक्ति से शत्रु पक्ष के हौसले पस्त कर दो।"
रावण ने आदेश दिया कि इन चारों के साथ सेना की एक विशाल टुकड़ी भी भेजी जाए।


अतिकाय, देवांतक, नारांतक और त्रिसिरा का वध

रावण के चारों पुत्र पूरे उत्साह के साथ युद्धभूमि में गए। राक्षस सेना पूरे वेग से वानरों पर टूट पड़ी। वानर सेना भी पूरी ताकत से उनके आक्रमण का जवाब दे रही थी।
सारे महाभट अपने प्रतिद्वंद्वी से युद्ध करने लगे। देवांतक और नरांतक का अंगद के संग युद्ध होने लगा। दोनों पक्ष एक दूसरे पर भारी पड़ रहे थे। त्रिशिरा का सामना हनुमान से हुआ।
अतिकाय यह सोचकर आया था कि वह लक्ष्मण से युद्ध करेगा। उसने अपने सारथी को संदेश देकर भेजा। सारथी ने राम के पास जाकर कहा,
"मेरे स्वामी अतिकाय ने संदेश भिजवाया है कि वह आपके छोटे भाई लक्ष्मण से युद्ध करने के प्रण के साथ आए हैं। वह उनका मस्तक काटकर अपने काका कुंभकर्ण के वध का प्रतिशोध लेंगे। उन्होंने कहलाया है कि यदि आपके भाई लक्ष्मन में साहस है तो उनकी इस ललकार को स्वीकार कर उनके समक्ष युद्ध के लिए प्रस्तुत हों।"
अतिकाय की ललकार सुनकर लक्ष्मण क्रोध में उबलते हुए कहा,
"उससे जाकर कह दो कि लक्ष्मण में साहस की कमी नहीं है। मुझे ललकार कर उसने अपनी मृत्यु को न्योता दिया है।"
राम ने लक्ष्मण को आज्ञा दी कि वह जाकर अतिकाय के साथ युद्ध करें।
लक्ष्मण अतिकाय की चुनौती को स्वीकार कर जाने को तैयार थे तभी विभीषण ने उन्हें रोककर राम से कहा,
"प्रभु आप लक्ष्मण को अतिकाय का सामना करने भेज रहे हैं। अतिकाय कुंभकर्ण से भी अधिक बलशाली है। अतः निर्णय लेने से पहले एक बार विचार कर लें।"
विभीषण की बात लक्ष्मण को अच्छी नहीं लगी। उन्होंने कहा,
"विभीषण जी आप मेरे सामर्थ्य पर संदेह कर रहे हैं। वीर योद्धा रण में विचार विमर्श करने से अधिक अपने बाहुबल पर अधिक विश्वास करते हैं।"
विभीषण ने विनम्रतापूर्वक कहा,
"लक्ष्मण मुझे आपके सामर्थ्य पर तनिक भी संदेह नहीं है। किंतु वीर के लिए भी यही उचित होता है कि वह अपने शत्रु से युद्ध करने से पहले उसके बलाबल की थाह ले ले।"
राम ने लक्ष्मण को शांत कराते हुए विभीषण से कहा,
"आप बताइए कि आप अतिकाय के विषय में क्या कहना चाहते हैं ?"
विभीषण ने कहा,
"अतिकाय रावण की दूसरी रानी धन्यमालिनी का पुत्र है। वह सदा से ही बहुत शक्तिशाली था। एक बार उसने ठान लिया कि वह अपने भुजबल से चक्रवाल पर्वत को उखाड़ फेंकेगा। इसलिए वह उसे उखाड़ने का प्रयास करने लगा। तब महादेव ने अपना त्रिशूल उसकी तरफ फेंका। अतिकाय ने उसे हवा में पकड़ लिया। पर उसके बाद उसने बड़े ही आदर भाव से महादेव को प्रणाम किया। महादेव उससे प्रसन्न हो गए। उन्होंने उसे धनुर्विद्या सिखाई बल्कि कई दिव्यास्त्र भी प्रदान किए हैं। इसलिए मैं आपको सावधान करना चाहता था कि उसके साथ युद्ध करते समय दिव्यास्त्रों का प्रयोग ही उचित होगा।"
राम ने कहा,
"आपने हमारे हित के विषय में सोचकर यह बातें बताईं इसका धन्यवाद। परंतु लक्ष्मण भी पराक्रम में किसी से कम नहीं है। अतः आप निश्चिंत रहें।"
उसके बाद राम ने लक्ष्मण को युद्ध में जाने की आज्ञा देते हुए कहा,
"अनुज लक्ष्मण जाओ और युद्ध में विजय प्राप्त कर रघुकुल की कीर्ति को और बढ़ा दो।"
लक्ष्मण ने राम से आशीर्वाद लिया और अतिकाय से युद्ध करने चले गए। जब वह युद्धभूमि में पहुँचे तो उनका सामना पहले दारुक से हुआ। दारुक ने उन्हें युद्ध के लिए ललकारा। लक्ष्मण ने उसका सिर अपने बाण से काट दिया।
दारुक का वध करने के बाद लक्ष्मण का सामना अतिकाय से हुआ। अतिकाय ने उन्हें ललकारते हुए कहा,
"मुझे तुम्हारी ही प्रतीक्षा थी। तुम्हारा सिर काटकर मैं अपने पिताश्री के चरणों में समर्पित करूँगा। जिससे अपने अनुज कुंभकर्ण के दुख में व्याकुल मेरे पिता के ह्रदय को शांति मिल सके।"
"अतिकाय मुझे भी मेरे भ्राता राम से विजय का आशीर्वाद प्राप्त हुआ है। मैं भी उनके आशीर्वाद को व्यर्थ नहीं जाने दूँगा। तुम्हारा वध करके अपने कुल के यश को बढ़ाऊँगा।"
"तो फिर बातें बनाने के स्थान पर युद्ध करो।"
अतिकाय और लक्ष्मण के बीच युद्ध होने लगा। दोनों बड़े पराक्रम के साथ एक दूसरे का सामना कर रहे थे।
देवांतक और नरांतक का अंगद के साथ युद्ध छिड़ा हुआ था। अंगद साहस के साथ दोनों का ‌सामना कर रहा था। हनुमान रावण के एक और पुत्र त्रिशिरा के साथ द्वंद कर रहे थे। त्रिशिरा का वध करके अंगद की सहायता के लिए गए। उन्होंने देवांतक को अपने साथ युद्ध करने के लिए ललकारा।
अंगद नरांतक के साथ और हनुमान देवांतक के साथ युद्ध करने लगे। पहले अंगद ने नरांतक को मारा और फिर हनुमान ने देवांतक का अंत कर दिया।
सुग्रीव ने भी सेनापति अकंपन को मृत्यु की नींद सुला दिया।
रावण के तीन पुत्रों व सेनापति अकंपन के वध का समाचार राम तक पहुँचा। उन्होंने अंगद, हनुमान तथा सुग्रीव के शौर्य की प्रशंसा की। परंतु उनका ह्रदय अतिकाय एवं लक्ष्मण के युद्ध का परिणाम जाने के लिए व्याकुल था।
अतिकाय और लक्ष्मण के बीच युद्ध अपने चरम पर था। दोनों ओर से दिव्य बाणों की वर्षा हो रही थी। कोई किसी से भी कम जान नहीं पड़ रहा था। अतिकाय माया का प्रयोग कर अपने रथ समेत हवा में उड़ गया। लक्ष्मण के लिए विकट समस्या उत्पन्न हो गई। जब हनुमान ने उन्हें संकट में देखा तो तुरंत उनकी सहायता के लिए आए। हनुमान ने उन्हें अपने कंधे पर बैठा लिया। हवा में उड़कर वह उन्हें अतिकाय के समक्ष ले गए।
दोनों के बीच पुनः भयंकर युद्ध होने लगा। लक्ष्मण के लिए किसी भी तरह अतिकाय को मारना संभव नहीं हो रहा था। तब देवराज इंद्र ने वायु देव से संदेश भिजवाया कि अतिकाय के वध के लिए लक्ष्मण ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करें।
लक्ष्मण ने ब्रह्मास्त्र का संधान कर बाण चलाया। अतिकाय रथ सहित भूमि पर आ गिरा। लक्ष्मण के हाथों उसे वीरगति प्राप्त हुई।
अतिकाय पर विजय प्राप्त करके लक्ष्मण जब राम के पास पहुँचे तो राम ने गर्व से उन्हें गले लगा लिया। उन्हें आशीर्वाद देते हुए बोले,
"लक्ष्मण तुमने अतिकाय जैसे महाबली योद्धा का वध करके हमारे कुल की कीर्ति को बहुत बढ़ा दिया है। मेरा आशिर्वाद है कि तुम चिरंजीवी हो। तुम्हारी कीर्ति तीनों लोकों में फैले।"
विभीषण ने भी लक्ष्मण की प्रशंसा करते हुए कहा,
"अतिकाय का वध करना बहुत पराक्रम का कार्य है। इस कार्य को करके आपकी कीर्ति सभी ओर फैलेगी।"
राक्षस सेना को बहुत अधिक क्षति पहुँची थी। वानर सेना में बहुत उत्साह था।
विभीषण का मन बहुत उदास था। अपनी जाति के इस प्रकार विध्वंस पर वह व्यथित हो रहे थे। उन्हें चिंता थी कि इस प्रकार समस्त राक्षस संस्कृति का ह्रास हो जाएगा। उन्हें दुख हो रहा था कि इस सबको रोकने के उनके प्रयास व्यर्थ चले गए। अपने अहंकार के चलते रावण अपने स्वजनों और जाति की बलि चढ़ाने पर उतारू था। यह बात विभीषण को व्यथित कर रही थी।





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