मानस के राम
भाग 3
दोबारा तप का आरंभ
त्रिशंकु को सदेह स्वर्ग भेजने के लिए राजर्षि कौशिक ने तपोबल से संचित अपनी समस्त शक्तियां समाप्त कर दी थीं। इसलिए वह दोबारा कठिन तप करने के उद्देश्य से राजर्षि कौशिक पश्चिम दिशा की तरफ पुष्कर में तप करने के लिए चले गए।
कई वर्षों की कठिन तपस्या रंग लाई। ब्रह्मा जी ने राजर्षि कौशिक को ऋषि होने का वरदान दिया। इस वरदान के मिलने से भी कौशिक को संतुष्टि नहीं मिली। ब्रह्मर्षि का पद प्राप्त करना चाहते थे। अतः अपना संकल्प पूरा करने के लिए उन्होंने और भी कठिन तप आरंभ कर दिया।
इस बार ऋषि कौशिक का तप बहुत ही अधिक कठिन हो गया था। उनका इतना अधिक कठिन तप देखकर देवता परेशान हो गए। एक बार अपने तपोबल से अर्जित शक्तियों से ऋषि कौशिक ने एक नए स्वर्ग का निर्माण किया था। यदि इस बार उनकी तपस्या सफल हो जाती तो देवराज इंद्र का पद खतरे में पड़ सकता था।
देवराज इंद्र ऋषि कौशिक के कठोर तप से चिंतित थे। अतः उन्होंने तप भंग करने के लिए अपनी अप्सरा मेनका को भेजा।
मेनका द्वारा तप भंग
देवराज इंद्र का आदेश पाकर मेनका ऋषि कौशिक की तपस्या भंग करने के लिए धरती पर आई। मेनका समुद्र मंथन से उपजी थी। वह बहुत सुंदर थी। देवता गंधर्व दानव सभी उसके रूप के आकर्षण के समक्ष स्वयं को विवश पाते थे। मेनका को अपने सौंदर्य पर अहंकार था। उसने ऋषि कौशिक की तपस्या भंग करने के लिए चेष्ठाएं करनी शुरू कर दीं।
मेनका की चेष्ठाएं सफल हुईं। ऋषि कौशिक भी उसके रूप जाल में फंस गए। अपना तप छोड़कर दस वर्षों तक उन्होंने मेनका के साथ सुखपूर्वक जीवन व्यतीत किया। इस बीच उन्हें अपने उद्देश्य का ध्यान नहीं रहा। उनकी और मेनका की एक पुत्री हुई शकुंतला।
अंततः उनका स्वप्न टूटा। उन्हें अपने तप की याद आई। मेनका स्वर्गलोक वापस चली गई। अपनी पुत्री को कण्व ऋषि को सौंप कर ऋषि कौशिक पुनः तपस्या में लीन हो गए।
ब्रह्मर्षि पद की प्राप्ति
इस बार वह दृढ़ संकल्प के साथ बैठे थे। अपनी समस्त इंद्रियों को वश में कर वह हजारों साल तक तपस्या में लीन रहे। ब्रह्मा जी एक बार फिर उनके समक्ष प्रकट हुए। उन्होंने कहा,
"तुमने बहुत ही कठोर तप किया है। अब से तुम महर्षि पद को प्राप्त करते हो।"
परंतु अभी तपस्या का उद्देश्य पूरा नहीं हुआ था। उन्होंने ब्रह्मा जी से कहा कि मुझे वर दें कि मैं अपनी इंद्रियों को वश में कर सकूँ। इसके बाद वह फिर कठिन तपस्या में लीन हो गए।
एक बार पुनः इंद्र उनकी तपस्या से भयभीत हो गए। इस बार उन्होंने रंभा को तप भंग करने के लिए भेजा। ना चाहते हुए भी रंभा उनका तप करने पहुँची। महर्षि ने अपनी आँखें खोल कर देखा। वह समझ गए कि रंभा भी उनकी तपस्या भंग करने आई है। उन्होंने उसे दस हजार वर्षों तक मूर्ति बन कर रहने का श्राप दे दिया।
रंभा को श्राप देने के बाद उन्हें अनुभव हुआ कि अभी भी वह अपने क्रोध को वश में नहीं कर पाए हैं। यह ब्रह्मर्षि पद प्राप्त करने में एक बड़ी बाधा है।
महर्षि ने अपनी इंद्रियों और समस्त भावनाओं को बस में कर लिया। इस बार उन्होंने ऐसा कठिन तप किया कि उसके प्रभाव से उनके शरीर से तेज पुंज निकलने लगा।
ब्रह्मा जी उनकी इस तपस्या से बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने महर्षि के सामने प्रकट होकर कहा,
"तुम अपने संकल्प के पक्के हो। तुम्हें मनोवांछित पद प्राप्त होता है। अब तुम ब्रह्मर्षि पद प्राप्त करते हो। तुम अब विश्वामित्र के नाम से संसार में प्रसिद्ध होंगे।"
ब्रह्मर्षि विश्वमित्र अपनी सफलता से प्रसन्न थे। पर उनके मन में एक बात थी। वह चाहते थे कि महर्षि वशिष्ठ उन्हें इस रूप में स्वीकार करें।
देवताओं के कहने पर महर्षि वशिष्ठ ने उन्हें ब्राह्मण के रूप में स्वीकार कर लिया।
दण्कारण्य में प्रवेश
महाराज दशरथ के महल से निकल कर विश्वामित्र ने रात्रि में दोनों राजकुमारों के साथ सरयू नदी के तट पर पड़ाव डाला। इस समय विश्वामित्र ने राम और लक्ष्मण को बल तथा अतिबल नामक दो गुप्त मंत्र दिए। जिनके प्रभाव से दोनों को ना तो शारीरिक रूप से थकावट महसूस होती और ना ही शरीर को किसी प्रकार की क्षति पहुँचती।
सरयू नदी नदी के तट पर रात बिताने के बाद विश्वामित्र राम तथा लक्ष्मण को लेकर आगे बढ़े। चलते हुए तीनों अंग देश में कामाश्रम नामक जगह पर पहुँचे। आश्रम के ऋषियों से भेंट करने के पश्चात विश्वमित्र ने दोनों राजकुमारों को उस आश्रम के विषय में बताया। आश्रम भगवान शिव की तपस्या के लिए जाना जाता था। वहीं पर कामदेव ने अपने बाणों द्वारा उनके मन में काम उत्पन्न करने का प्रयास किया था। इस बात से कुपित होकर भगवान शंकर ने कामदेव को भस्म कर दिया था।
कामाश्रम में रात्रि विश्राम करने के बाद तीनों फिर आगे की यात्रा पर निकल पड़े। रास्ते में गंगा नदी पार करते हुए एक स्थान पर राम और लक्ष्मण को एक कोलाहल सा सुनाई पड़ा। उन्होंने विश्वामित्र से पूँछा कि यह आवाज़ कैसी है। विश्वामित्र ने बताया कि उस स्थान पर सरयू नदी गंगा नदी में समाहित हो रही है। दोनों राजकुमारों ने श्रद्धापूर्वक उस संगम को नमन किया।
रास्ते में राम तथा लक्ष्मण प्रकृति के सौंदर्य को देखकर अभीभूत हो गए। अविनाशी ईश्वर की इस कलाकृति को देखकर उनके मन में श्रद्धा का भाव पैदा हुई। कई नदियां, पहाड़ और वन पार करने के पश्चात तीनों ने एक घने वन में प्रवेश किया। विश्वामित्र ने राजकुमारों को बताया कि इस वन प्रदेश को दण्डकारण्य कहते हैं।
विश्वामित्र ने दण्डकारण्य के बारे में एक कथा सुनाई। मनु के पुत्र इक्ष्वाकु के सौ पुत्र थे। उनमें से सबसे छोटा पुत्र दुराचारी था। ऐसा पुत्र पिता के लिए दंड के समान होता है। अतः उसका नाम दंड पड़ गया था। उसे अपने से दूर कर इक्ष्वाकु ने विशाल वन प्रदेश का राज्य दे दिया।
दंड असुरों के गुरु शुक्राचार्य का शिष्य बन गया। उनके आश्रम में रह कर शास्त्रों का अध्ययन करने लगा। वहीं अपने गुरु की पुत्री अरजा पर उसकी दृष्टि पड़ी। उसने उसके साथ दुष्कर्म किया। अरजा ने सारी बात अपने पिता को बताई। गुरु शुक्राचार्य ने दंड। को श्राप दिया कि उसका राज पाठ सात दिनों में नष्ट हो जाएगा। वही प्रदेश दण्डकारण्य कहा जाता है।
दण्डकरण्य कभी एक उन्नत प्रदेश था। जहाँ लोग प्रसन्नतापूर्वक रहते थे। किंतु इस स्थान पर ताड़का नामक एक राक्षसी एवं उसके पुत्रों मारीच और सुबाहु ने कब्ज़ा कर लिया था। इन राक्षसों ने इस प्रदेश में बहुत उत्पात मचा रखा था। ताड़का और उसके पुत्र लोगों को मार कर खा जाते थे। अतः लोग भय से इस जगह को छोड़ कर भाग गए थे। अब यह एक निर्जन स्थान था जहाँ घना जंगल उग आया था।
ताड़का वध
ताड़का एक यक्षिणी थी। उसके पिता सुकेतु ने घोर तप किया था। जिससे प्रसन्न हो कर भगवान ब्रह्मा ने उसे एक ऐसी पुत्री का वरदान दिया जो बहुत सुंदर थी और जिसमे बहुत बल था। ताड़का का विवाह सुंड नामक यक्ष से हुआ। ऋषि अगत्स्य के श्राप के कारण सुंड की मृत्यु हो गई। इससे क्रोधित हो कर ताड़का और उसके पुत्रों ने अगत्स्य ऋषि का अपमान किया। ऋषि अगत्स्य ने उन्हें श्राप दिया कि वे राक्षस हो जाएं। तब से ताड़का अपने पुत्रों के साथ यहाँ रह रही थी। ये लोग विश्वमित्र के आश्रम में तबाही मचाते थे। ऋषिगणों को उनके काम में बाधा पहुँचाते थे।
विश्वामित्र ने राम से कहा यद्यपि ताड़का एक स्त्री है किंतु उसके कर्म दंडनीय हैं अतः उसका वध करने में कोई संकोच ना करें। यह सुन कर राम ने अपने धनुष की डोरी को खींच कर छोड़ दिया। इससे एक भीषण कोलाहल हुआ। इसे सुन कर ताड़का क्रोधित हो गई और हुंकारती हुई राम के सम्मुख आ गई। राम और ताड़का के बीच युद्ध हुआ जिसमें राम ने तड़का का वध कर दिया। दंडकारण्य उसके उत्पात से मुक्त हो गया।
अगले दिन प्रातःकाल विश्वामित्र ने राम को अपने पास बुला कर कुछ दिव्य अस्त्र दिए। उनके प्रयोग की विधि भी बताई। राम ने लक्ष्मण को भी वह ज्ञान प्रदान किया।
राम तथा लक्ष्मण विश्वामित्र के साथ उनके आश्रम पहुँचे जिसका नाम सिद्धाश्रम था। विश्वामित्र ने बताया कि यह वही स्थान है जहाँ नारायण ने तप किया था। इसी स्थान पर उन्होंने वामन अवतार के रूप में जन्मे थे। उनके आगमन पर आश्रम निवासी बहुत प्रसन्न हुए और उनका स्वागत किया।
दोनों राजकुमारों के आने से सभी निश्चिन्त होकर अपने नियत काम में लग गए। विश्वमित्र ने यज्ञ का आयोजन किया। राम और लक्ष्मण रात दिन पूरी सतर्कता से आश्रम की रक्षा करते थे।
एक दिन अचानक कोलाहल उठा सुबाहु और मारीच ने आश्रम पर हमला कर दिया था। राम और लक्ष्मण इस स्तिथि के लिए तैयार थे। उन्होंने राक्षसों का डट कर मुकाबला किया। सुबाहु मारा गया और मारीच राम के बाण से सौ योजन दूर जाकर गिरा। राम और लक्ष्मण की वीरता से आश्रम राक्षसों के आतंक से मुक्त हो गया। सारे आश्रम में ख़ुशी मनाई गई। राम तथा लक्ष्मण के परक्रम से विश्वमित्र बहुत प्रसन्न हुए।
राम और लक्ष्मण ने उनसे पूँछा कि अब उनके लिए क्या आदेश है। विश्वामित्र ने उनसे कहा कि वह उन्हें लेकर विदेह के राजा जनक के पास जा रहे हैं।