मानस के राम (रामकथा) - 4 Ashish Kumar Trivedi द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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मानस के राम (रामकथा) - 4




मानस के राम
भाग 4






गंगा के अवतरण की कथा


विश्वामित्र के आश्रम में दोनों राजकुमारों ने कुछ दिन तक विश्राम किया। उसके बाद विश्वमित्र उन्हें लेकर विदेह राज्य की राजधानी मिथिला नगरी की ओर चले। विश्वामित्र ने उन्हें बताया कि राजा जनक एक विद्वान शासक हैं। जनक वेदों के ज्ञाता और दार्शनिक थे। साथ ही वो बहुत शूरवीर थे। एक राजा होते हुए भी उनमें ब्राह्मणों जैसी विद्वता है। इसलिए उन्हें राजर्षि कहा जाता है। राजा जनक एक यज्ञ का आयोजन कर रहे हैं। तुम दोनों अयोध्या के राजकुमार हो। अतः उचित होगा कि तुम भी मेरे साथ वहाँ चलो।
मार्ग में कई उन लोगों को कई मनोहारी दृश्य दिखाई दिए। उन्हें देख कर राम प्रकृति के सौंदर्य पर मुग्ध हो गए। कई स्थानो पर रुकते हुए तीनों गंगा के तट पर पहुंचे। उन्होंने गंगा के शीतल निर्मल जल में स्नान किया। गंगा जल के स्पर्श से उनकी सारी थकान मिट गई। विश्वमित्र ने राजकुमारों को बताया कि उन्हीं के एक वंशज गंगा को धरती पर लाए थे‌। उन्होंने गंगा के पृथ्वी पर अवतरित होने की कथा सुनाई।
पर्वतराज हिमवान और उनकी पत्नी मेनका की दो पुत्रियां थीं। बड़ी पुत्री का नाम गंगा और छोटी का नाम उमा था। उमा का विवाह भगवान शिव से हुआ था। हिमवान ने अपनी बड़ी पुत्री गंगा को देवताओं के कहने पर देवलोक भेज दिया था।
इक्ष्वाकु वंश में सगर नाम के एक राजा का जन्म हुआ था। वह बहुत ही प्रतापी राजा थे। उनकी दो पत्नियां थीं केशिनी और सुमति। परंतु दोनों से उनको कोई संतान नहीं थी। उन्होंने अपनी पत्नियों के साथ हिमालय पर जाकर कठोर तप किया। उनके तप से प्रसन्न होकर भृगु ऋषि ने उन्हें आशीर्वाद दिया कि उनके कई पुत्र होंगे। उनका यश और कीर्ति बहुत समय तक धरती पर रहेंगे। भृगु ऋषि ने कहा कि उनकी एक पत्नी केवल एक पुत्र को जन्म देगी। जिससे तुम्हारा वंश आगे बढ़ेगा। दूसरी साठ हजार पुत्रों की माँ बनेगी। केशिनी ने एक पुत्र की माँ होना स्वीकार किया। सुमति को दूसरा विकल्प मिला।
समय के साथ केशिनी ने असमंजस नामक एक पुत्र को जन्म दिया। सुमति के गर्भ से एक मांस पिण्ड निकला जो साठ हजार पुत्रों में विभक्त हो गया। असमंजस बहुत ही क्रूर व अत्याचारी था। उसे लोगों को सताने में बहुत मज़ा आता था। प्रजा उससे घृणा करती थी। किंतु उसके स्वभाव के विपरीत उसका पुत्र अंशुमान एक सह्रदय व वीर पुरुष था।
राजा सगर ने अश्वमेघ यज्ञ का आयोजन किया। अंशुमान यज्ञ का अश्व लेकर चल रहा था। पर देवताओं के राजा इंद्र ने राक्षस रूप धर कर यज्ञ के अश्व को चुरा लिया। इस बात से सगर बहुत दुखी हुए। उन्होंने अपने साठ हजार पुत्रों को अश्व की खोज में भेजा। सगर के पुत्रों ने अश्व की खोज में सारी धरती छान मारी। किंतु अश्व नहीं मिला। अश्व की खोज में वह सभी पाताल लोक गए। वहाँ अश्व उन्हें कपिल मुनि के आश्रम में चरते हुए दिखाई दिया। दरअसल इंद्र ने ही जानबूझ कर अश्व वहाँ छोड़ा था। किंतु सगर पुत्रों को लगा कि इस मुनि ने ही अश्व चुराया है और अब ध्यान करने का नाटक कर रहा है। अतः उन्होंने मुनि को ध्यान से जगा दिया। कपिल मुनि कठोर तप कर रहे थे। जैसे ही उन्होंने नेत्र खोले उनके तपोबल के तेज से सगर के पुत्र जल कर भस्म हो गए।
सगर के पुत्र जब लौटकर नहीं आए तो वह बहुत चिंतित हुए। उन्होंने अंशुमान को उनकी खोज करने के लिए पाताल लोक भेजा। अंशुमन को पाताल लोक में यज्ञ का अश्व दिखाई पड़ गया। वह बहुत प्रसन्न हुआ। पर अश्व के पास राख के अनेक ढेर देखकर उसे लगा कि कहीं वह उसके संबंधियों की राख ना हो जिन्हें वह ढूंढ़ने आया है।
पक्षीराज गरुड़ ने उसे बताया कि वह राख के ढेर सगर के साठ हजार पुत्रों के हैं। जो कपिल मुनि के श्राप से भस्म हो गए हैं। इनकी मुक्ति का एक ही उपाय है कि गंगा को धरती पर लाया जाए और इनकी राख गंगा जल में प्रवाहित की जाए। अंशुमन लौट आया। उसने सगर को सारी बात बताई। यह समाचार सुन कर बहुत दुखी हुए। अश्व के वापस आने पर उन्होंने यज्ञ पूरा किया। पर सगर अपने पुत्रों की मृत्यु के दुख से चल बसे।
सगर के बाद अंशुमान राजा बने। उनके पुत्र हुए महाराज दिलिप। दिलिप के पुत्र थे भागीरथ। भगीरथ बहुत ही प्रतापी राजा थे। जब उन्हें पता चला कि उनके वंशज सगर के मृत पुत्रों की मुक्ति का एक ही उपाय है कि गंगा के पावन जल में उनकी भस्म को विसर्जित किया जाए। इसके लिए गंगा को धरती पर लाने की आवश्यकता थी। भगीरथ शूरवीर और दृढ व्यक्तित्व के थे। उन्होंने अपने पुरखों की आत्मा की मुक्ति के लिए गंगा को धरती पर लाने का निश्चय किया। उन्होंने कठोर तप किया। उनके तप से प्रसन्न हो कर ब्रह्मा जी ने उनसे वरदान मांगने को कहा। तब भगीरथ बोले,
"यदि आप मेरे तप से प्रसन्न हैं तो वरदान दें कि मेरे पुरखों की मुक्ति के लिए मैं गंगा को स्वर्ग से धरती पर ला सकूँ।"
भगवान ब्रह्मा ने कहा,
"तुम्हारे तप से मैं प्रसन्न हूँ। अतः गंगा को धरती पर लाने का वरदान देता हूँ। किंतु गंगा के भीषण वेग को संभालने की शक्ति केवल भगवान शिव के पास ही है अतः उनसे प्रार्थना करो कि वह गंगा के वेग को अपनी जटाओं में रोक लें।"

भगीरथ ने भगवान शिव की तपस्या की। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर शिव ने उनसे वर मांगने को कहा। भगीरथ ने प्रार्थना की कि जब गंगा धरती पर आएं तो भगवान शिव गंगा को अपनी जटाओं में रोक लें। भगवान शिव इस बात के लिए तैयार हो गए।
ब्रह्मा जी ने गंगा को धरती पर जाने का आदेश दिया। उन्होंने कहा कि वह शिव की जटाओं में समा जाएं। गंगा को अपने वेग पर बहुत अभिमान था। उन्हें लगा कि उनके वेग से तो शिव भी पाताल लोक में चले जाएंगे।
भगवान शिव उनके अहंकार को भांप गए। जब गंगा उनकी जटाओं में आईं तो वह उसमें फंस कर रह गईं। गंगा का अभियान समाप्त हो गया। तब भगवान शिव ने गंगा की एक धारा को मुक्त कर दिया। तब से पतित पावनी गंगा धरती को अपने निर्मल जल से सींच रही है। गंगा को भगीरथी भी कहा जाता है।
अपने पूर्वज के अदम्य साहस और दृढनिश्चय की गाथा सुन कर राम और लक्ष्मण ने गर्व का अनुभव किया। गंगा को प्रणाम कर तीनों आगे बढ़ गए।


अहिल्या का उद्धार

मिथिला नगरी में प्रवेश करने से पहले मार्ग में एक बहुत सुंदर आश्रम दिखाई पड़ा। परंतु वह आश्रम निर्दन था। उस आश्रम को निर्जन पड़े देखकर राम ने विश्वमित्र से पूँछा,
"गुरुदेव यह आश्रम किसका है ? यह इस प्रकार निर्जन और सुना क्यों है ?"
विश्वामित्र ने बताया कि वह आश्रम गौतम ऋषि का है। वह और उनकी पत्नी अहिल्या इस आश्रम में रहा करते थे। किंतु एक शाप के कारण यह आश्रम निर्जन हो गया। राम तथा लक्ष्मण के कहने पर विश्वामित्र ने अहिल्या की कहानी सुनाई।
गौतम ऋषि और उनकी पत्नी अहिल्या ईश्वर भक्ति में लीन सुखपूर्वक आश्रम में रहते थे। अहिल्या बहुत ज्ञानवती और अनुपम सुंदरता की स्वामिनी थी। देवताओं के राजा इंद्र की कुदृष्टि उस पर पड़ी। वह उसके रूम पर आसक्त हो गए। उन्होंने थाने की मां किसी भी कीमत पर अहिल्या को पाकर रहेंगे। परंतु गौतम ऋषि और उनकी पत्नी है क्या धर्म परायण थे। अहिल्या एक पतिव्रता स्त्री थी। उसे हासिल कर पाना इंद्र के लिए आसान नहीं था।
एक दिन गौतम ऋषि जब ब्रह्म मुहूर्त में स्नान के लिए गए थे तब उनकी अनुपस्थिति का लाभ उठाकर इंद्र बुरी भावनाओं के साथ उनके आश्रम में आए। उन्होंने गौतम ऋषि का वेष बना लिया।
वह अहिल्या के पास गए और उससे प्रणय निवेदन किया। अहिल्या को आश्चर्य हुआ कि इस समय ब्रह्म मुहूर्त में उनके पति इस तरह की इच्छा कैसे कर सकते हैं। परंतु उन्होंने पति की आज्ञा मान स्वयं को समर्पित कर दिया।
अपनी इच्छा पूर्ति के बाद इंद्र जब जा रहे थे तो उसी समय गौतम ऋषि ने आश्रम में प्रवेश किया। उन्होंने अपनी शक्ति से इंद्र को पहचान लिया एवं यह भी जान गए कि वह किस प्रयोजन से आए थे। उन्हें इंद्र पर बहुत क्रोध आया। उन्होंने श्राप दिया कि इंद्र नपुंसक हो जाएं। इंद्र वहाँ से चले गए। उसके बाद गौतम ऋषि अपनी पत्नी अहिल्या के पास गए। उन्होंने अपनी पत्नी को श्राप देते हुए कहा,
"तुमने अपने विवेक का प्रयोग किए बिना इंद्र के कुकर्म में साथ दिया। मैं तुम्हें श्राप देता हूँ कि तुम पत्थर बन जाओ।"
अहिल्या को अपनी गलती का एहसास हो गया था। उसने माफी मांगते हुए कहा,
"मैं इंद्र के छल में आ गई। मुझसे निसंदेह अपराध हुआ है। परंतु मैंने जो कुछ भी किया आपको मन में रखकर किया।"
गौतम ऋषि ने कहा,
"जब दशरथ नंदन राम इस आश्रम से गुजरेंगे तब उनके चरणों के स्पर्श से तुम पुनः अपने स्वरूप में आ जाओगी।"
अहिल्या की कथा सुनाने के बाद विश्वमित्र ने राम से कहा,
"आश्रम के भीतर चलकर अहिल्या को उसके श्राप से मुक्त करो।"
राम विश्वमित्र और लक्ष्मण के साथ आश्रम के अंदर गए। वहाँ एक शिला खंड को उन्होंने अपने चरणों से स्पर्श किया। वह शिलाखंड अहिल्या में परिवर्तित हो गया।
अहिल्या ने अपने उद्धार के लिए राम को धन्यवाद दिया। राम और लक्ष्मण ने ऋषि पत्नी के पैर छुए। अहिल्या अपने पति को गौतम के पास चली गई।